एक दिन गाँव के सभी कुत्तोने मिलकर एक आसोसियशन का निर्माण किया उस असोसीयसन का नेत्रत्व 'टॉमी' नाम के कुत्ते ने किया. टॉमी ने चौपाल के सभी कुतों को इक्कठा किया और टॉमीने आपना भाषण भौंकने लगा.
" एहां उपस्थित साथियों को प्रणाम अब मैं कुछ अहम मुद्दों पर चर्चा करेंगे. मेरा सबसे पहले आप लोगों को एक बात
पूछना चाहता हूँ की यह आदमी ल़ोग जब भी किसी बुरे आदमी को गाली देने का हैं तो हमारे नाम से ही गाली क्यूँ देते हैं? उदहारण के लिए 'कुत्ते कमीने ' इस शब्द का प्रयोग किया करते हैं और यह हमारे लियें शर्म की बात हैं. अब हमने भी यह सोच रखा हैं की किसी भी कुतों को गाली देना हैं तो आजसे हम भी आदमी के नाम से गाली दिया करेंगे जैसा की 'आदमी कमीने'. मेरे कुतों, हमारा सबसे पहले यह हक बनता हैं की जो फिल्मोमे काम करे वाले ल़ोग हमेशाही इस भाषा का प्रयोग किया करते हैं. लेकिन क्यूँ क्या हम वफादार होते हैं इस लियें? आदमी लोगों का एक बहुत ही बड़ा सिनेमा हैं जिसका नाम हैं शोले वहां तो हीरो अपने हेरोइन को कहता हैं 'बसंती इन कुत्तों के सामने मत नाच' मुझे तो उस फिल्म में दूर दूर कोई कुत्ता नज़र नहीं आता फिर भी इस भाषा का प्रयोग ओ भी गुंडों के लिए यह कतई शोभा नहीं देता और हमारा पहला उद्देश यह हैं की हम उस शोले पिक्चर का बहिष्कार करंगे".
एक कुत्ता उठकर भौंका..
"लेकिन हम बहिष्कार करे तो कैंसे? क्यूँ की आदमी बहुत ही चालाक और बेईमान होता हैं और हम जैसे वफादार कुत्तों को भी कमीने शब्द का प्रयोग किया करता हैं. असल बात यह हैं के ओ खुद कमीना होता हैं"
टॉमी आगे बोला..
"आज से हम एक प्लान के मुताबिक काम करंगे अगर कहाँ भी शोले का पोस्टर दिखाई दिए तो पहले उसे फाड़ देंगे. शोले का नहीं बल्कि उस हीरो का हर एक पोस्टर्स फाड़ देंगे जिसनेभी इस शब्द का प्रयोग किया हो"
और एक कुत्ता उठकर भौंका
"अगर हमने ऐसा किया तो कमीने आदमी लोग हमें छोड़ देंगे क्या"
टॉमी भौंका..
"ओ कमीने आदमी ल़ोग हमारा कुछ बिगाड़ नहीं सकते क्यूँ की हम यह काम रातमें किया करंगे. और रात में अगर कोई चोर आदमी किसी के घर में घुसा तो भौंकना नहीं. और जब सब ल़ोग आराम से सोये होते हैं तो तभी हम जोर जोर से भौंकना चालू रखेंगे और कमीने आदमीयों नींद हराम कर देंगे".
एक और कुत्ता उठाकर भौंकने लगा
"सुना हैं उस कमीने आदमियोने फैसला किया हैं की बिजली के खम्बे उखाड़ देने वाले हैं इस हालात में हम क्या करेंगे?
टॉमी भौंका..
"कोई बात नहीं कुछ ल़ोग कार तो घर के बहार ही पार्क करंगे ना"
"लगता हैं उसके लिए भी एक नया नियम आने वाला हैं जैसा की जिसके एहां पार्किंग की सुविधा हैं सिर्फ वही ल़ोग कार लिया करंगे"
"डरने की कोई बात नहीं हम गेट कूदकर अन्दर जायेंगे और हमारा काम करेंगे अगर गेट कूद ना सके तो कम्पौंड की दिवार का इस्तमाल किया करंगे. मेरे प्यारे कुत्तों कुछ और समस्या रहे तो अभी बोल दो"
सभी कुत्तोने हाँ भर दी और जोश जल्लोष के साथ नाचभौंकना चालू किया .....
रोहन यह देख रहा था और ओ भी खुशीसे उन कुत्तों के साथ नाच रहा था..रोहन उठो... रोहन..माँ की आवाज़ ने रोहन को जगा दिया. रोहन मन ही मन में सोचने लगा की कितना अच्छा सपना था "कुत्ते कमीने"
Friday, April 30, 2010
Friday, April 16, 2010
मुंबई का ऑक्सिजन
जिसे सोना था ओ बैठे हुए हैं, जिसे बैठना था ओ खड़े हैं, जिसे खड़े रहना था ओ चल रहे हैं, जिसे चलना था ओ दौड़ रहे हैं और जिसे दौड़ना था उससे भी तेज सवारी पकड़ते हैं। यही हैं मुंबई इसे हम मायानगरी भी कहते हैं। अगर हम पुरे हिन्दुस्तान का मुआयना किया तो यह बात सामने आती हैं की हिंदुस्तान सिर्फ दो तरह के ल़ोग रहते हैं एक मुंबई में रहने वाले और दुसरे किसी और शहरमे। कहते हैं एहां ल़ोग मशीन की तरह काम करते हैं। कुछ लोगोने ने तो इसे यांत्रिक जीवन बताया हैं।
इस यांत्रिक जीवन को सरल बनाने के लिए वहां लोकल गाड़ियाँ हैं उसे हम मुंबई की रक्तवाहिकाएँ कहते हैं। मुंबई का जलवा देखकर यह मालूम पड़ता हैं की उसमे यात्रा करने वाले लोग यानी रक्त कोशिकाएं जो इस पुरे शहर को ऑक्सिजन सप्लाय करती हैं। सोचने वाली बात यह हैं की आखिर मुंबई का ऑक्सीजन हैं क्या? मुंबई का ऑक्सिजन यानि पैसा, यह पैसा ही मुंबई को आबाद किया हैं और यह पैसा आता हैं हर एक इंसान के खून पसिनेकी कमाई से। एहां काम करने वाला हर इंसान मशीन की तरह काम करता हैं। अपने जीवन शैली साथ साथ उस शहर की तरक्की का हिस्स्सा बन जाता हैं ।
एहां लोगों का एकही मकसद होता हैं काम और उसी काम के लिए सुबह की लोकल पकड़ना बहुत ही जरुरी बन जाता हैं। लोकल छुट गई तो बस, इस लिए यहाँ ९० प्रतिशत ल़ोग अपने लोकल का समय निश्चित करके ही चलते हैं। जीवन का समय निश्चित हो ना हो लेकिन लोकल का समय निश्चित होनाही हैं। एहां बहुतसे ल़ोग ऐसे हैं की अपनी लोकल समय पे पकड़ने के लिए रेल लाइन क्रास करते हैं और इसमें बहुतसे ल़ोग आपनी रक्त वाहिनियाँ को रेल के हवाले छोड़ देकर जान गवां बैठते हैं। जब ओ रेल के निचे कटते हैं तो खून उसी तरह बहता हैं जैसा की स्टेशन में रुकी हुई ट्रेन में से लोग बहार आते हैं। मुंबई में लोगों का जीने का और काम करने का तरिका बिलकुल ही अलग हैं। कहते हैं जो आदमी मुंबई में टिका तो ओ दुनिया को बिका। ल़ोग सभी शहरोंमें रहते हैं लेकिन हर शहर का एक स्टाइल हैं, दुसरे बड़े शहरों में काम तो होता हैं लेकीन मुंबई के हिसाब से कम ही होता हैं।
कई लोगोने सवाल उठाए हैं की मुंबई किसकी ? उनके लिए मेरा उत्तर एक ही हैं। मुंबई उन लोगोंकी है जो उस लोकल की भीड़से गुजरकर रोजीरोटी कमाते हैं। मुंबई तो उन लोगोंकी हैं जो लोग कामपर नहीं बल्कि युद्ध पर जा रहे हैं। मुंबई तो आम लोगोंकी हैं जो लोग रक्त कोशिकाएं बनकर पुरे मुंबई को ऑक्सिजन सप्लाय करते हैं। और एही हैं मुंबई का ऑक्सिजन जो मुंबई को ज़िंदा रखा हैं।
एहां लोगों का एकही मकसद होता हैं काम और उसी काम के लिए सुबह की लोकल पकड़ना बहुत ही जरुरी बन जाता हैं। लोकल छुट गई तो बस, इस लिए यहाँ ९० प्रतिशत ल़ोग अपने लोकल का समय निश्चित करके ही चलते हैं। जीवन का समय निश्चित हो ना हो लेकिन लोकल का समय निश्चित होनाही हैं। एहां बहुतसे ल़ोग ऐसे हैं की अपनी लोकल समय पे पकड़ने के लिए रेल लाइन क्रास करते हैं और इसमें बहुतसे ल़ोग आपनी रक्त वाहिनियाँ को रेल के हवाले छोड़ देकर जान गवां बैठते हैं। जब ओ रेल के निचे कटते हैं तो खून उसी तरह बहता हैं जैसा की स्टेशन में रुकी हुई ट्रेन में से लोग बहार आते हैं। मुंबई में लोगों का जीने का और काम करने का तरिका बिलकुल ही अलग हैं। कहते हैं जो आदमी मुंबई में टिका तो ओ दुनिया को बिका। ल़ोग सभी शहरोंमें रहते हैं लेकिन हर शहर का एक स्टाइल हैं, दुसरे बड़े शहरों में काम तो होता हैं लेकीन मुंबई के हिसाब से कम ही होता हैं।
कई लोगोने सवाल उठाए हैं की मुंबई किसकी ? उनके लिए मेरा उत्तर एक ही हैं। मुंबई उन लोगोंकी है जो उस लोकल की भीड़से गुजरकर रोजीरोटी कमाते हैं। मुंबई तो उन लोगोंकी हैं जो लोग कामपर नहीं बल्कि युद्ध पर जा रहे हैं। मुंबई तो आम लोगोंकी हैं जो लोग रक्त कोशिकाएं बनकर पुरे मुंबई को ऑक्सिजन सप्लाय करते हैं। और एही हैं मुंबई का ऑक्सिजन जो मुंबई को ज़िंदा रखा हैं।
Saturday, February 20, 2010
महंगाई मार गई......
आजकल महंगाई ईतनी बढ़ गई हैं की सब्जियों के दाम आसमान को छु रहे हैं. "घर की मुर्गी दाल बराबर" अब यह कहावत भी गलेसे नहीं उतर रही. कहावत के साथ साथ दाल और सब्जी का भी गलेसे उतरना एक कसरत हो गया हैं. आम आदमी की भाग दौड़ देख कर टमाटर भी हस हसकर लाल हो गया हैं. प्याज तो बिना कटे ही रुला रहा हैं. शक्कर भी कुछ कम नहीं हैं दाल और चावल के साथ मिलकर आम आदमी पे हस रही हैं.
एक दिन में जल्दीमें ऑफिस जा रहा था तो बीवी ने आवाज दी
"आज ATM से पैसे ले आना"
"कितने "
"बस एक दो हजार ज्यादा लाना"
"मेरे पास नोट छापने की मशीन हैं ना! दो क्या चार हज़ार ज्यादा लो "
"महंगाई बहुत ही बढ़ गई है"
"लेकिन salary तो नहीं बढ़ी ना"
"ठीक हैं इस महीनेका पूरा सामान खुद ले आओ"
"ठीक हैं"
"लेकिन एक शर्त पर"
"कौन सी" मैंने पूछा
"अगर आप पूरे महीने का सामान बजट के अन्दर लाओगे तो में मेरा महीने का बजट कम कर दूंगी"
"अगर ज्यादा हुआ तो"
"जितना भी ज्यादा होता हैं, उसमे और हज़ार रु और जोड़ देना"
"हज़ार बहुत ही ज्यादा हैं,थोडा और कम करो"
"फिर कितने"
"पांचसो उस से ज्यादा नहीं दे सकता"
"ठीक हैं"
फिर हम दोनों में तय हो गया. महिने सारा खर्चा कैसा कम करने का यह सोचते सोचते जल्दी निकल पड़ा लंच टाइम में फ़ोन करके पुरे सामान की सूचि बनाई. मुझे लगने लगा की शायद मैंने जिम्मेदारी ली इस लिए बड़ी लिस्ट मेरे हाथ में थमाई हैं. यह सोचते सोचते में ऑफिस से सीधा बिग बाज़ार में गया और लिस्ट के मुताबिक सभी सामान ले आया और मन मन में मैंने सोचा हज़ार रूपए तो बचाही लिया.
फिर पेपर वाले का बिल .केबल का ,लाइट बिल सभी का बिल चुकाते चुकाते में थक गया. फिर भी मै खुश था की थोड़े रूपए तो बचा ही लिया मुझे यह साबित करना था की तुमसे कम रु खर्च किये हैं. जैसाही सप्ताह गुज़र गया फिर दूध वाला भैय्या आ टपका फिर मैने उसका भी हिसाब चुकता किया. सब्जी वाले को बता रखा था की पुरे महीने का हिसाब एक ही बार देयगा और हर रोज घर में जो भी चाहिए होता दे देना. मैं मन ही मन में सोच रहा था की अभी तो एकही हप्ता बचा, कुछ खर्चा नहीं होगा. मैंने जैसे ही घर में कदम रखा तो सब्जी वाला टपक गया .पध्रह सौ के आस पास उसका बिल था फिर मैंने वालेट निकाला तो उतने रु नहीं थे. सब्जी वाले को कल आके ले जाने को कहा, क्यूँ की मेरी जेब पुर खाली ही गई थी. अभी महीने के सिर्फ चार दिन ही बच गए फिर मैने बीवी से पुछा
"कल मैं फिर से ATM जा रहा हूँ सब्जी वाले के सिवा और कुछ बाकी" इस बार मुझे दूसरी बार ATM जाना पड़ रहा था.
"LPG गैस आने वाला हैं उसके लिए भी रु निकल लाना" उसने कहा.
और दो दिन बीत गए, अभी केवल दो दिन बचे थे . गैसवाला सिलेंडर ले आया उसका भी बिल चुकता किया . एक महिना गुज़र चूका फिर हमने पूरा हिसाब किया तो मैं हैरान रह गया क्यूँ की मेरे जेबसे तक़रीबन दो हज़ार रु से भी ज्यादा खर्च हुये थे.
अगला महिना शुरू हुआ, अब उसकी बारी थी, मैं मन ही मन में सोचने लगा पिछले महीने में बीवी को दो हज़ार ज्यादा देता तो शायद ठीक होता.अभी मुझे बजट में दो हज़ार पांच सौ रु ज्यादा बढाने पड़े हर घर की यही कहानी हैं. क्यूंकि हमारी सरकार और नेता लोग सो रहे हैं और आम आदमी की फ़िक्र किसे. अभी तो चुनाव का मौसम भी नहीं हैं. अगर हर साल चुनाव आता ती कितना अच्छा होता. हर चूनावके पहले महंगाई में कमी जरुर होती हैं. यही हैं आम आदमी की जिंदगी जो महंगाई की चक्की में पिस रहा हैं. मुझे तो महंगाई मार गई ....
एक दिन में जल्दीमें ऑफिस जा रहा था तो बीवी ने आवाज दी
"आज ATM से पैसे ले आना"
"कितने "
"बस एक दो हजार ज्यादा लाना"
"मेरे पास नोट छापने की मशीन हैं ना! दो क्या चार हज़ार ज्यादा लो "
"महंगाई बहुत ही बढ़ गई है"
"लेकिन salary तो नहीं बढ़ी ना"
"ठीक हैं इस महीनेका पूरा सामान खुद ले आओ"
"ठीक हैं"
"लेकिन एक शर्त पर"
"कौन सी" मैंने पूछा
"अगर आप पूरे महीने का सामान बजट के अन्दर लाओगे तो में मेरा महीने का बजट कम कर दूंगी"
"अगर ज्यादा हुआ तो"
"जितना भी ज्यादा होता हैं, उसमे और हज़ार रु और जोड़ देना"
"हज़ार बहुत ही ज्यादा हैं,थोडा और कम करो"
"फिर कितने"
"पांचसो उस से ज्यादा नहीं दे सकता"
"ठीक हैं"
फिर हम दोनों में तय हो गया. महिने सारा खर्चा कैसा कम करने का यह सोचते सोचते जल्दी निकल पड़ा लंच टाइम में फ़ोन करके पुरे सामान की सूचि बनाई. मुझे लगने लगा की शायद मैंने जिम्मेदारी ली इस लिए बड़ी लिस्ट मेरे हाथ में थमाई हैं. यह सोचते सोचते में ऑफिस से सीधा बिग बाज़ार में गया और लिस्ट के मुताबिक सभी सामान ले आया और मन मन में मैंने सोचा हज़ार रूपए तो बचाही लिया.
फिर पेपर वाले का बिल .केबल का ,लाइट बिल सभी का बिल चुकाते चुकाते में थक गया. फिर भी मै खुश था की थोड़े रूपए तो बचा ही लिया मुझे यह साबित करना था की तुमसे कम रु खर्च किये हैं. जैसाही सप्ताह गुज़र गया फिर दूध वाला भैय्या आ टपका फिर मैने उसका भी हिसाब चुकता किया. सब्जी वाले को बता रखा था की पुरे महीने का हिसाब एक ही बार देयगा और हर रोज घर में जो भी चाहिए होता दे देना. मैं मन ही मन में सोच रहा था की अभी तो एकही हप्ता बचा, कुछ खर्चा नहीं होगा. मैंने जैसे ही घर में कदम रखा तो सब्जी वाला टपक गया .पध्रह सौ के आस पास उसका बिल था फिर मैंने वालेट निकाला तो उतने रु नहीं थे. सब्जी वाले को कल आके ले जाने को कहा, क्यूँ की मेरी जेब पुर खाली ही गई थी. अभी महीने के सिर्फ चार दिन ही बच गए फिर मैने बीवी से पुछा
"कल मैं फिर से ATM जा रहा हूँ सब्जी वाले के सिवा और कुछ बाकी" इस बार मुझे दूसरी बार ATM जाना पड़ रहा था.
"LPG गैस आने वाला हैं उसके लिए भी रु निकल लाना" उसने कहा.
और दो दिन बीत गए, अभी केवल दो दिन बचे थे . गैसवाला सिलेंडर ले आया उसका भी बिल चुकता किया . एक महिना गुज़र चूका फिर हमने पूरा हिसाब किया तो मैं हैरान रह गया क्यूँ की मेरे जेबसे तक़रीबन दो हज़ार रु से भी ज्यादा खर्च हुये थे.
अगला महिना शुरू हुआ, अब उसकी बारी थी, मैं मन ही मन में सोचने लगा पिछले महीने में बीवी को दो हज़ार ज्यादा देता तो शायद ठीक होता.अभी मुझे बजट में दो हज़ार पांच सौ रु ज्यादा बढाने पड़े हर घर की यही कहानी हैं. क्यूंकि हमारी सरकार और नेता लोग सो रहे हैं और आम आदमी की फ़िक्र किसे. अभी तो चुनाव का मौसम भी नहीं हैं. अगर हर साल चुनाव आता ती कितना अच्छा होता. हर चूनावके पहले महंगाई में कमी जरुर होती हैं. यही हैं आम आदमी की जिंदगी जो महंगाई की चक्की में पिस रहा हैं. मुझे तो महंगाई मार गई ....
Sunday, February 14, 2010
MY NAME IS.....
दुनिया में सिर्फ दो तरह के लोग होते हैं अच्छे और बुरे विचारधारा के , बहुत ही नेक सोच हैं इसपे कोई दो राय नहीं. पिछले दस दिनोसे मैं येही देख रहा हूँ टीवि पर, नेट पर सभी जगह यही खबर थी इसके अलावा कुछ देखही नहीं पाते थे. उनका नाम से क्या वास्ता कुछ भी तो नहीं वैसा तो शेक्सपियर ने कहा था की नाम में क्या रखा हैं. लेकिन हमारी राजनातिक पार्टियाँ पूरी तरह नाम पे ही निर्भर हैं नाकि काम पे. शिवसेना ने सरकार को झुकाने ने के लिए मैदान में उतरी थी यह कहकर की माय नेम इज ..... और दूसरी तरफ कांग्रेस के सी एम माय नेम इज ...... दोनों भी अपनी अपनी जिद पर इतने अड़ गए थे की किसका नाम आगे लायें इस महाभारत में सारी सरकार माय नेम के पीछे खड़ी थी ओ भी पूरी पुलिस फौज के साथ और इसके साथ ओ यह भूल गयी थी की शांति का संदेश देनेवाली माय नेम इज... के बावजूद भी आतंकवादी हमला हो सकता हैं. इसी बात का फायदा उठाकर आतंकीयों ने पुणे ब्लास्ट को अंजाम दिया था. कौन हैं इसके लिए जिम्मेदार? जहाँ कुछ निरपराध लोग मारे गएँ और कई लोग घायल हुए. और उन घायलों को अस्पताल भर्ति किया गया सिर्फ इंसान के नाम पर या माय नेम इज .....तो ही मुझे भर्ती करों, क्या कोई घायल ऐसा तो नहीं कह रहा था. मैं सभी मीडिया कर्मी और राजनितिक दलोंसे गुजारिश करना चाहता हूँ की आप मुंबई , मराठा मानुस और माय नेम इज ... को बक्श दो और देश की तरफ ध्यान दो और सोचो की आतंकवादी हादसों से किस तरह निपट सके.
उन दिनों की बात हैं मैं मुंबई में रहा करता था और अभी भी मैं कभी कभी मुंबई जाया करता हूँ लेकिन मैं सौ प्रतिशत दावे के साथ कह सकता हूँ की मुंबई में लोग जितने सुरक्षित और एक हैं ओ दुसरे किसी शहर में नहीं हैं. लेकीन हमारा मीडिया शायद मुंबई का नाम बदलकर TRP ही रख दिया हैं. क्या मीडिया को मुंबई के अलावा दुसरा कोई शहर मिला ही नहीं. कहते हैं भारत गांवो का देश हैं लेकीन क्या हमारे मीडिया ने गांवो के तरफ भी कभी देखा हैं. कई मराठी भाषिक मेरे दोस्त थे साथ में UP और कर्नाटका और केरल से आये हुए बहुतसे लोग थे जो हम एक साथ रहकर हमारा दुःख दर्द बाँटते थे और कभी कभी खुशियाँ भी. उनके नाम अलग अलग थे रहन सहन अलग थे लेकिन दिवाली हो या ईद मुबारक बात देना कभी नहीं भूलते थे. और आज भी यही हालात हैं सिर्फ एक बात छोड़कर माय नेम इज.....
अब सोचने वाली बात यह हैं की बॉम्बे का नाम मुंबई हो गया लेकिन वहां कुछ भी नहीं बदला इस लिए मैं कहता हूँ की नाम पे जोर देंने जरुरत नहीं क्यूँ की नाम से ज्यादा काम को महत्व देना चाहेयें. जिस काम से हमें दो वक्त की रोटी मिलती हैं और उसके साथ साथ हमारा नाम भी सलामत रहता हैं. आप जब एक अजनबी शहर में जाते हैं तो आपका काम ही आपके नाम को सही सलामत रखता हैं. आप किस तरह काम कर रहे हैं, क्या कर रहे हैं कैसे कर रहें हैं इससे ही अपने नाम को एक दिशा मिलती हैं. मेरा यह कहना नहीं हैं की नाम का कुछ भी महत्त्व नहीं हैं. नाम तो केवल एक पहचान का चिन्ह हैं समाज की इस वयस्था को बरकरार रखने का एक तंत्र हैं. जो की हिसाब किताब रखने की एक व्यवस्था हैं.
एक दिन मैं मेरे मित्र को मिलने के लिए मैं एक होटल में गया था वहां के GUARD ने मुझे देखते ही सलाम किया मैं उसकी तरफ देखा तक नहीं फिर ओ बोल पड़ा " साहब मुझे पह्चान लिया क्या ? जब मैं उसका चेहरा देखा तो मालूम पड़ा की वह पहले हमारे ऑफिस में काम किया करता था लेकीन नाम याद नहीं आ रहाथा. मैने कहा भाई मुझे आपका काम और चेहरा तो मालूम हुआ लेकिन नाम याद नहीं हैं. फिर उसने कहा " सर माय नेम इज...."
जब भी हम बहुतसे लोगोंसे या पुराने मित्रोंसे मिलते हैं तो सबसे पहले हमें उसका काम और चेहरा याद आता हैं. बाद में उसका नाम लेकिन हम नाम के बारेमें ज्यादा सोचते नहीं हमें सिर्फ वह क्षण याद आते हैं जो उसके साथ बिताएं हैं. कभी किसी एक छोटेसे रेस्तरां में चाय या काफी के साथ मजे लिए थे यही सब कुछ. शायद ऐसे कई लोग होगे जहाँ पुणे के उस GERMAN BAKERY में अपनों के साथ कुछ पल बिताने के लिए आये थे जो अपने यादों के सफ़र से हमेशा के लिए जुदा हो गए और अपनो का साथ छोड़कर इस दुनियासे चले तो गएँ लेकिन कुछ पल छोड़ गए जो साथ में बिताएं हुये उस GERMAN BAKERY के साथ. ओ भी बिना बताएं माय नेम इज...
जीवन की लढाई लड़ते लड़ते जो मर गए मैं उन्हें शहीद कहकर प्रणाम करता हूँ और उनके परिजनोके दुःख में शामिल होता हूँ.
उन दिनों की बात हैं मैं मुंबई में रहा करता था और अभी भी मैं कभी कभी मुंबई जाया करता हूँ लेकिन मैं सौ प्रतिशत दावे के साथ कह सकता हूँ की मुंबई में लोग जितने सुरक्षित और एक हैं ओ दुसरे किसी शहर में नहीं हैं. लेकीन हमारा मीडिया शायद मुंबई का नाम बदलकर TRP ही रख दिया हैं. क्या मीडिया को मुंबई के अलावा दुसरा कोई शहर मिला ही नहीं. कहते हैं भारत गांवो का देश हैं लेकीन क्या हमारे मीडिया ने गांवो के तरफ भी कभी देखा हैं. कई मराठी भाषिक मेरे दोस्त थे साथ में UP और कर्नाटका और केरल से आये हुए बहुतसे लोग थे जो हम एक साथ रहकर हमारा दुःख दर्द बाँटते थे और कभी कभी खुशियाँ भी. उनके नाम अलग अलग थे रहन सहन अलग थे लेकिन दिवाली हो या ईद मुबारक बात देना कभी नहीं भूलते थे. और आज भी यही हालात हैं सिर्फ एक बात छोड़कर माय नेम इज.....
अब सोचने वाली बात यह हैं की बॉम्बे का नाम मुंबई हो गया लेकिन वहां कुछ भी नहीं बदला इस लिए मैं कहता हूँ की नाम पे जोर देंने जरुरत नहीं क्यूँ की नाम से ज्यादा काम को महत्व देना चाहेयें. जिस काम से हमें दो वक्त की रोटी मिलती हैं और उसके साथ साथ हमारा नाम भी सलामत रहता हैं. आप जब एक अजनबी शहर में जाते हैं तो आपका काम ही आपके नाम को सही सलामत रखता हैं. आप किस तरह काम कर रहे हैं, क्या कर रहे हैं कैसे कर रहें हैं इससे ही अपने नाम को एक दिशा मिलती हैं. मेरा यह कहना नहीं हैं की नाम का कुछ भी महत्त्व नहीं हैं. नाम तो केवल एक पहचान का चिन्ह हैं समाज की इस वयस्था को बरकरार रखने का एक तंत्र हैं. जो की हिसाब किताब रखने की एक व्यवस्था हैं.
एक दिन मैं मेरे मित्र को मिलने के लिए मैं एक होटल में गया था वहां के GUARD ने मुझे देखते ही सलाम किया मैं उसकी तरफ देखा तक नहीं फिर ओ बोल पड़ा " साहब मुझे पह्चान लिया क्या ? जब मैं उसका चेहरा देखा तो मालूम पड़ा की वह पहले हमारे ऑफिस में काम किया करता था लेकीन नाम याद नहीं आ रहाथा. मैने कहा भाई मुझे आपका काम और चेहरा तो मालूम हुआ लेकिन नाम याद नहीं हैं. फिर उसने कहा " सर माय नेम इज...."
जब भी हम बहुतसे लोगोंसे या पुराने मित्रोंसे मिलते हैं तो सबसे पहले हमें उसका काम और चेहरा याद आता हैं. बाद में उसका नाम लेकिन हम नाम के बारेमें ज्यादा सोचते नहीं हमें सिर्फ वह क्षण याद आते हैं जो उसके साथ बिताएं हैं. कभी किसी एक छोटेसे रेस्तरां में चाय या काफी के साथ मजे लिए थे यही सब कुछ. शायद ऐसे कई लोग होगे जहाँ पुणे के उस GERMAN BAKERY में अपनों के साथ कुछ पल बिताने के लिए आये थे जो अपने यादों के सफ़र से हमेशा के लिए जुदा हो गए और अपनो का साथ छोड़कर इस दुनियासे चले तो गएँ लेकिन कुछ पल छोड़ गए जो साथ में बिताएं हुये उस GERMAN BAKERY के साथ. ओ भी बिना बताएं माय नेम इज...
जीवन की लढाई लड़ते लड़ते जो मर गए मैं उन्हें शहीद कहकर प्रणाम करता हूँ और उनके परिजनोके दुःख में शामिल होता हूँ.
Tuesday, February 9, 2010
मदारी का खेल
एक गाँव में एक मदारी बन्दर का खेल दिखा रहा था. और वहां बहुत सारे लोग जमा होकर बन्दर का खेल देख कर मजा ले रहे थे. क्यूँ की गाँव उससे अच्छा मनोरंजन हो ही नहीं सकता था. लेकिन अब हमें हर जगह मदारी दिखाइ देते हैं. और उसे देखने केलिए हमें बहार जाने की जरुरत नहीं, क्यूँ की मदारी और बन्दर का शो हर घर में दिखाई देता हैं ओ भी टेलीविज़न के माध्यम से.
अब सोचने वाली बात यह हैं की हम सब जिंदगी में कभी ना कभी बन्दर बनते ही हैं और मदारी के इशारे पे नाचते हैं. जैसा की बड़े उद्योग समूह अपना माल बेचने के लिए बड़ेसे बड़े फ़िल्मी सितरोंको नचाते हैं. और बडेसे बड़े खिलाडियों को बन्दर बनाकर तमाशा दिखाते हैं.और ठीक इसी तरह नेता लोग लोगोंको को बंदर बनाकर नचाते हैं.
जैसा की कोई नेता जब चुनाव जीत जाता हैंतो लोग उमड़ पड़ते है और अपना नाच गाना सुरु करते हैं. ठीक इसी तरह हम कभी ना कभी बंदर का रोल अदा करते हैं.
जैसा की महासचिव का मुंबई का दौरा सभी को खूब नचाया था. सी एम से लेकर सभी मंत्रिगन और साथ में सभी पुलिसवाले भी. ठीक इसी तरह सेना ने भी आपने बंदरोंको नाचने के लिया खुला छोड़ा था लेकिन उनके बन्दर अब थक चुके थे क्यूँ की पिछले कई सालोंसे से नाचते और तमाशा दिखाकर थक गये थे. इस लिए उन्होंने नाचना बंद कर दिया था. मीडिया के मदारियोने आपने आपने बंदरोंको मैदान में उतारा था की कुछ सनसनीखेज खबर मिल सके और खूब तमाशा हो.
एक जमाना था क्रिकेट को हम बड़ी चाह से देखते थे क्यूँ की वह आपने देश के लिए खेलते थे. जब ओ देश के लिए खेलते थे तभी हम भी ख़ुशी से बन्दर बनकर नाचा करते थे क्यूँ की देश के सामने हम कुछ भी बन सकते हैं, यह बन्दर तो कुछ भी नहीं. लेकिन समय के साथ साथ कुछ परिवर्तन आया कुछ पैसो वालोने कुछ खिलाडीयोंको बन्दर बनाकर तमाशा दिखाना शुरू किया शायद उसे ही हम IPL कहते हैं. जहाँ हर खिलाडीके कीमत की बोली लगती हैं, और उन्हें मैदान में छोडा जाता हैं. और इस खेल को आप तक लाया जाता हैं. जिसे आप घर बैठे देख सकते हैं. शायद आपको मालूम होगा की अब जो मदारी बन बैठे हैं. ओ भी एक जमानेमें बन्दर का रोल मिभाया करते थे. शायद बन्दर भी मदारी के चाल को समझ चुके थे और उन्होंने सोचा की क्यूँ की हम बन्दर बनकर क्यूँ नाचे हम भी मदारी बन सकते हैं. जैसा की कुछ हीरो जो बन्दर बनकर निर्देशक के इशारेपे नाचा करते थे अब ओ खुद मदारी बन कर कुछ बंदरोंको खरीदकर खेल शुरू किया, लेकिन मदारी के मन में एक आस थी की शायद अच्छा खेल दिखाना हो तो कुछ पडोसी देश के बन्दर खरीद सके. लेकिन वहां एक बड़ा मदारी बैठा था उसके पास बहुत सी बंदरों की सेना थी. अब दोन्हो मदरियोंके बीच बहस हुई और इसी खेल को मीडिया ने टीवी के जरियें लोगों तक पहुंचा दिया और लोग भी बड़े चाव से इस खेल को देख रहे थे.
अब हमारे पास केवल दो ही विकल्प हैं या बन्दर बनकर नाचना या मदारी बनकर नचाना. लेकिन मदारी बनना उतना आसान नहीं हैं. क्यूँ की उसके लिए आपको पहले बन्दर बनकर नाच गाना दिखाकर पैसा जमा करना पड़ता हैं. उसके बाद ही मदारी बनकर नचाना पड़ता हैं. यहा सभी नियम केवल बन्दर के लिए हैं. मदारी के लिए कोई नियम हैं ही नहीं. मदारी जैसा कहता ठीक उसी ताल पर नाचना हैं. आज भारत में आम आदमी की हालत भी कुछ इसी तरह ही हैं. क्यूँ की बन्दर जब भी मदारीके इशारे पे नाचता हैं इसके बदले में उन्हें कुछ खाने को मिलता हैं. शायद इस वजह से ही बन्दर मदारिके इशारों पे नाचता हैं. शायद आम आदमी की जिंदगी भी इस बन्दर से कुछ अलग नहीं हैं. क्यूँ की इसे भी अपनी भूख मिटाने के लिए मदारी सरकार हर रोज नचाती हैं. कभी महंगाई के तार पर जहाँ बुनियादी जरूरतों को पूरा करने और जीनेके लिए बन्दर बनकर नाचनाही पड़ता हैं.
जब भी चुनाव आते हैं तभी थोड़े दिनोके लिए आम इन्सान मदारी बन जता हैं. और नेता बन्दर फिर एक बार ओ चुनाव जीत कर जाता हैंतो हम सब बन्दर और वो मदारी बन जाता हैं. और हमें कई सालों तक नचाता हैं. कभी काम के नामसे , कभी जात के नामसे कभी एकता के नाम से, और कभी कभी राम के नामसे. क्या यही हैं प्रजातंत्र ? आज हमें एक नयी सोच की जरुरत हैं जहाँ लोग अपने नेताओं के इशारोंपे नाचना छोड़कर खुद अपने ही मन की सच्चाई को मदारी बनाकर नाचना हैं. यही होगा हमारा प्रजातंत्र और यही होगा सच्चे मदारी का खेल.
अब सोचने वाली बात यह हैं की हम सब जिंदगी में कभी ना कभी बन्दर बनते ही हैं और मदारी के इशारे पे नाचते हैं. जैसा की बड़े उद्योग समूह अपना माल बेचने के लिए बड़ेसे बड़े फ़िल्मी सितरोंको नचाते हैं. और बडेसे बड़े खिलाडियों को बन्दर बनाकर तमाशा दिखाते हैं.और ठीक इसी तरह नेता लोग लोगोंको को बंदर बनाकर नचाते हैं.
जैसा की कोई नेता जब चुनाव जीत जाता हैंतो लोग उमड़ पड़ते है और अपना नाच गाना सुरु करते हैं. ठीक इसी तरह हम कभी ना कभी बंदर का रोल अदा करते हैं.
जैसा की महासचिव का मुंबई का दौरा सभी को खूब नचाया था. सी एम से लेकर सभी मंत्रिगन और साथ में सभी पुलिसवाले भी. ठीक इसी तरह सेना ने भी आपने बंदरोंको नाचने के लिया खुला छोड़ा था लेकिन उनके बन्दर अब थक चुके थे क्यूँ की पिछले कई सालोंसे से नाचते और तमाशा दिखाकर थक गये थे. इस लिए उन्होंने नाचना बंद कर दिया था. मीडिया के मदारियोने आपने आपने बंदरोंको मैदान में उतारा था की कुछ सनसनीखेज खबर मिल सके और खूब तमाशा हो.
एक जमाना था क्रिकेट को हम बड़ी चाह से देखते थे क्यूँ की वह आपने देश के लिए खेलते थे. जब ओ देश के लिए खेलते थे तभी हम भी ख़ुशी से बन्दर बनकर नाचा करते थे क्यूँ की देश के सामने हम कुछ भी बन सकते हैं, यह बन्दर तो कुछ भी नहीं. लेकिन समय के साथ साथ कुछ परिवर्तन आया कुछ पैसो वालोने कुछ खिलाडीयोंको बन्दर बनाकर तमाशा दिखाना शुरू किया शायद उसे ही हम IPL कहते हैं. जहाँ हर खिलाडीके कीमत की बोली लगती हैं, और उन्हें मैदान में छोडा जाता हैं. और इस खेल को आप तक लाया जाता हैं. जिसे आप घर बैठे देख सकते हैं. शायद आपको मालूम होगा की अब जो मदारी बन बैठे हैं. ओ भी एक जमानेमें बन्दर का रोल मिभाया करते थे. शायद बन्दर भी मदारी के चाल को समझ चुके थे और उन्होंने सोचा की क्यूँ की हम बन्दर बनकर क्यूँ नाचे हम भी मदारी बन सकते हैं. जैसा की कुछ हीरो जो बन्दर बनकर निर्देशक के इशारेपे नाचा करते थे अब ओ खुद मदारी बन कर कुछ बंदरोंको खरीदकर खेल शुरू किया, लेकिन मदारी के मन में एक आस थी की शायद अच्छा खेल दिखाना हो तो कुछ पडोसी देश के बन्दर खरीद सके. लेकिन वहां एक बड़ा मदारी बैठा था उसके पास बहुत सी बंदरों की सेना थी. अब दोन्हो मदरियोंके बीच बहस हुई और इसी खेल को मीडिया ने टीवी के जरियें लोगों तक पहुंचा दिया और लोग भी बड़े चाव से इस खेल को देख रहे थे.
अब हमारे पास केवल दो ही विकल्प हैं या बन्दर बनकर नाचना या मदारी बनकर नचाना. लेकिन मदारी बनना उतना आसान नहीं हैं. क्यूँ की उसके लिए आपको पहले बन्दर बनकर नाच गाना दिखाकर पैसा जमा करना पड़ता हैं. उसके बाद ही मदारी बनकर नचाना पड़ता हैं. यहा सभी नियम केवल बन्दर के लिए हैं. मदारी के लिए कोई नियम हैं ही नहीं. मदारी जैसा कहता ठीक उसी ताल पर नाचना हैं. आज भारत में आम आदमी की हालत भी कुछ इसी तरह ही हैं. क्यूँ की बन्दर जब भी मदारीके इशारे पे नाचता हैं इसके बदले में उन्हें कुछ खाने को मिलता हैं. शायद इस वजह से ही बन्दर मदारिके इशारों पे नाचता हैं. शायद आम आदमी की जिंदगी भी इस बन्दर से कुछ अलग नहीं हैं. क्यूँ की इसे भी अपनी भूख मिटाने के लिए मदारी सरकार हर रोज नचाती हैं. कभी महंगाई के तार पर जहाँ बुनियादी जरूरतों को पूरा करने और जीनेके लिए बन्दर बनकर नाचनाही पड़ता हैं.
जब भी चुनाव आते हैं तभी थोड़े दिनोके लिए आम इन्सान मदारी बन जता हैं. और नेता बन्दर फिर एक बार ओ चुनाव जीत कर जाता हैंतो हम सब बन्दर और वो मदारी बन जाता हैं. और हमें कई सालों तक नचाता हैं. कभी काम के नामसे , कभी जात के नामसे कभी एकता के नाम से, और कभी कभी राम के नामसे. क्या यही हैं प्रजातंत्र ? आज हमें एक नयी सोच की जरुरत हैं जहाँ लोग अपने नेताओं के इशारोंपे नाचना छोड़कर खुद अपने ही मन की सच्चाई को मदारी बनाकर नाचना हैं. यही होगा हमारा प्रजातंत्र और यही होगा सच्चे मदारी का खेल.
Monday, February 1, 2010
रात और दिन
एक बार दिन बोला,
रात तू कितनी काली हैं
चाँद के साथ रहती,
जैसा की चाँद की साली हैं
चाँद भी कभी आंख तो कभी
हल्किसी रौशनी मारता हैं
कभी पूरी आंख खोलता हैं
तो कभी बंद करता हैं
रात बोली तेरे पास हैं
उजाला ही उजाला
जलता हुआ सूरज
लगता हैं तेराही साला
लेकिन तेरे पास हैं
सिर्फ काम ही काम
मेरे पास हैं चैन की
नींद और आराम
दिन बोला तेरे पास आंख
वाला भी होता हैं अंधा,
तेरे साये तले टिकी हैं चोरी,
और चलता हैं काला धंदा
रात बोली मेरे पास हैं
चाँद और चमकते सितारें
घर घर और गली में
चमकते हैं दीपक सारे
मेरे पास जीने की
और पीने की प्यास हैं
मौज मस्ती और
मिलन का अहसास हैं
समय सुन रहा था
यह बहस दूर खडा होकर
बोल उठा दिन और
रात के पास आकर
तुम दोनोंही एक काम करना
दोनों ही साथ साथ आना
ना रात के बाद दिन, बल्की
हाथोमें में हाथ लिए आना
दिन और रात को आयीं
समझ समय की यह बात
की दिन और रात कभी
नही आएंगे साथ साथ
एक के बाद एक आना
यही है तुम्हारा काम
दिन के बाद रात हो
यही हैं जीवन तेरा नाम
रात तू कितनी काली हैं
चाँद के साथ रहती,
जैसा की चाँद की साली हैं
चाँद भी कभी आंख तो कभी
हल्किसी रौशनी मारता हैं
कभी पूरी आंख खोलता हैं
तो कभी बंद करता हैं
रात बोली तेरे पास हैं
उजाला ही उजाला
जलता हुआ सूरज
लगता हैं तेराही साला
लेकिन तेरे पास हैं
सिर्फ काम ही काम
मेरे पास हैं चैन की
नींद और आराम
दिन बोला तेरे पास आंख
वाला भी होता हैं अंधा,
तेरे साये तले टिकी हैं चोरी,
और चलता हैं काला धंदा
रात बोली मेरे पास हैं
चाँद और चमकते सितारें
घर घर और गली में
चमकते हैं दीपक सारे
मेरे पास जीने की
और पीने की प्यास हैं
मौज मस्ती और
मिलन का अहसास हैं
समय सुन रहा था
यह बहस दूर खडा होकर
बोल उठा दिन और
रात के पास आकर
तुम दोनोंही एक काम करना
दोनों ही साथ साथ आना
ना रात के बाद दिन, बल्की
हाथोमें में हाथ लिए आना
दिन और रात को आयीं
समझ समय की यह बात
की दिन और रात कभी
नही आएंगे साथ साथ
एक के बाद एक आना
यही है तुम्हारा काम
दिन के बाद रात हो
यही हैं जीवन तेरा नाम
Friday, January 22, 2010
सत्य और सच-२
अब सोचने की बात यह हैं की हम जन्मदिन मनाते हैं क्यूँ की हम एक साल बड़े हो गए इस लिए, हाँ यही सच हैं. लेकीन सत्य नहीं. सत्य इससे बिलकुल विपरीत हैं. हमारे जीवन में का एक अमूल्य वर्ष व्यर्थ में चला गया, या हम इस वर्ष में बहुत कुछ हासिल किया हैं, क्या इस लिए ही हम उत्सव मना रहे हैं ? सत्य तो यह हैं की हम मृत्यु एक साल और करीब आ गए हैं. अगर हम यही बात उस महाशय के सामने रखते क्या होगा ? ऐसे शुभ अवसर पर ऐसी बात! बल्कि बाकि लोग भी यही सोचेंगे की ऐसे शुभ अवसर पर कैसी बातें कर रहा हैं. क्यूँ की सत्य दिखाई नहीं पड़ता जैसा की म्रत्यु,शायद इस लिए ही हमें म्रत्यु की तारीख मालूम नहीं पड़ती.
जन्म के लिए एक तारीख होती हैं जिस तारीख को इंसान ने आपने सहूलियत के लिए बनया हैं. जिसमे कुछ अंक दिन और महिनोंके नाम जोड़कर, जिसे हम कैलेंडर कहते हैं. अब एहां कैलेंडर सच हैं .लेकिन सत्य नहीं. क्यूँ की कैलेंडर में भी बहुतसे कैलेंडर हैं. आप अगर हिन्दू कैलंडर देखते हैं तो उसका नंबर इसाई कैलंडर से अलग ही होगा. और दोनों तिथियोंका मिलन कदापि नहीं होंगा. अब सवाल यह हैं की कौनसी तिथि निश्चित करके जन्मदिन मनाएं. यह सब तो मानवी खेल हैं. सत्य तो यह हैं की सूरज और पृथ्वी के बिच जो क्रम बना हैं वही सत्य हैं. लेकिन हमें वह दिखाई नहीं पड़ता, जिसे हम देखते हैं की सूरज पूरब से उगता हैं और पश्चिम से डूबता हैं, यही देखे हैं, देख रहे हैं और आगे भी देखते रहेंगे. इस लिए सत्य दिखाई नहीं देता.
जिस हवा को हम नहीं देख सकते लेकिन उसे हम महसूस जरूर कर सकते येही सत्य हैं. सच को हम देख सकते हैं. सच के पास सबूत होते हैं. लेकिन सत्य के पास सबूत नहीं हैं. जहाँ सबुत हैं वह लौकिक हैं. सत्य अध्यात्मिक हैं. जहाँ जन्म हैं वही मृत्यु हैं, अब हमें यह सोचने की जरुरत हैं की जन्मदिन मना रहे है या मृत्युदिन, जब से हमारा जन्म हुआ हैं उसी क्षणसे हम मृत्यु के और बढ़ रहे हैं, इसका मतलब यह हैं हम हर क्षण मर रहे हैं. जब हम जन्मदिन मनाते हैं तब हम मृत्यु के बारे में ही सोचते हैं जो मृत्यु का डर हैं उसे छुपाने की एक नाकाम कोशिस करते हैं. अगर हम मृत्यु से डरते नहीं तो जन्मदिन मनाने के आवश्कता ही नहीं. क्यूँ की कुछ क्षण हम ख़ुशी हासिल करना चाहते हैं. शायद इसी ख़ुशी से मृत्यु का डर कम कर सके. ऐसी बहुतसे बातें हैं जैसा की हम पाणी को देख सकते हैं लेकीन तृषा नहीं देख सकते लेकिन हम उसे महसूस कर सकते हैं.
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भगवान बुद्ध जब पहली बार राज भवन से बहार निकले थे उसी दिन मृत्यु को समझ गए थे और उसी दिनसे उन्होंने राज दरबार त्याग दिया.क्यूँ की ओ सत्य को जान चुके थे. जीसस को जब क्रूस पर बांध कर, हाथ और पैरोंमें किले ठोक कर गोल्गुत्था के पहाड़ पर ले जा रहे थे तभी भी ओ लोगोंको उपदेश ही दे रहेथे क्यूँ की ओ मृत्यु के डर से कोसों दूर थे. बल्कि वहां देखने वाले लोगही ज्यादा डरे हुए थे. समझो किसी एक इंसान को मालूम हैं की वह मर ही नहीं सकता तो जन्म दिन मनायेगा ही नहीं. अगर मनाता भी हैं तो उतना उत्साह नहीं होगा, क्यूँ की मृत्यु को चुनौती देने का आभास नहीं करेगा. यह सब मायावी हैं या उसे हम मानवी भी कह सकते हैं. जन्मदिन हमने बनाए हुए नियम है, जो की हम सुख की तलाश में रहते हैं. क्यूँ की डर से दूर भाग सके. डर का कारण ही मृत्यु हैं, मृत्यु ही जीवन का अंतिम सत्य हैं.
रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय ।
हीरा जन्म अमोल था, कोड़ी बदले जाय ॥
ठीक इसी तरह जीवन के अनमोल साल बिता देते हैं और हर साल उल्हास के साथ जन्म दिन मनाते हैं. और झूट मुठ ही बधाई देते हैं. तुम जियो हाजोरों साल.. बोल तो सच हैं, लेकिन सत्य नहीं. लेकिन सुनते समय हमें लगता हैं की हम मृत्यु बहुत ही दूर हैं.
जब हमारे ग्रंथो में गार्गेयी का वर्णन आता हैं की ओ वस्त्रहीन रहती थी. शर्म से लोग उसके तरफ देखते ही नहीं थे. क्यूँ की देखने वाले की नज़र में खोट थी पाप था, अभी भी होता हैं कामवासना लिप्त आदमी जब भी स्त्री को देखता हैं तो वस्त्र होने के बाद भी उसे वस्त्रहीन महसूस करता हैं. अगर ऐसा नहीं होता तो बुर्खें या पर्दों की जरुरत ही नहीं होती. एहां वस्त्र सच हैं और शारीर सत्य हैं क्यूँ की यहाँ वस्त्र बदल सकते हैं शारीर तो वही जो सत्य का प्रतिक हैं. यही फर्क हैं सत्य और सच में.
Thursday, January 14, 2010
रण...TRUTH IS TERRIBLE
२६/११ का ओ काला दिन शायद ही कोई भारतीय भूल सकता हैं. उसके साथ साथ जो नेता लोग ओ भी शायद कभी भूल नहीं पाएंगे, खास कर शिवराज पाटिल चाकुरकर, आर आर पाटिल और विलासराव देशमुख. शायद इस लिए नही जो मुंबई में कई लोग शहीद हुये, बल्कि इस लिए की इस घटना के बाद उनकी खुर्सीयां छिनी गयी थी. और इस घटना क्रम में 'मीडिया' की बहुत ही अहम भूमिका थी. इसके साथ एक और नाम जोड़ा गया ओ एक नेता तो नहीं थे, लेकिन एक फिल्म निर्देशक थे जिनका नाम हैं राम गोपाल वर्मा. क्यूँ की उन्होंने एक गलती की थी की हमले के बाद विलासराव देशमुख के साथ ताज होटल का मुआयना करने निकल पड़े थे. और इस बात से "मीडिया"ने पूरा हंगामा खडा किया था. इसका मुख्य कारण तो यह था की सरकार "मीडिया" को उस जगह आने और फोटोग्राफी की इजाजात नहीं दी थी. मीडिया इस वाकये से खासा नाराज था, और उसके शिकार होगये राम गोपाल वर्मा और देशमुख साहब.
अब बारी रामगोपाल वर्मा की थी शायद इस लिए उन्होंने "रण" फिल्म निकाली जिसके अन्दर जो "मीडिया" की अन्दर की बात लोगो के सामने रखने का प्रयास किया हैं. उसमे हमारे बिग बी के साथ साथ विलास राव के सुपुत्र रितेश देशमुख भी नज़र आयेंगे. पिक्चर में "इंडिया २४/७" नाम का न्यूज़ चैनल चलाते हैं, और उसके साथ हमारे नेतागण कैसा मीडिया का उपयोग अपने स्वार्थ लिए कर लेते हैं. यह सब कुछ दिखाया हैं. इन्तजार करो फिल्म रिलीज़ होने का इसके बाद ही हम सही अंदाजा लगा सकते हैं की राम गोपाल वर्मा की फिल्म "रण" क्या गुल खिलाती हैं. लेकिन एक बात तो जरुर तय हैं की यह फिल्म "मीडिया" में सेंध जरुर लगाएगी. पहले
नेताओं पर फ़िल्में बनती थी जो उनका काला चिट्टा उजागर करती थी. क्या अब मीडिया भी उसी श्रेणी में आ गया हैं ?
अब हमें यह सोचने की जरुरत हैं क्या हमारा मीडिया सत्ताधारी लोगों के इशारे पे तो नहीं चल रहा हैं? अगर हम मान लेते जी हाँ हामारा "मीडिया" सही रस्ते पे चल रहा हैं तो हर मीडिया वाले सत्ताधारी पक्ष के साथ हैं ऐसा क्यूँ मालूम पड़ता हैं? क्यूँ की बिहार में नितीश कुमार ने जो प्रगति का रास्ता चुना हैं उसके बारे में बहुत ही कम बोलता हैं. हमारे "मीडिया" के पास आलोचना के अलावा दुसरा मुद्दा दिखाई नहीं पड़ता. आलोचना करना गलत नहीं हैं, लेकिन जो अच्छा काम करता हैं उसकी प्रशश्ति करना भी जरुरी हैं.
मैंने चिरफाड़ में हमारे विनोद साहब का एक ब्लॉग पढ़ा था उसमे नागपुर से निकलनेवाले समाचार पत्र पर हमला हुआ था तो "मीडिया" किधर गया था. जब वही हामला IBN लोकमत के दप्तर पे हुआ था तो पूरा "मीडिया" गरज उठा था. इसका एक ही कराण था की वह एक छोटासा अखबार, ओ कोई चैनल नहीं था. इससे "मीडिया" की भूमिका पर संदेह होता हैं. और ओभी शिव सेना ने हमला किया था तो खबर और मसालेदार होगी ही और इसके साथ साथ TRP भी बढ़ेगी.
अब हमारा अहम सवाल यह हैं की, क्या हमारा "मीडिया" निष्पक्ष हैं? क्या हम "मीडिया" पे भरोसा कर सकते हैं ? क्या ओ लोकशाही का आधार बन सकता हैं? क्या हमारे न्यूज़ चैनल भी किसी पक्ष के तले दबे हुए हैं. जैसा की सामना शिवसेनाका, लोकमत कांग्रेसका क्या इसी तरह हमारे न्यूज़ चैनल भी किसी एक पक्ष के साथ तो नही हैं? क्या "मीडिया" भी सरकार या नेताओं से हप्ता तो नहीं लेता? अगर ऐसाही चलता रहा तो ओ दिन दूर नहीं की की लोगों का "मीडिया" से भरोसा उठ जायेगा. सुनो! सुनो! मीडिया की वजह से लोग नहीं बल्कि लोगोंकी वजह से "मीडिया" हैं.
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