Thursday, January 14, 2010

रण...TRUTH IS TERRIBLE



                                                २६/११ का ओ काला दिन शायद ही कोई भारतीय भूल सकता हैं. उसके साथ साथ जो नेता लोग ओ भी शायद कभी  भूल नहीं पाएंगे, खास कर शिवराज पाटिल चाकुरकर, आर आर पाटिल और विलासराव देशमुख. शायद इस लिए नही जो मुंबई में कई लोग शहीद हुये, बल्कि इस लिए  की इस घटना के बाद  उनकी खुर्सीयां  छिनी गयी थी. और इस घटना क्रम में 'मीडिया' की  बहुत ही अहम भूमिका थी. इसके साथ एक और नाम जोड़ा गया ओ एक नेता तो नहीं थे, लेकिन एक फिल्म निर्देशक थे जिनका नाम हैं राम गोपाल वर्मा.  क्यूँ की उन्होंने एक गलती की थी की हमले के बाद विलासराव देशमुख के साथ ताज होटल का मुआयना करने निकल पड़े थे. और इस  बात  से  "मीडिया"ने  पूरा  हंगामा   खडा  किया था.  इसका मुख्य कारण तो यह था की सरकार "मीडिया" को उस जगह आने और फोटोग्राफी की इजाजात  नहीं  दी  थी.  मीडिया इस वाकये से खासा नाराज था, और उसके शिकार होगये राम गोपाल वर्मा और देशमुख साहब.


              अब बारी रामगोपाल वर्मा की थी शायद इस लिए उन्होंने "रण" फिल्म निकाली जिसके  अन्दर  जो  "मीडिया" की अन्दर की बात लोगो के सामने रखने का प्रयास किया हैं.  उसमे हमारे बिग बी के साथ साथ विलास राव के सुपुत्र  रितेश  देशमुख भी नज़र आयेंगे. पिक्चर में "इंडिया २४/७" नाम का न्यूज़ चैनल चलाते हैं, और उसके साथ हमारे  नेतागण कैसा मीडिया का उपयोग अपने स्वार्थ  लिए कर लेते हैं. यह सब कुछ दिखाया हैं. इन्तजार  करो  फिल्म  रिलीज़  होने का  इसके  बाद ही हम सही अंदाजा लगा सकते हैं की राम गोपाल वर्मा की फिल्म "रण"  क्या गुल खिलाती हैं.  लेकिन एक बात तो जरुर तय  हैं की यह फिल्म "मीडिया" में सेंध जरुर लगाएगी. पहले
 नेताओं पर फ़िल्में बनती थी जो उनका काला चिट्टा उजागर करती थी. क्या अब मीडिया भी उसी श्रेणी में आ गया हैं ?


           अब हमें यह सोचने की जरुरत हैं क्या हमारा मीडिया सत्ताधारी लोगों के इशारे पे तो नहीं चल रहा हैं? अगर हम मान लेते जी हाँ हामारा "मीडिया" सही रस्ते पे चल रहा हैं तो हर मीडिया वाले सत्ताधारी पक्ष के साथ हैं ऐसा क्यूँ मालूम पड़ता हैं? क्यूँ की बिहार में नितीश कुमार ने जो प्रगति का रास्ता चुना हैं उसके बारे में बहुत  ही कम बोलता हैं. हमारे  "मीडिया" के पास आलोचना के अलावा  दुसरा मुद्दा दिखाई  नहीं पड़ता. आलोचना करना गलत नहीं हैं,  लेकिन जो अच्छा काम करता हैं उसकी प्रशश्ति करना भी जरुरी हैं.


                     मैंने चिरफाड़ में हमारे विनोद साहब का एक ब्लॉग पढ़ा था उसमे नागपुर से निकलनेवाले समाचार पत्र पर हमला हुआ था तो "मीडिया" किधर गया था. जब वही हामला IBN लोकमत के दप्तर पे हुआ था तो पूरा "मीडिया" गरज उठा था. इसका एक ही कराण था की वह एक छोटासा अखबार, ओ कोई चैनल नहीं था. इससे  "मीडिया"  की भूमिका पर संदेह होता हैं.  और ओभी शिव सेना ने हमला किया था तो खबर और मसालेदार होगी ही और इसके साथ साथ TRP भी बढ़ेगी.


               अब हमारा अहम सवाल यह हैं की, क्या हमारा "मीडिया" निष्पक्ष हैं?  क्या हम "मीडिया" पे भरोसा कर सकते हैं ?  क्या ओ लोकशाही का आधार बन सकता हैं?  क्या हमारे न्यूज़ चैनल भी किसी पक्ष के तले दबे हुए हैं. जैसा  की सामना शिवसेनाका,  लोकमत कांग्रेसका क्या इसी तरह हमारे न्यूज़ चैनल भी किसी एक पक्ष के साथ तो नही हैं?  क्या "मीडिया" भी सरकार या नेताओं से हप्ता तो नहीं लेता? अगर ऐसाही  चलता रहा तो ओ दिन दूर नहीं की की लोगों का "मीडिया" से भरोसा उठ जायेगा.   सुनो! सुनो! मीडिया की वजह से लोग नहीं बल्कि लोगोंकी वजह से  "मीडिया" हैं.