जिसे सोना था ओ बैठे हुए हैं, जिसे बैठना था ओ खड़े हैं, जिसे खड़े रहना था ओ चल रहे हैं, जिसे चलना था ओ दौड़ रहे हैं और जिसे दौड़ना था उससे भी तेज सवारी पकड़ते हैं। यही हैं मुंबई इसे हम मायानगरी भी कहते हैं। अगर हम पुरे हिन्दुस्तान का मुआयना किया तो यह बात सामने आती हैं की हिंदुस्तान सिर्फ दो तरह के ल़ोग रहते हैं एक मुंबई में रहने वाले और दुसरे किसी और शहरमे। कहते हैं एहां ल़ोग मशीन की तरह काम करते हैं। कुछ लोगोने ने तो इसे यांत्रिक जीवन बताया हैं।
इस यांत्रिक जीवन को सरल बनाने के लिए वहां लोकल गाड़ियाँ हैं उसे हम मुंबई की रक्तवाहिकाएँ कहते हैं। मुंबई का जलवा देखकर यह मालूम पड़ता हैं की उसमे यात्रा करने वाले लोग यानी रक्त कोशिकाएं जो इस पुरे शहर को ऑक्सिजन सप्लाय करती हैं। सोचने वाली बात यह हैं की आखिर मुंबई का ऑक्सीजन हैं क्या? मुंबई का ऑक्सिजन यानि पैसा, यह पैसा ही मुंबई को आबाद किया हैं और यह पैसा आता हैं हर एक इंसान के खून पसिनेकी कमाई से। एहां काम करने वाला हर इंसान मशीन की तरह काम करता हैं। अपने जीवन शैली साथ साथ उस शहर की तरक्की का हिस्स्सा बन जाता हैं ।
एहां लोगों का एकही मकसद होता हैं काम और उसी काम के लिए सुबह की लोकल पकड़ना बहुत ही जरुरी बन जाता हैं। लोकल छुट गई तो बस, इस लिए यहाँ ९० प्रतिशत ल़ोग अपने लोकल का समय निश्चित करके ही चलते हैं। जीवन का समय निश्चित हो ना हो लेकिन लोकल का समय निश्चित होनाही हैं। एहां बहुतसे ल़ोग ऐसे हैं की अपनी लोकल समय पे पकड़ने के लिए रेल लाइन क्रास करते हैं और इसमें बहुतसे ल़ोग आपनी रक्त वाहिनियाँ को रेल के हवाले छोड़ देकर जान गवां बैठते हैं। जब ओ रेल के निचे कटते हैं तो खून उसी तरह बहता हैं जैसा की स्टेशन में रुकी हुई ट्रेन में से लोग बहार आते हैं। मुंबई में लोगों का जीने का और काम करने का तरिका बिलकुल ही अलग हैं। कहते हैं जो आदमी मुंबई में टिका तो ओ दुनिया को बिका। ल़ोग सभी शहरोंमें रहते हैं लेकिन हर शहर का एक स्टाइल हैं, दुसरे बड़े शहरों में काम तो होता हैं लेकीन मुंबई के हिसाब से कम ही होता हैं।
कई लोगोने सवाल उठाए हैं की मुंबई किसकी ? उनके लिए मेरा उत्तर एक ही हैं। मुंबई उन लोगोंकी है जो उस लोकल की भीड़से गुजरकर रोजीरोटी कमाते हैं। मुंबई तो उन लोगोंकी हैं जो लोग कामपर नहीं बल्कि युद्ध पर जा रहे हैं। मुंबई तो आम लोगोंकी हैं जो लोग रक्त कोशिकाएं बनकर पुरे मुंबई को ऑक्सिजन सप्लाय करते हैं। और एही हैं मुंबई का ऑक्सिजन जो मुंबई को ज़िंदा रखा हैं।
एहां लोगों का एकही मकसद होता हैं काम और उसी काम के लिए सुबह की लोकल पकड़ना बहुत ही जरुरी बन जाता हैं। लोकल छुट गई तो बस, इस लिए यहाँ ९० प्रतिशत ल़ोग अपने लोकल का समय निश्चित करके ही चलते हैं। जीवन का समय निश्चित हो ना हो लेकिन लोकल का समय निश्चित होनाही हैं। एहां बहुतसे ल़ोग ऐसे हैं की अपनी लोकल समय पे पकड़ने के लिए रेल लाइन क्रास करते हैं और इसमें बहुतसे ल़ोग आपनी रक्त वाहिनियाँ को रेल के हवाले छोड़ देकर जान गवां बैठते हैं। जब ओ रेल के निचे कटते हैं तो खून उसी तरह बहता हैं जैसा की स्टेशन में रुकी हुई ट्रेन में से लोग बहार आते हैं। मुंबई में लोगों का जीने का और काम करने का तरिका बिलकुल ही अलग हैं। कहते हैं जो आदमी मुंबई में टिका तो ओ दुनिया को बिका। ल़ोग सभी शहरोंमें रहते हैं लेकिन हर शहर का एक स्टाइल हैं, दुसरे बड़े शहरों में काम तो होता हैं लेकीन मुंबई के हिसाब से कम ही होता हैं।
कई लोगोने सवाल उठाए हैं की मुंबई किसकी ? उनके लिए मेरा उत्तर एक ही हैं। मुंबई उन लोगोंकी है जो उस लोकल की भीड़से गुजरकर रोजीरोटी कमाते हैं। मुंबई तो उन लोगोंकी हैं जो लोग कामपर नहीं बल्कि युद्ध पर जा रहे हैं। मुंबई तो आम लोगोंकी हैं जो लोग रक्त कोशिकाएं बनकर पुरे मुंबई को ऑक्सिजन सप्लाय करते हैं। और एही हैं मुंबई का ऑक्सिजन जो मुंबई को ज़िंदा रखा हैं।