दुनिया में सिर्फ दो तरह के लोग होते हैं अच्छे और बुरे विचारधारा के , बहुत ही नेक सोच हैं इसपे कोई दो राय नहीं. पिछले दस दिनोसे मैं येही देख रहा हूँ टीवि पर, नेट पर सभी जगह यही खबर थी इसके अलावा कुछ देखही नहीं पाते थे. उनका नाम से क्या वास्ता कुछ भी तो नहीं वैसा तो शेक्सपियर ने कहा था की नाम में क्या रखा हैं. लेकिन हमारी राजनातिक पार्टियाँ पूरी तरह नाम पे ही निर्भर हैं नाकि काम पे. शिवसेना ने सरकार को झुकाने ने के लिए मैदान में उतरी थी यह कहकर की माय नेम इज ..... और दूसरी तरफ कांग्रेस के सी एम माय नेम इज ...... दोनों भी अपनी अपनी जिद पर इतने अड़ गए थे की किसका नाम आगे लायें इस महाभारत में सारी सरकार माय नेम के पीछे खड़ी थी ओ भी पूरी पुलिस फौज के साथ और इसके साथ ओ यह भूल गयी थी की शांति का संदेश देनेवाली माय नेम इज... के बावजूद भी आतंकवादी हमला हो सकता हैं. इसी बात का फायदा उठाकर आतंकीयों ने पुणे ब्लास्ट को अंजाम दिया था. कौन हैं इसके लिए जिम्मेदार? जहाँ कुछ निरपराध लोग मारे गएँ और कई लोग घायल हुए. और उन घायलों को अस्पताल भर्ति किया गया सिर्फ इंसान के नाम पर या माय नेम इज .....तो ही मुझे भर्ती करों, क्या कोई घायल ऐसा तो नहीं कह रहा था. मैं सभी मीडिया कर्मी और राजनितिक दलोंसे गुजारिश करना चाहता हूँ की आप मुंबई , मराठा मानुस और माय नेम इज ... को बक्श दो और देश की तरफ ध्यान दो और सोचो की आतंकवादी हादसों से किस तरह निपट सके.
उन दिनों की बात हैं मैं मुंबई में रहा करता था और अभी भी मैं कभी कभी मुंबई जाया करता हूँ लेकिन मैं सौ प्रतिशत दावे के साथ कह सकता हूँ की मुंबई में लोग जितने सुरक्षित और एक हैं ओ दुसरे किसी शहर में नहीं हैं. लेकीन हमारा मीडिया शायद मुंबई का नाम बदलकर TRP ही रख दिया हैं. क्या मीडिया को मुंबई के अलावा दुसरा कोई शहर मिला ही नहीं. कहते हैं भारत गांवो का देश हैं लेकीन क्या हमारे मीडिया ने गांवो के तरफ भी कभी देखा हैं. कई मराठी भाषिक मेरे दोस्त थे साथ में UP और कर्नाटका और केरल से आये हुए बहुतसे लोग थे जो हम एक साथ रहकर हमारा दुःख दर्द बाँटते थे और कभी कभी खुशियाँ भी. उनके नाम अलग अलग थे रहन सहन अलग थे लेकिन दिवाली हो या ईद मुबारक बात देना कभी नहीं भूलते थे. और आज भी यही हालात हैं सिर्फ एक बात छोड़कर माय नेम इज.....
अब सोचने वाली बात यह हैं की बॉम्बे का नाम मुंबई हो गया लेकिन वहां कुछ भी नहीं बदला इस लिए मैं कहता हूँ की नाम पे जोर देंने जरुरत नहीं क्यूँ की नाम से ज्यादा काम को महत्व देना चाहेयें. जिस काम से हमें दो वक्त की रोटी मिलती हैं और उसके साथ साथ हमारा नाम भी सलामत रहता हैं. आप जब एक अजनबी शहर में जाते हैं तो आपका काम ही आपके नाम को सही सलामत रखता हैं. आप किस तरह काम कर रहे हैं, क्या कर रहे हैं कैसे कर रहें हैं इससे ही अपने नाम को एक दिशा मिलती हैं. मेरा यह कहना नहीं हैं की नाम का कुछ भी महत्त्व नहीं हैं. नाम तो केवल एक पहचान का चिन्ह हैं समाज की इस वयस्था को बरकरार रखने का एक तंत्र हैं. जो की हिसाब किताब रखने की एक व्यवस्था हैं.
एक दिन मैं मेरे मित्र को मिलने के लिए मैं एक होटल में गया था वहां के GUARD ने मुझे देखते ही सलाम किया मैं उसकी तरफ देखा तक नहीं फिर ओ बोल पड़ा " साहब मुझे पह्चान लिया क्या ? जब मैं उसका चेहरा देखा तो मालूम पड़ा की वह पहले हमारे ऑफिस में काम किया करता था लेकीन नाम याद नहीं आ रहाथा. मैने कहा भाई मुझे आपका काम और चेहरा तो मालूम हुआ लेकिन नाम याद नहीं हैं. फिर उसने कहा " सर माय नेम इज...."
जब भी हम बहुतसे लोगोंसे या पुराने मित्रोंसे मिलते हैं तो सबसे पहले हमें उसका काम और चेहरा याद आता हैं. बाद में उसका नाम लेकिन हम नाम के बारेमें ज्यादा सोचते नहीं हमें सिर्फ वह क्षण याद आते हैं जो उसके साथ बिताएं हैं. कभी किसी एक छोटेसे रेस्तरां में चाय या काफी के साथ मजे लिए थे यही सब कुछ. शायद ऐसे कई लोग होगे जहाँ पुणे के उस GERMAN BAKERY में अपनों के साथ कुछ पल बिताने के लिए आये थे जो अपने यादों के सफ़र से हमेशा के लिए जुदा हो गए और अपनो का साथ छोड़कर इस दुनियासे चले तो गएँ लेकिन कुछ पल छोड़ गए जो साथ में बिताएं हुये उस GERMAN BAKERY के साथ. ओ भी बिना बताएं माय नेम इज...
जीवन की लढाई लड़ते लड़ते जो मर गए मैं उन्हें शहीद कहकर प्रणाम करता हूँ और उनके परिजनोके दुःख में शामिल होता हूँ.