Sunday, February 14, 2010
MY NAME IS.....
उन दिनों की बात हैं मैं मुंबई में रहा करता था और अभी भी मैं कभी कभी मुंबई जाया करता हूँ लेकिन मैं सौ प्रतिशत दावे के साथ कह सकता हूँ की मुंबई में लोग जितने सुरक्षित और एक हैं ओ दुसरे किसी शहर में नहीं हैं. लेकीन हमारा मीडिया शायद मुंबई का नाम बदलकर TRP ही रख दिया हैं. क्या मीडिया को मुंबई के अलावा दुसरा कोई शहर मिला ही नहीं. कहते हैं भारत गांवो का देश हैं लेकीन क्या हमारे मीडिया ने गांवो के तरफ भी कभी देखा हैं. कई मराठी भाषिक मेरे दोस्त थे साथ में UP और कर्नाटका और केरल से आये हुए बहुतसे लोग थे जो हम एक साथ रहकर हमारा दुःख दर्द बाँटते थे और कभी कभी खुशियाँ भी. उनके नाम अलग अलग थे रहन सहन अलग थे लेकिन दिवाली हो या ईद मुबारक बात देना कभी नहीं भूलते थे. और आज भी यही हालात हैं सिर्फ एक बात छोड़कर माय नेम इज.....
अब सोचने वाली बात यह हैं की बॉम्बे का नाम मुंबई हो गया लेकिन वहां कुछ भी नहीं बदला इस लिए मैं कहता हूँ की नाम पे जोर देंने जरुरत नहीं क्यूँ की नाम से ज्यादा काम को महत्व देना चाहेयें. जिस काम से हमें दो वक्त की रोटी मिलती हैं और उसके साथ साथ हमारा नाम भी सलामत रहता हैं. आप जब एक अजनबी शहर में जाते हैं तो आपका काम ही आपके नाम को सही सलामत रखता हैं. आप किस तरह काम कर रहे हैं, क्या कर रहे हैं कैसे कर रहें हैं इससे ही अपने नाम को एक दिशा मिलती हैं. मेरा यह कहना नहीं हैं की नाम का कुछ भी महत्त्व नहीं हैं. नाम तो केवल एक पहचान का चिन्ह हैं समाज की इस वयस्था को बरकरार रखने का एक तंत्र हैं. जो की हिसाब किताब रखने की एक व्यवस्था हैं.
एक दिन मैं मेरे मित्र को मिलने के लिए मैं एक होटल में गया था वहां के GUARD ने मुझे देखते ही सलाम किया मैं उसकी तरफ देखा तक नहीं फिर ओ बोल पड़ा " साहब मुझे पह्चान लिया क्या ? जब मैं उसका चेहरा देखा तो मालूम पड़ा की वह पहले हमारे ऑफिस में काम किया करता था लेकीन नाम याद नहीं आ रहाथा. मैने कहा भाई मुझे आपका काम और चेहरा तो मालूम हुआ लेकिन नाम याद नहीं हैं. फिर उसने कहा " सर माय नेम इज...."
जब भी हम बहुतसे लोगोंसे या पुराने मित्रोंसे मिलते हैं तो सबसे पहले हमें उसका काम और चेहरा याद आता हैं. बाद में उसका नाम लेकिन हम नाम के बारेमें ज्यादा सोचते नहीं हमें सिर्फ वह क्षण याद आते हैं जो उसके साथ बिताएं हैं. कभी किसी एक छोटेसे रेस्तरां में चाय या काफी के साथ मजे लिए थे यही सब कुछ. शायद ऐसे कई लोग होगे जहाँ पुणे के उस GERMAN BAKERY में अपनों के साथ कुछ पल बिताने के लिए आये थे जो अपने यादों के सफ़र से हमेशा के लिए जुदा हो गए और अपनो का साथ छोड़कर इस दुनियासे चले तो गएँ लेकिन कुछ पल छोड़ गए जो साथ में बिताएं हुये उस GERMAN BAKERY के साथ. ओ भी बिना बताएं माय नेम इज...
जीवन की लढाई लड़ते लड़ते जो मर गए मैं उन्हें शहीद कहकर प्रणाम करता हूँ और उनके परिजनोके दुःख में शामिल होता हूँ.
Tuesday, February 9, 2010
मदारी का खेल
अब सोचने वाली बात यह हैं की हम सब जिंदगी में कभी ना कभी बन्दर बनते ही हैं और मदारी के इशारे पे नाचते हैं. जैसा की बड़े उद्योग समूह अपना माल बेचने के लिए बड़ेसे बड़े फ़िल्मी सितरोंको नचाते हैं. और बडेसे बड़े खिलाडियों को बन्दर बनाकर तमाशा दिखाते हैं.और ठीक इसी तरह नेता लोग लोगोंको को बंदर बनाकर नचाते हैं.
जैसा की कोई नेता जब चुनाव जीत जाता हैंतो लोग उमड़ पड़ते है और अपना नाच गाना सुरु करते हैं. ठीक इसी तरह हम कभी ना कभी बंदर का रोल अदा करते हैं.
जैसा की महासचिव का मुंबई का दौरा सभी को खूब नचाया था. सी एम से लेकर सभी मंत्रिगन और साथ में सभी पुलिसवाले भी. ठीक इसी तरह सेना ने भी आपने बंदरोंको नाचने के लिया खुला छोड़ा था लेकिन उनके बन्दर अब थक चुके थे क्यूँ की पिछले कई सालोंसे से नाचते और तमाशा दिखाकर थक गये थे. इस लिए उन्होंने नाचना बंद कर दिया था. मीडिया के मदारियोने आपने आपने बंदरोंको मैदान में उतारा था की कुछ सनसनीखेज खबर मिल सके और खूब तमाशा हो.
एक जमाना था क्रिकेट को हम बड़ी चाह से देखते थे क्यूँ की वह आपने देश के लिए खेलते थे. जब ओ देश के लिए खेलते थे तभी हम भी ख़ुशी से बन्दर बनकर नाचा करते थे क्यूँ की देश के सामने हम कुछ भी बन सकते हैं, यह बन्दर तो कुछ भी नहीं. लेकिन समय के साथ साथ कुछ परिवर्तन आया कुछ पैसो वालोने कुछ खिलाडीयोंको बन्दर बनाकर तमाशा दिखाना शुरू किया शायद उसे ही हम IPL कहते हैं. जहाँ हर खिलाडीके कीमत की बोली लगती हैं, और उन्हें मैदान में छोडा जाता हैं. और इस खेल को आप तक लाया जाता हैं. जिसे आप घर बैठे देख सकते हैं. शायद आपको मालूम होगा की अब जो मदारी बन बैठे हैं. ओ भी एक जमानेमें बन्दर का रोल मिभाया करते थे. शायद बन्दर भी मदारी के चाल को समझ चुके थे और उन्होंने सोचा की क्यूँ की हम बन्दर बनकर क्यूँ नाचे हम भी मदारी बन सकते हैं. जैसा की कुछ हीरो जो बन्दर बनकर निर्देशक के इशारेपे नाचा करते थे अब ओ खुद मदारी बन कर कुछ बंदरोंको खरीदकर खेल शुरू किया, लेकिन मदारी के मन में एक आस थी की शायद अच्छा खेल दिखाना हो तो कुछ पडोसी देश के बन्दर खरीद सके. लेकिन वहां एक बड़ा मदारी बैठा था उसके पास बहुत सी बंदरों की सेना थी. अब दोन्हो मदरियोंके बीच बहस हुई और इसी खेल को मीडिया ने टीवी के जरियें लोगों तक पहुंचा दिया और लोग भी बड़े चाव से इस खेल को देख रहे थे.
अब हमारे पास केवल दो ही विकल्प हैं या बन्दर बनकर नाचना या मदारी बनकर नचाना. लेकिन मदारी बनना उतना आसान नहीं हैं. क्यूँ की उसके लिए आपको पहले बन्दर बनकर नाच गाना दिखाकर पैसा जमा करना पड़ता हैं. उसके बाद ही मदारी बनकर नचाना पड़ता हैं. यहा सभी नियम केवल बन्दर के लिए हैं. मदारी के लिए कोई नियम हैं ही नहीं. मदारी जैसा कहता ठीक उसी ताल पर नाचना हैं. आज भारत में आम आदमी की हालत भी कुछ इसी तरह ही हैं. क्यूँ की बन्दर जब भी मदारीके इशारे पे नाचता हैं इसके बदले में उन्हें कुछ खाने को मिलता हैं. शायद इस वजह से ही बन्दर मदारिके इशारों पे नाचता हैं. शायद आम आदमी की जिंदगी भी इस बन्दर से कुछ अलग नहीं हैं. क्यूँ की इसे भी अपनी भूख मिटाने के लिए मदारी सरकार हर रोज नचाती हैं. कभी महंगाई के तार पर जहाँ बुनियादी जरूरतों को पूरा करने और जीनेके लिए बन्दर बनकर नाचनाही पड़ता हैं.
जब भी चुनाव आते हैं तभी थोड़े दिनोके लिए आम इन्सान मदारी बन जता हैं. और नेता बन्दर फिर एक बार ओ चुनाव जीत कर जाता हैंतो हम सब बन्दर और वो मदारी बन जाता हैं. और हमें कई सालों तक नचाता हैं. कभी काम के नामसे , कभी जात के नामसे कभी एकता के नाम से, और कभी कभी राम के नामसे. क्या यही हैं प्रजातंत्र ? आज हमें एक नयी सोच की जरुरत हैं जहाँ लोग अपने नेताओं के इशारोंपे नाचना छोड़कर खुद अपने ही मन की सच्चाई को मदारी बनाकर नाचना हैं. यही होगा हमारा प्रजातंत्र और यही होगा सच्चे मदारी का खेल.
Monday, February 1, 2010
रात और दिन
रात तू कितनी काली हैं
चाँद के साथ रहती,
जैसा की चाँद की साली हैं
चाँद भी कभी आंख तो कभी
हल्किसी रौशनी मारता हैं
कभी पूरी आंख खोलता हैं
तो कभी बंद करता हैं
रात बोली तेरे पास हैं
उजाला ही उजाला
जलता हुआ सूरज
लगता हैं तेराही साला
लेकिन तेरे पास हैं
सिर्फ काम ही काम
मेरे पास हैं चैन की
नींद और आराम
दिन बोला तेरे पास आंख
वाला भी होता हैं अंधा,
तेरे साये तले टिकी हैं चोरी,
और चलता हैं काला धंदा
रात बोली मेरे पास हैं
चाँद और चमकते सितारें
घर घर और गली में
चमकते हैं दीपक सारे
मेरे पास जीने की
और पीने की प्यास हैं
मौज मस्ती और
मिलन का अहसास हैं
समय सुन रहा था
यह बहस दूर खडा होकर
बोल उठा दिन और
रात के पास आकर
तुम दोनोंही एक काम करना
दोनों ही साथ साथ आना
ना रात के बाद दिन, बल्की
हाथोमें में हाथ लिए आना
दिन और रात को आयीं
समझ समय की यह बात
की दिन और रात कभी
नही आएंगे साथ साथ
एक के बाद एक आना
यही है तुम्हारा काम
दिन के बाद रात हो
यही हैं जीवन तेरा नाम
Friday, January 22, 2010
सत्य और सच-२
अब सोचने की बात यह हैं की हम जन्मदिन मनाते हैं क्यूँ की हम एक साल बड़े हो गए इस लिए, हाँ यही सच हैं. लेकीन सत्य नहीं. सत्य इससे बिलकुल विपरीत हैं. हमारे जीवन में का एक अमूल्य वर्ष व्यर्थ में चला गया, या हम इस वर्ष में बहुत कुछ हासिल किया हैं, क्या इस लिए ही हम उत्सव मना रहे हैं ? सत्य तो यह हैं की हम मृत्यु एक साल और करीब आ गए हैं. अगर हम यही बात उस महाशय के सामने रखते क्या होगा ? ऐसे शुभ अवसर पर ऐसी बात! बल्कि बाकि लोग भी यही सोचेंगे की ऐसे शुभ अवसर पर कैसी बातें कर रहा हैं. क्यूँ की सत्य दिखाई नहीं पड़ता जैसा की म्रत्यु,शायद इस लिए ही हमें म्रत्यु की तारीख मालूम नहीं पड़ती.
जन्म के लिए एक तारीख होती हैं जिस तारीख को इंसान ने आपने सहूलियत के लिए बनया हैं. जिसमे कुछ अंक दिन और महिनोंके नाम जोड़कर, जिसे हम कैलेंडर कहते हैं. अब एहां कैलेंडर सच हैं .लेकिन सत्य नहीं. क्यूँ की कैलेंडर में भी बहुतसे कैलेंडर हैं. आप अगर हिन्दू कैलंडर देखते हैं तो उसका नंबर इसाई कैलंडर से अलग ही होगा. और दोनों तिथियोंका मिलन कदापि नहीं होंगा. अब सवाल यह हैं की कौनसी तिथि निश्चित करके जन्मदिन मनाएं. यह सब तो मानवी खेल हैं. सत्य तो यह हैं की सूरज और पृथ्वी के बिच जो क्रम बना हैं वही सत्य हैं. लेकिन हमें वह दिखाई नहीं पड़ता, जिसे हम देखते हैं की सूरज पूरब से उगता हैं और पश्चिम से डूबता हैं, यही देखे हैं, देख रहे हैं और आगे भी देखते रहेंगे. इस लिए सत्य दिखाई नहीं देता.
जिस हवा को हम नहीं देख सकते लेकिन उसे हम महसूस जरूर कर सकते येही सत्य हैं. सच को हम देख सकते हैं. सच के पास सबूत होते हैं. लेकिन सत्य के पास सबूत नहीं हैं. जहाँ सबुत हैं वह लौकिक हैं. सत्य अध्यात्मिक हैं. जहाँ जन्म हैं वही मृत्यु हैं, अब हमें यह सोचने की जरुरत हैं की जन्मदिन मना रहे है या मृत्युदिन, जब से हमारा जन्म हुआ हैं उसी क्षणसे हम मृत्यु के और बढ़ रहे हैं, इसका मतलब यह हैं हम हर क्षण मर रहे हैं. जब हम जन्मदिन मनाते हैं तब हम मृत्यु के बारे में ही सोचते हैं जो मृत्यु का डर हैं उसे छुपाने की एक नाकाम कोशिस करते हैं. अगर हम मृत्यु से डरते नहीं तो जन्मदिन मनाने के आवश्कता ही नहीं. क्यूँ की कुछ क्षण हम ख़ुशी हासिल करना चाहते हैं. शायद इसी ख़ुशी से मृत्यु का डर कम कर सके. ऐसी बहुतसे बातें हैं जैसा की हम पाणी को देख सकते हैं लेकीन तृषा नहीं देख सकते लेकिन हम उसे महसूस कर सकते हैं.
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भगवान बुद्ध जब पहली बार राज भवन से बहार निकले थे उसी दिन मृत्यु को समझ गए थे और उसी दिनसे उन्होंने राज दरबार त्याग दिया.क्यूँ की ओ सत्य को जान चुके थे. जीसस को जब क्रूस पर बांध कर, हाथ और पैरोंमें किले ठोक कर गोल्गुत्था के पहाड़ पर ले जा रहे थे तभी भी ओ लोगोंको उपदेश ही दे रहेथे क्यूँ की ओ मृत्यु के डर से कोसों दूर थे. बल्कि वहां देखने वाले लोगही ज्यादा डरे हुए थे. समझो किसी एक इंसान को मालूम हैं की वह मर ही नहीं सकता तो जन्म दिन मनायेगा ही नहीं. अगर मनाता भी हैं तो उतना उत्साह नहीं होगा, क्यूँ की मृत्यु को चुनौती देने का आभास नहीं करेगा. यह सब मायावी हैं या उसे हम मानवी भी कह सकते हैं. जन्मदिन हमने बनाए हुए नियम है, जो की हम सुख की तलाश में रहते हैं. क्यूँ की डर से दूर भाग सके. डर का कारण ही मृत्यु हैं, मृत्यु ही जीवन का अंतिम सत्य हैं.
रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय ।
हीरा जन्म अमोल था, कोड़ी बदले जाय ॥
ठीक इसी तरह जीवन के अनमोल साल बिता देते हैं और हर साल उल्हास के साथ जन्म दिन मनाते हैं. और झूट मुठ ही बधाई देते हैं. तुम जियो हाजोरों साल.. बोल तो सच हैं, लेकिन सत्य नहीं. लेकिन सुनते समय हमें लगता हैं की हम मृत्यु बहुत ही दूर हैं.
जब हमारे ग्रंथो में गार्गेयी का वर्णन आता हैं की ओ वस्त्रहीन रहती थी. शर्म से लोग उसके तरफ देखते ही नहीं थे. क्यूँ की देखने वाले की नज़र में खोट थी पाप था, अभी भी होता हैं कामवासना लिप्त आदमी जब भी स्त्री को देखता हैं तो वस्त्र होने के बाद भी उसे वस्त्रहीन महसूस करता हैं. अगर ऐसा नहीं होता तो बुर्खें या पर्दों की जरुरत ही नहीं होती. एहां वस्त्र सच हैं और शारीर सत्य हैं क्यूँ की यहाँ वस्त्र बदल सकते हैं शारीर तो वही जो सत्य का प्रतिक हैं. यही फर्क हैं सत्य और सच में.
Thursday, January 14, 2010
रण...TRUTH IS TERRIBLE
२६/११ का ओ काला दिन शायद ही कोई भारतीय भूल सकता हैं. उसके साथ साथ जो नेता लोग ओ भी शायद कभी भूल नहीं पाएंगे, खास कर शिवराज पाटिल चाकुरकर, आर आर पाटिल और विलासराव देशमुख. शायद इस लिए नही जो मुंबई में कई लोग शहीद हुये, बल्कि इस लिए की इस घटना के बाद उनकी खुर्सीयां छिनी गयी थी. और इस घटना क्रम में 'मीडिया' की बहुत ही अहम भूमिका थी. इसके साथ एक और नाम जोड़ा गया ओ एक नेता तो नहीं थे, लेकिन एक फिल्म निर्देशक थे जिनका नाम हैं राम गोपाल वर्मा. क्यूँ की उन्होंने एक गलती की थी की हमले के बाद विलासराव देशमुख के साथ ताज होटल का मुआयना करने निकल पड़े थे. और इस बात से "मीडिया"ने पूरा हंगामा खडा किया था. इसका मुख्य कारण तो यह था की सरकार "मीडिया" को उस जगह आने और फोटोग्राफी की इजाजात नहीं दी थी. मीडिया इस वाकये से खासा नाराज था, और उसके शिकार होगये राम गोपाल वर्मा और देशमुख साहब.
अब बारी रामगोपाल वर्मा की थी शायद इस लिए उन्होंने "रण" फिल्म निकाली जिसके अन्दर जो "मीडिया" की अन्दर की बात लोगो के सामने रखने का प्रयास किया हैं. उसमे हमारे बिग बी के साथ साथ विलास राव के सुपुत्र रितेश देशमुख भी नज़र आयेंगे. पिक्चर में "इंडिया २४/७" नाम का न्यूज़ चैनल चलाते हैं, और उसके साथ हमारे नेतागण कैसा मीडिया का उपयोग अपने स्वार्थ लिए कर लेते हैं. यह सब कुछ दिखाया हैं. इन्तजार करो फिल्म रिलीज़ होने का इसके बाद ही हम सही अंदाजा लगा सकते हैं की राम गोपाल वर्मा की फिल्म "रण" क्या गुल खिलाती हैं. लेकिन एक बात तो जरुर तय हैं की यह फिल्म "मीडिया" में सेंध जरुर लगाएगी. पहले
नेताओं पर फ़िल्में बनती थी जो उनका काला चिट्टा उजागर करती थी. क्या अब मीडिया भी उसी श्रेणी में आ गया हैं ?
अब हमें यह सोचने की जरुरत हैं क्या हमारा मीडिया सत्ताधारी लोगों के इशारे पे तो नहीं चल रहा हैं? अगर हम मान लेते जी हाँ हामारा "मीडिया" सही रस्ते पे चल रहा हैं तो हर मीडिया वाले सत्ताधारी पक्ष के साथ हैं ऐसा क्यूँ मालूम पड़ता हैं? क्यूँ की बिहार में नितीश कुमार ने जो प्रगति का रास्ता चुना हैं उसके बारे में बहुत ही कम बोलता हैं. हमारे "मीडिया" के पास आलोचना के अलावा दुसरा मुद्दा दिखाई नहीं पड़ता. आलोचना करना गलत नहीं हैं, लेकिन जो अच्छा काम करता हैं उसकी प्रशश्ति करना भी जरुरी हैं.
मैंने चिरफाड़ में हमारे विनोद साहब का एक ब्लॉग पढ़ा था उसमे नागपुर से निकलनेवाले समाचार पत्र पर हमला हुआ था तो "मीडिया" किधर गया था. जब वही हामला IBN लोकमत के दप्तर पे हुआ था तो पूरा "मीडिया" गरज उठा था. इसका एक ही कराण था की वह एक छोटासा अखबार, ओ कोई चैनल नहीं था. इससे "मीडिया" की भूमिका पर संदेह होता हैं. और ओभी शिव सेना ने हमला किया था तो खबर और मसालेदार होगी ही और इसके साथ साथ TRP भी बढ़ेगी.
अब हमारा अहम सवाल यह हैं की, क्या हमारा "मीडिया" निष्पक्ष हैं? क्या हम "मीडिया" पे भरोसा कर सकते हैं ? क्या ओ लोकशाही का आधार बन सकता हैं? क्या हमारे न्यूज़ चैनल भी किसी पक्ष के तले दबे हुए हैं. जैसा की सामना शिवसेनाका, लोकमत कांग्रेसका क्या इसी तरह हमारे न्यूज़ चैनल भी किसी एक पक्ष के साथ तो नही हैं? क्या "मीडिया" भी सरकार या नेताओं से हप्ता तो नहीं लेता? अगर ऐसाही चलता रहा तो ओ दिन दूर नहीं की की लोगों का "मीडिया" से भरोसा उठ जायेगा. सुनो! सुनो! मीडिया की वजह से लोग नहीं बल्कि लोगोंकी वजह से "मीडिया" हैं.
Tuesday, January 12, 2010
मेरी जमीं, मेरा देश..
एक गाँव में एक जमींदार रहता था. उसके पास तक़रीबन १०० एकर के आस पास जमीं थी. और उसके पड़ोस में एक छोटासा किसान रहता था उसके पास तक़रीबन १० एकर खेती थी. वह किसान अपनी छोटीसी जमीं पर मेहनत करके अच्छी फसल उगाकर जीवन व्यतीत करता था. साल में कुछ पैसे बचाही लेता था.किसान बहुत ही भोला था ओ हमेशा ही गांधीजी के उसूलों पर चलता था. जैसा की बुरा मत सुनो, बुरा मत देखो और बुरा मत बोलो. अगर कोई उसेके एक गाल पर थप्पड़ मरता तो ओ दुसरा गाल आगे करता.
एक दिन वह खेत में पेड़ के छाव में आराम करते करते उसके दिमाग में कुछ साल पहले की घटनाएं याद आ रही थी . उसके पास आसल में ११ एकर खेती थी. उसके एक एकर पर जमींदार ने कब्ज़ा जमाया था. एक दिन जमींदार ने उसे चाय को बुलाकर,दोस्ती का हाथ बढाकर रातोरात जमीं पर कब्ज़ा कर रखा था. जब दुसरे दिन सुबह देखता तो उसकी १ एकर जमीं जमींदार के कब्जे में थी. उसने गाँव के सरपंच के पास आपनी शिकायत दर्ज की, फिर सरपंच ने दोन्हो के बिच में करार पत्र बनया, जिसमे लिखा था की "यह जमीं जीसकी भी हैं, इसका हल तो सर्वे के बाद ही होगा और सर्वे की पूरी रक्कम जमींदार ही चुकाएगा. अगर जमीं ज्यादा निकली तो खुद ही नयी हद बनाकर जमींदार स्वयं किसान को लौटा देगा ". इस बात को अब पच्चीस साल गुजर चुके थे. लेकिन जमींदार वह सब भूल चुका था.
कुछ और दिन बीत गए अब किसान और जमींदार दोनोंही मर चुकेथे. अब कमान उनके बेटों के हाथों में थी. किसान का बेटा भी अपने बाप की तरह दिन रात मेहनत करके अच्छा ही कमा लेता था. ओ भी गाँधी वादी था जो अपने पिता की तरह. दूसरी तरफ जमींदार का बेटा, वो भी ठीक अपने बाप के नक्शेकदम पर चलता था.
कुछ और दिन बीत गएँ एक दिन (छोटा) किसान अपनी बेटी के लिए वर देखने गाँव चला गया. दो दिन जब अपने खेत पर जा देखता तो उसके खेत के तक़रीबन आधे एकर पर जमींदार(छोटा ) कब्जा कर रखा था. और एक नए सीमा रेखा बनायीं थी अब छोटा किसान फरियाद ले कर किसके पास जाता क्यूँ की छोटे जमींदार का गाँव में इतना दब दबा था की कोई उसके खिलाप आवाज़ उठाने को तैयार ही नाही था. उनने जमींदार को पूछा तो उसने कहा "जो तुम्हारी जमीं थी, जिसपे तुम्हारे बाप ने कब्जा कर रखा था, वही जमीं वापस ले ली हैं".
किसान मन ही मन सोच रहा था. क्या सच्चाई के रस्ते पे चलने से येही फल मिलता हैं. इस जमींदार के अलावा उसके तिन और पाडसी थे. पहला पडोसी उसके पास ५ एकर के आसपास जमीं थी ओ भी इस छोटे किसान के जमीं पर कब्जा कर राखा था, और ओ खुले आम उनके गाय भैंसे उनके खेत में छोड़ देता था. और ओ खेत में घुसकर उसकी फसल को नष्ट करने का प्रयास करते रहता था. पूछने पर कहता था की ओ गाय भैंसे उसकी नाही थी बल्कि और एक पडोसी की थी.
उसका दुसरा पडोसी एक छोटा किसान था. उसके पास ३ एकर जमीं थी. और उसकाभी इस किसान से विवाद हो गया था क्यूँ की इसके के खेत में से जो पानी का बहाव सीधा दुसरे किसान के खेत में जाकर उसकी फसल को हानी पहुंचाता था. इसी वजह से इस पडोसी के साथ भी उसका रिश्ता उतना अच्छा नहीं था.
तीसरा पडोसी जो था दिन भर छोटे किसान के साथ रहता था उसके पास एक एकर जमीं थी. लेकिन ओ भी आजकल जमींदार के साथ ही रहने लगा था. यह सब सोच कर किसान बहुत ही चिंतित था उसे कुछ भी रास्ता नहीं दिख रहा था.
अब आप ही बताएं आखिर यह किसान करे तो क्यां करे ?
१) क्या उसे सच्चाई का रास्ता छोड़ देना चाहियें ?
२) क्या उसे उनका जवाब उन्ही के भाषा में देना चाहियें ?
३) या उसे आपनी सारी जमीं जमींदार के हवाले कर देनी चाहियें?
४) या उसे इसी तरह जीवन बिताना चाहियें?
हमारे इमानदार किसान को आपके जवाब का इन्तजार हैं.
इस कहानी में जो काल्पिनिक पात्र हैं उनका विवरण कुछ इस तरह हैं.
जमींदार......चीन
किसान......भारत
पहला पडोसी ......पकिस्तान
दुसरा पडोसी ......बंगलादेश
तीसरा पडोसी .......नेपाल
सरपंच.......संयुक्त संस्थान
Wednesday, December 30, 2009
नववर्ष की बधाई.....
जीवन की रेल में,
सफ़र करते करते,
किसी ने कहा उतरो अब स्टेशन आया हैं.
मैं यह सुनकर हैरान रह गया
मन ही मन सोचने लगा,
हम स्टेशन पे आये,
या स्टेशन हमारे पास आया हैं.
सोचते सोचते एक और ख़याल आया.
क्या नया साल भी इसी तरह आया,
जैसा की स्टेशन आया.
मैंने खिड़की के बाहर देखा.
फिरसे देखा, और परखा,
बहुत सारे अंक भाग रहे थे.
जिसमे पल मिनट और
घंटे समाये थे.
और दिन पर दिन,
जैसे की भागते हुए पेड़ ,
और साथ में महीने भी
भाग रहे थे,
अब मुझे यकीन हो चला था,
सब उसी जगह खड़े थे.
सिर्फ समय भाग रहा था.
उसे सिर्फ हम नंबर दे रहे थे.
शायद इसेही हम नया
साल कह रहे थे.
और साथ में सभी को नववर्ष की
बधाई दे रहे थे, बधाई दे रहे थे.
Saturday, December 26, 2009
नया साल आया...
गतवर्ष को अतीतमें धकेलकर नया साल आया.
महंगाईके मारसे दब गए सभी आज.
शायद सस्ते होगे दाल, चीनी और अनाज.
दुआ करते शायद मिले सस्ता माल नया.
मंत्रीजी निभायेंगे दिय हुय सभी वादे.
नए साल में नेक होंगे इनके भी इरादे.
आशा हैं, अब तो न खेले कोई खेल नया.
ना हो कोई आतंकी हमला एहां फिरसे.
सुरक्षित रहे एहां सब जिए ना कोई डरसे.
हमें मिलेगा उनके हर पहेली का हल नया.
सोचते हैं, बाज़ार छलांग लगाकर भागेगा.
दुआ करते की अब पैसोंसे ही पैसा आएगा.
लगता है 'बैल' भी अपनाएगा एक हाल नया.
पेट्रोल और डिसेल के भी कम होगे दाम.
अब हर सड़क पर होगी नहीं ट्राफिक जाम.
अब सब एहां अपनायंगे ट्राफिक रुल नया.
बारिश हो अच्छी, फसल भी हो अच्छी.
किसान भी जिएगा अपनी गिंदगी सच्ची.
आत्माहत्या को छोड़कर जियेगा कल नया.
आशा हैं, मुबारक नया साल हो सबके लिए.
नयी तरंगे नयी उमंगें नया अहसास सबके लिए.
भूलो गुजरे कलको अब, आया एक पल नया.
नया जोश, नया होश लेकर नया साल आया.
Wednesday, December 23, 2009
राज़ पिछले जन्म का...
मिला क्या ओ सिर्फ इंसान का ही था ?
हिन्दू मान्यताओके आधार से पिछला जनम निश्चित हैं, लेकिन यह निश्चित नहीं हैं की हर जनम में ओ इंसान ही रहेगा. एक एक योनी में एक करोर से भी ज्यादा बार जन्म लेने के बाद ही मानव जन्म मिलता हैं.लेकिन एहां तो मानव जन्मोकी लाइन ही लगी हैं.
एक बार भगवन श्रीकृष्ण और अर्जुन हस्तिनापुर में से गुजर रहे थे. तभी उनकी नज़र एक मछुआरे पर पड़ती हैं. जिसके पास मछ्लियोंकी टोकरी थी उसमे बहुत सारी मछलिया थी. मछुआरा का पूरा अंग सोने के गहोनोंसे भरा था. उसे देखतेही अर्जुन ने वासुदेव से पूछा.
"भगवन यह कैसा न्याय! जो दिन में इतनी सारी मछलियों को मारता हैं, फिर भी ओ उतना आमिर?
"अर्जुन वह इसके पिछले जन्म का फल है जो इसे इस जन्म में मिल रहा हैं"
दोनोही आगे चलते रहे और थोड़ीही दूर में एक और दृश देखा की एक हाथी जिसके अंग पर लाखों चींटिया थे. जो हाथी के चर्म पर सूक्षम प्रहार कर रहे थे. मजबूर हाथी कुछ भी नहीं कर सकता था. जैसा की जब हम छोटे से तिनके को कम समझ कर पैरो तले कुचल देते हैं लिकिन वही तिनका जब हमारे आंख में घुस जाता हैं. तब हमें
तिनके ताकत मालूम पड़ती हैं.
तिनका कबहुँ ना निंदये, जो पाँव तले होय ।
कबहुँ उड़ आँखो पड़े, पीर घानेरी होय ॥
ठीक इसी तरह चींटिया भी तिनके सामान इतने छोटे होकर भी बड़े से बड़े हाथी को दर्द दे रहे थे लेकिन उतना विशाल हाथी कुछ भी नहीं कर पा रहा था. यह दृश देख कर अर्जुन ने भगवानसे पूछा.
"क्या इस हाथी के साथ न्याय हो रहा हैं"
"अर्जुन तुम जिस हाथी को देख रहे हो, ओ पिछले जन्म में मछुआरा था.और उसके अंग पर जो अनगिनत चींटिया देख रहे हैं ओ सब पिछले जन्म में मछलियाँ थी, और इस जन्म ओ उसका बदला ले रहे हैं "
अब हमारे मन यह सवाल आता हैं. क्या जानवर का जन्म याद नहीं आता? क्या जो कुछ दिखाया जा रहा हैं ओ सही हैं ? क्या जब पिछ्ला जन्म याद आता हैं, सिर्फ इंसान का ही क्यूँ ?जानवर का क्यूँ नहीं ? बहुत सारे सवाल . क्या इन सभी सवालों का राज़ मिल पायेगा? आखिर क्या हैं राज़ पिछले जन्म का?
Wednesday, December 16, 2009
खजाना लूटना ही हैं... ग़ज़ल
फिर खुद को मौज मस्ती पे टूटना ही हैं.
अब हमें नई जिंदगी जीने की चाह में.
गुजरे हुए वक्त पे आज हमें रूठना ही हैं.
आधी जिंदगी गुजर गई इस चाहत में.
आज हमें खुदसे भी उपर उठना ही हैं
ख़ुशी के नये मकाम की तलाश में.
खुशीयोंके आसुओंसे रोकर फूटना ही हैं.
कुछ तो कर गुजरने की चाहत में.
कभी खुद को भी मर मिटना ही हैं.
चलना था उसी बने बनाए रास्ते में.
फिर उसी रास्ते से भी तो हटना ही हैं.
लूटे खजाने को फिर से बांटना ही हैं.
जिंदगी से भी एक दिन छूटना ही हैं.
Saturday, December 12, 2009
"अवतार" का महाभारत...
महाभारत में इसी आधार पर एक कहानी हैं. एक बार भागवान श्रीकृष्ण और अर्जुन के बिच बहस चल रही थी की ब्रहमांड की उत्पति कैसे हुई और भगवान् श्री कृष्ण ने अर्जुन को कहा की तुम्हारे इस सारे सवाल का जवाब सिर्फ बकादल्व्ये ऋषि ही दे सकते हैं.
फिर अर्जुन और किशन भगवान बकादल्व्ये मुनि के पास पहुँच गए. महर्षि ने कहा "इसका सरल उत्तर तो केवल ब्रह्मा ही दे सकते हैं". फिर तीनो मिलकर ब्रह्माके पास गए उन्हें यह जानना था की ब्रहमांड की उत्पति कैसे हुयी. ब्रम्हा ने बड़ेही गर्व के साथ कहने लगे " मैंने ही यह दुनिया बनाई हैं".
कुछ ही पलों में एक बड़ा चक्रवात आया और चारों ही उड़कर एक अलग दुनिया में पहुँच गए वहां के लोग बहुत ही विचित्र थे और इन लोगोंको देखकर हसने लगे. पूछने लगे की तुम कौन हो? एहां कैसे ? फिर ब्रहमदेव ने कहा "मैं ब्रहमांड रचानेवाल ब्रहमदेव हूँ ". ओ लोग हस पड़े और उन्होंने कहा "हमारा ब्रह्मा तो अलग ही हैं"
देखते देखतेही यह खबर उस दुनिया के ब्रह्मा के पास गई. दूसरी दुनिया का ब्रम्हा बहुत ही क्रोधित हुआ और तुरन्त पहले ब्रह्मा के पास आया. उस ब्रह्मा को देखकर कृष्ण, अर्जुन और सब साथी चकित रह गए, क्यूँ की उस ब्रह्मा को ८ चेहरे थे. अष्टमुखी ब्रह्मा जैसेही इनको देख कर हस पड़ता हैं और कहता हैं की 'मैं ही इस ब्रहमांड का रचिता हूँ'.
फिर से एक बड़ा चक्रवात आया और देखते देखतेही सब तीसरी दुनिया में पहुँच गए. ओ भी सीधा तीसरे ब्रह्मा के द्वार पर, और वहां उन्हें जो ब्रह्मा देखा उसको १६ चेहरे थे. इन्हें देखकर तीसरे दुनिया का ब्रह्मा हसने लगा, और पूछने लगा 'तुम कौन हो ऐसे भयानक ? और खुदको परिचित करते हुए उसने कहा 'मैं ब्रम्हा हूँ इस ब्रहमांड की रचना मैंने ही की हैं'.
और एक बड़ा चक्रवात आया और देखते देखतेही सब चारवी दुनिया में पहुँच गए. ओ भी ब्रह्मा के द्वार पर, और वहां उन्हें जो ब्रह्मा देखा उसको ३२ चेहरे थे. इन्हें देखकर चारवी दुनिया का ब्रह्मा हसने लगा, और पूछने लगा 'तुम कौन हो ?कौनसी दुनियासे आये हो? और खुदको परिचित करते हुए उसने कहा "मैं ब्रम्हा हूँ और ब्रहमांड का निर्माण मेरे ही शुभ हतोंसे हुआ हैं"
उतने में और एक बड़ा चक्रवात आया और देखते देखतेही सब पांचवी दुनिया में पहुँच गए और ओ भी सीधे पांचवे ब्रह्मा के द्वार पर, और वहां उन्हें जो ब्रह्मा दिखा उसको ६४ चेहरे थे. इन्हें देखकर पांचवी दुनिया का ब्रह्मा हसने लगा, और पूछने लगा तुम कौनसे जिव हो? कहांसे आये हो? और आपकी कौनसी दुनिया हैं? ६४ मुह वाला ब्रह्मा बड़े ही घमंड से कहने लगा "मैं ब्रम्हा हूँ इस ब्रहमांड की रचना मैंने ही की हैं".
यह सिलसिला चलता ही रहा, इसी प्रकार अलग अलग ब्रहमांड से गुजरते हुए आखिर में और एक ब्रह्मा के पास पहुँच गए, उसको १००० चेहरे थे. फिर सहस्रमुख के ब्रम्हा ने सभी का स्वागत किया और एक बड़े सभा का आयोजन किया. आप सभी इस ब्रहमांड रचनाकार हैं.आप सभी के साथ ही मैं हूँ. यह बात सुनकर सभी ब्रह्म्देओको अपना अभिमान याद आया और यह भी मालूम हुआ एहां कोई भी बड़ा नहीं सबके लिए अपना अपना स्थान हैं. और उस स्थान की एक सीमा हैं. लेकिन उस सीमा के आप हक्कदार नहीं बल्कि सिर्फ रचिता हैं.
सवाल यह हैं की क्या ओ जो दुसरे दुनिया के ब्रह्मा थे, क्या ओ एलियन तो नहीं थे ? जी हाँ इस कहानी के पीछे जो सन्देश छिपा हैं,ओ यह हैं की इस ब्रहामंड में तुमसे भी अलग और बड़े जिव हैं. इस लिए घमंड मत करो की हमारी दुनियाही सबकुछ हैं.
ज़रा सोचो हमारे ग्रंथो में सब कुछ हैं. "अवतार" की कहानी भी एहांपर ही मिलती हैं. यही हैं, हमारे ज्ञान का भण्डार और कहानियों का शब्दकोष जहाँ हर शब्द में कई कहानियां हैं. फर्क तो इतनाही हैं की, हम उसकी रुपरेखा बदलकर दिखाते हैं,जैसा की "अवतार" में जो कहानी दिखाई गई हैं. अगर हम इस महाभारत की कथा का उपयोग नये ढंग से, या ब्रह्मा के जगह एलियन को बताकर करते हैं तो जरूर बनेगा 'अवतार' का महाभारत.
Wednesday, December 2, 2009
सहारा मिला था.....ग़ज़ल
तुफानोसें टकराकर दिलकी कश्ती को किनारा मिला था.
जिंदगी में पहली बार हमसफर का सहारा मिला था.
हरतरफ उलझे हुए चेहरे,पहचानना भी मुश्किल था.
राह पर चलते चलते एक बेनकाब चेहरा मिला था.
समां भी खुशी से समाया नही जा रहा था.
पल भर के लिए समय भी ठहरा मीला था.
गर्म हवा में भी मौसम सुहाना लगता था.
दोपहर की कड़ी धुप में भी कोहरा मिला था.
जिंदगी जीने का एक नयासा अंदाज़ मीला था.
सांसो की निगाह पर भी एक पहरा मिला था.
धड़कन की खुशबु का अहसास सासों में मीला था.
दिल पर गुनगुनाता हुआसा एक भवरा मिला था.
अब तो सांसे भी रुकी , उसे नया मोहरा मीला था.
धड़कन पर भी, अजनबीका परचम लहरा मीला था.
Friday, November 27, 2009
नोबल पुरस्कार किसे........
नोबल पुरस्कार दुनिया का सबसे महान पुरस्कार हैं। और ओ केवल अच्छे कामों के लिए ही दिया जाता हैं। लेकिन हमारे एक नेता का कहना हैं की अगर गन्दगी के लिए पुरस्कृत करना हो तो भारत अव्वल नम्बर आता और नोबल पुरस्कार भी मिलता यह सब क्यूँ कहना चाहतें हैं। इस गन्दगी के लिए जिम्मेदार कौन? मैं उस नेता को पूछना चाहता हूँ की अगर रिश्वत लेने के लिए नोबल पुरस्कार होता तो किसे मिलता?
६ अगस्त १९४५ के दिन जापान के शहर हिरोशिमा पे परमाणु बम हमला हुआ था। उसके दो साल बाद हमारा भारत देश आज़ाद हुआ। आज अगर आप हिरोशिमा को देखते तो कहते, क्या वो वही शहर हैं, जो पुरी तरह तबाह हो गया था। अगर हम इससे तुलना करते हैं तो आज हिरोशिमा हमारे शहरोंसे १० से १५ साल आगे हैं। इसका मतलब यह हैं की हम तक़रीबन १० से १५ साल पीछे हैं।
एक बार जापान के PM और हमारे PM के बिच वार्तालाप हुई। जब जापान के पिएम ने कहा की अगर आप हमें एक सालके लिए आपका पिछड़ा हुआ राज्य देते तो हम उसे जापान जैसा ही बना देंगे। लेकिन हमारे पिएम ने कहा, अगर आप जापान हमें सिर्फ़ एक महीने के लिए दे दो हम उसे हमारे पिछड़े हुए राज्य जैसा ही बना देंगे।
हमारे देश में सरकार का चुनाव करना हमारे लोगों के हाथ में हैं। फिर भी हम इतने पीछे क्यूँ? इसके लिए हमारे सिस्टम में परिवर्तन लाना जरुरी हैं। हम अगर दो ही पक्षों को चुनाव की अनुमति देते हैं तो हमारे पास एक विकल्प होता की कौन से पार्टी को जिताना हैं, और क्यूँ? हमारे एहां जनमत का विभाजन सही तरीकेसे नही होता। क्यूँ की एक जगह के लिए दस दस उम्मीदवार खड़े होते हैं। और हम सही अंदाज नही लगाते की किसको जिताना हैं। और इसी तरह हम हमारे प्रगति का रास्ता बंद कर देते हैं। अगर हमारे पास अगर दो में किसी एक का चुनाव करना होता तो हम निश्चिंत होकर किसी एक को जिताते। और हमें सही नापतोल मिलता की कौन कितना सही हैं। किसने अच्छा काम किया हैं। अगली बार किसे जिताना हैं।
क्या हम सब इससे सहमत हैं। हमें पहले यह जानना जरुरी हैं की क्या सही हैं क्या ग़लत हैं। अगर हम ऐसाकर पाते तो हमारा देश भी 'नोबल' नेताओं की दौड़ में सबसे आगे होगा। आज हमारे पास प्रतिभा की कोई कमी नही हैं। आज हमारे वैज्ञानिक विदेश में रहकर नोबल पुरस्कार जित रहे हैं। हम यह चाहते हैं की ओ स्वदेश में रहकर जीते। इस राम, बुद्ध , और नानक की धरती का अपमान करना छोड़कर, यह सोचने की जरुरत हैं की इस समस्यासे कैसे निपट सकते और इसके लिए हमें क्या करना चाहियें? मुझे तो नही लगता की की हमारा देश उस नेता की सोच से ज्यादा गंदा हैं। अब सोचो नोबल पुरस्कार किसे .......
Monday, November 23, 2009
किस्सा राममंदिर का
Monday, November 16, 2009
हम हिन्दुस्तानी
हम हिन्दुस्तानी हैं। इसका हमें गर्व हैं। सबसे पहले हमें यह सोचना जरुरी हैं की,क्या हम अपनी विचारधारा का विभाजन कर रहें हैं? या देश का ? किसी भी हिन्दुस्तानी को गर्व के साथ कहना चाहिए की हम भारतीय हैं। आज हमारी भाषा, हमारा रहनसहन अलग हैं। हम कभी कभी यह गलती कर बैठते हैं की , सचिन जैसे महान खिलाड़ी को भी हम सीमारेखा के बोज़ तले दबा देते, और ओ कह नही सके की हम हिन्दुस्तानी हैं। कौन हैं इस के लिए जिम्मेदार? मैं यहाँ किसी एक आदमी का नाम नही लेना नही चाहता क्यूँ की इसमे हम सब शामिल हैं। ऐसी ख़बर को हम चस्का लगाकर सुनते, पढ़ते और देखते हैं। इसके साथ हमारा मीडिया भी उतना ही जिम्मेदार हैं। क्यूँ की एक हिन्दुस्तानी को यह बताने की नौबत क्यूँ आई की हिन्दुस्तानी हूँ। क्या हमें उस पर शक कर रहे हैं? या जानबुझकर महनायक को किसी विवादों में खिंचकर क्या साबित करना चाह्ते हैं ?
इन सभी बातों का मेरे पास जवाब हैं। हमारा मीडिया पहले चिंगारी लगाकर उसपे दिन रात तेल डालते रहता हैं। क्या इन सब बातों की कोई सीमा हैं ही नही ? आज भारत देश में हजारो समस्याए हैं। जो कही ऐसे गाँव हैं, जहाँ अभी तक पिने का पाणी, या सड़क आदि , ऐसे और बहुत ही मुद्दे हैं। जिसे मीडिया लोगों के सामने ला सकता हैं। लेकिन नही, हमारे मीडिया को सनसनीखेज किस्से चाहिए, जो की एक बड़ी ख़बर बनाकर उसे पेश कर सके। उसके लिए, किसी महान खिलाड़ी या महानायक का चुनाव करके अपने रेट के साथ साथ अपने समाचार पत्र या चैनल का भी जोर शोर से इस्तमाल करते हैं। प्रजातंत्र में मीडिया स्थान बहुत ही ऊँचा हैं। क्या हमारा मीडिया महान हस्तियों का इस्तमाल टीआरपि के लिए नही कर रहा हैं? शायद आज हमारे देशवाशियों को फिरसे राष्ट्र गीत सुनाने की जरुरत है। जिसमे सभी प्रान्तों का वर्णन हैं। क्या हमारा मीडिया का समतल इतना गिर गया की, किसी भी व्यक्ति का इस्तमाल कर के उस ख़बर को बढ़ा चढा कर लोगों को बताते हैं।
मीडिया में बहुत ही प्रतिस्पर्धा हैं लेकिन, इसका मतलब यह तो हरगिज़ नही की, ख़बर का इस्तमाल करके किसको दिखाना चाहते हैं, की हम भारतीय एक नही। हम मीडिया वाले से यह गुजारिश करना चाहतें हैं की, यह सभी खबरे हमारे पड़ोसी मुल्क के लोग भी देख रहे हैं। जो इसका फायदा जरुर उठाएंगे। आतंकवादी भी आपके ख़बरों का जायजा ले रहे हें। दुनीया में हमारा देश ही एक ऐसा देश है की, जहाँ वन्दे मातरम् के खिलाप आप कुछ भी कह सकते हैं। क्यूँ की हमने कई सीमाए बनाई है। जिसे हम देश से भी बड़ा समझते हैं। जैसा की हमारा राज्य देश से बड़ा हैं। या हमारे वसूल,हमारे नियम और हमारी मान्यताए , क्या यह सब देश से बड़े हैं? या हमारा मीडिया इससे बड़ा हैं? सुनो देश यानि एक जमीं का टुकड़ा नही बल्कि देश यानि हम लोग। हम हिन्दुस्तानी।
Saturday, November 14, 2009
चाय साब! पेशल चाय!
रातोरात टेंट तैयार हो गया और लोगों के बैठने का भी इंतजाम भी हो गया. नेता को देखने के लिए भीड़ उमड़ पड़ी और पूरा मैदान लोगोसे भर गया. कुछ समझदार लोग अभी अभी आ रहे थे शायद उन्हें पता था की मंत्री का वक्त यानि बेवक्त की बरसात. उसके बाद हमारे मंत्री साहब आ गए ओ भी तक़रीबन दो घंटे देरीसे. मंत्री का स्वागत बाल गोपलोने गाना गाकर किया. सरपंच ने मंत्री साहब को नारियल देकर, गले में पुष्प माला दालकर मंत्रीजी के हाथ में कैंची थमा दी. मन्त्री जी ने रिब्बन काट कर बालभवन के उदघाटन किया . मंत्रीजी अपना भाषण शुरू किये."कल हमारे गाँव में मंत्रीजी आ रहे हैं, बालभवन के उदघाटन के लिए. मैं सभी लोगों से निवेदन करता हूँ की आप लोग उपस्थित रहकर गाँव की शोभा बढायंगे, येही मेरी आशा हैं ".
"प्यारे भाइयो और बहनों आज मेरा भाग्य हैं की मैं आपके बिच में हूँ . सबसे पहले मैं आप लोगों से माफ़ी चाहता हूँ की, मैं समय पर नहीं आ सका. क्यूँ की उसके लिए भी एक कारण हैं. एक बार, एक कर्यक्रम में गलतीसे सही वक्त पर पहुंचा, और मैं हैरान रह गया की वहां सिर्फ चार लोगों के सिवा कोई भी मौजूद नहीं था . उस घटना के बादसे मैंने यह निर्णय ले लिया हैं की, किसी भी कार्यक्रम को दिए गए समय को उपस्थित नहीं रहूंगा . आज का दिन हमारे लिए बहुत ही महत्व का हैं, जिसे बाल दिवस के रूप में मानते हैं. और इसी मौके पर हमने जो बालभवन बनया, इसके पीछे हमारा उद्देश यह हैं की, हम बाल मजदूरी जैसी समस्या को जड़ से उखाड़ देंगे, इसलिए हमने यह बालभवन बनया हैं. क्यूँ की बच्चे मुफ्त मे शिक्षा ले सके. आप सभी लोग से मेरा यह अनुरोध हैं की, सभी बच्चोंको बालभवन भेज कर उन्हें जरुर पढाना. हामारी सरकार ने कई और बालभवन बनाना चाहती हैं, जो हर गाँव शिक्षा की तरफ बढ़ सके. मुझे यकीन हैं की, आप सब ,मेरे बातों से सहमत हैं. आज हमारी सरकार सत्ता में आने के बाद, गाँव गाँव में पाणी, बिजली और सड़क का काम बहुत ही तेजी से किया हैं. आज हर घर में बच्चे स्कूल जाते हैं. यह तो हमारी सरकार के कामकाज का जरासा नमूना हैं. अब आपसे एक गुजारिश करना चाहता हूँ की, आप मुझे और मेरी पार्टी इसी तरह जीतायंगे. मैं अभी मेरा भाषण समाप्त करने की इजाज़त चाहता हूँ. क्यूँ की मुझे अभी आगले कार्येक्रम को जाना हैं. वहां लोग मेरा इन्जार कर रहें होगे. जय हिंद! जय हिंद!"
कार्यक्रम अच्छी तरह से संपन हुआ. सरपंच और उसके साथी बहुत ही खुश थे. एक साथी ने पूछा.
"सरपंचजी इतना सब इतजाम कैसे संपन हुआ, और ओ भी इतने कम समय में.
"सबसे पहले मैं टेंट वाले को बुला लिया, उसे कहा रातोरात काम होना चाहिए, लेकिन उसने कहा साहब मेरे पास टेंट का सामन तो हैं, लेकिन लेबर्स नहीं हैं. फिर रामू से कहकर उसके होटल में काम करने वाले चार बच्चोंको बुलाकर रातोरात टेंट का काम करवाया".
"आपने सही किया! आखिर बाल दिवस का इंतजाम बच्चे ही तो करंगे, और कौन करेगा".सभी ने हसीं का ठहका लगा दिया, सरपंच ने इशारे से ही रामू को चार पेशल चाय भेजने को कहा. थोडीही देर में एक दस साल का लड़का चाय ले आया, चाय का ग्लास सरपंच की और बढाकर बोला,
चाय साब! पेशल चाय!
Friday, November 13, 2009
फिल्म ही फिल्म....
'बरसात की एक रात' में 'आग ही आग'.
जहाँ 'शबनम' वही 'शोले'.
जहाँ 'दिल' वही 'दिलजले'.
जहाँ 'साया' वही 'सुराग'.
'बरसात की एक रात' में 'आग ही आग'.
जहाँ 'गीत' वही 'सरगम'
जहाँ 'मीत' वहां 'संगम'
जहाँ 'पापी' वही 'दाग'
'बरसात एक रात' में 'आग ही आग'
जहाँ 'ब्रम्हा' वहीँ 'त्रिदेव'
जहाँ 'अर्जुन' वहीँ 'देव'
जहाँ 'सिन्दूर' वही 'खून भरी मांग'
'बरसात एक रात' में 'आग ही आग'
जहाँ 'बादल' वहीँ 'दामिनी'
जहाँ 'सुर वहीँ 'रागिनी'
जहाँ 'चिंगारी' वही 'चिराग'.
'बरसात की एक रात' में 'आग ही आग'
जहाँ 'सुर' वहीँ 'ताल'
जहाँ 'चालबाज़' वही 'मालामाल'
जहाँ 'जीवन' वही 'बैराग'
'बरसात एक रात' में 'आग ही आग'
Tuesday, November 10, 2009
शपथ का नाता दिल से जोडो भाषा से नहीं ...
कुछ दिन बीत गए समय के साथ साथ लोगों की विचार करने की द्रष्टि बदल गई राज्य के लोग कहने लगे की मंदिर हमारे राज्य में हैं, फिर भी ओ पूजा गाँव की भाषा में क्यूँ करते है ? इसी वाद और विवाद से दो गुटों के बिच हथापायी हुई फिर मामला कोर्ट कचहरी तक गया. फिर मंदिर के द्वार बंद कर दिए गए और द्वार पर एक बडासा ताला लगा दिया गया. लेकिन लोगों की भीड़ कम नहीं हुइ लोग आते रहे और बाहरसे दर्शन लेकर जाते रहे यह सिलसिला तो चलता ही रहा.
इससे पहले हमें यह जान लेना जरुरी हैं की, भगवान कौन सी भाषा में प्रार्थना सुनता हैं. दुनिया में कई भाषाएँ हैं भगवान की कौन सी भाषा हैं ? भगवान के लिए भाषा की नहीं बल्कि भाव की जरुरत हैं. भगवान को श्रदधा की जरुरत हैं. फिर भी हम जोर जोर से गाते हैं, लोउड स्पीकर भी लगाते हैं यह सब किसको सुनाने के लिए ? पब्लिक को या भगवान को ?
संत कबीर एक मुल्ला को अजान करते देख कहते हैं. तेरा खुदा क्या बहीरा हैं. अगर चींटी के पैर में घुंघरू बांधे तो भी भगवान को सुनाई देता हैं. आप को भगवान ने बोलने की क्षमता दी इस लिए आप गाते हैं , बोली का उपयोग करते हैं . अब मुझे भगवान से यह पूछना चाहिये की गूंगा कौन सी भाषा में प्रार्थना करता हैं ? क्या गूंगे की प्रार्थना भगवान को सुनाई नहीं देती ? या गूंगे को प्रार्थना करने का अधिकार हैं ही नहीं ? हमें भी प्रार्थना ठीक गूंगे की तरह ही करना चाहिए.
कल की ही बात हैं एक नेता हिन्दी में शपथ ले रहां था. कुछ मराठी भाषीकोने , उसे मराठी में शपथ लेने को कहा. बात हथापायी तक उतर आई. अब मेरा कहना यह हैं हम किसी को जबरदस्ती से नहीं कह सकते की तुम मराठी में ही शपथ लो. क्यूँ की शपथ की कोई बोली नहीं होती, शपथ एक भाव हैं जिसका स्वीकार ही प्रेम हैं जिस के लिए आप वचनबध्ध हैं. शपथ को हम किसी एक भाषा या बोली में बांध नहीं सकते, अगर उस का पालन ही नहीं करना हैं तो कौनसी भाषा ,कौनसी बोली या कौनसी शैली ये कुछ भी मायने नहीं रखता. क्यूँ की शपथ में जिस भाषा का उपयोग किया जाता हैं ओ स्टेज में जाकर लोगो को बताने के लिए नहीं, बल्कि शपथधारक उसका अर्थ समझ सके और सही तरीके से पालन कर सके .शपथ भाषा में हो, लेकिन बोली में नहीं, यहाँ कौन सी भाषा में शपथ लेता हैं इस से भी ज्यादा महत्त्वपूर्ण यह हैं की ओ शपथ को समझा या नहीं, और उसका कैसा पालन हो ....शपथ तो वचन हैं, अपने कर्त्तव्य की भावना को जागृत करने का. शपथ का नाता दिल से जोडो भाषा से नहीं ...
Saturday, November 7, 2009
परलोक में भी भारत का डंका......
समझो अगर ऐसा होता हैं तो क्या होगा ? स्वर्ग और नरक में क्या होगा ?
यमधर्म ने भगवान इन्द्रदेव को एक सन्देश भेजकर तत्काल 'मीटिंग' कराने की सलाह दी. इन्द्र ने मीटिंग को सभी मान्यगन को निमंत्रित कीया.
मीटिंग का एजेंडा कुछ इस तरह था यमधर्म कहने लगे.
"प्रथ्वी से भारी संख्या में जिव आ रहे हैं. सभी जीव भूलोक से स्वर्ग लोक तक कतार में खड़े हैं. चित्रगुप्त ने परलोक के द्वार बंद कर दिए हैं.
हमारी पहली प्राथमिकता यह हैं , की उनके लिए जगह का प्रबंध करना . चित्रगुप्त दिन रात मेहनत करने के बाद हिसाब किताब नहीं कर पा रहे हैं. हमारे पास MANPOWER की बहुत ही कमी हैं. और जो जगह बची है ओ भी प्रयाप्त नहीं हैं. हमें और जगह चाहियें स्वर्ग में तो ज्यादा जगह हैं, क्यूँ की हमें यकीन हैं ९५% लोग नरक में दाखिल होंगे. स्वर्ग की COMPOUND WALL तोड़कर नरक के लिए जगह मुहय्या करनी पड़ेगी".
इन्द्र देव ने कहा
" यमराज क्या यह संभव हैं ? हमारे पास ज्यादा देवगन हैं और हमें खुली हवा चाहिये इससे हमें ज्यादा प्रॉब्लम होगी क्यूंकि स्वर्ग और नरक के बीच में अंतर कम हो जायेगा और नरक की सारी घटनाएं स्वर्ग में सुनाई देगी इससे स्वर्ग और नरक में क्या फर्क रह जायेगा?.किसी भी हालत में स्वर्ग की जगह नरक को नहीं मिलेगी"
.यमधर्म ने कहा.
"ठीक हैं हम सभी लोगों को स्वर्ग में भेज देंगे"
इन्द्रदेव के माथे पर तनाव की लकीरे दिखने लगी, फिर थोडा सोच कर देवराज ने कहा.
"पश्चिम के तरफ जो पहाडी इलाका हैं उसे आप ले सकते हैं"
"ठीक हैं'
"उसमेसे कुछ जगह मैं आपको देता हूँ"
यमराज आसन से उठकर कहने लगे.
"अब हमारी दूसरी समस्या हैं MANPOWER नरक मे सहायक यमों की संख्या बहुत ही कम है. और हमारे चित्रगुप्त को भी बडा ग्रुप चाहिये जो सब कुछ हिसाब किताब रख सके. क्या आप कुछ देवताओं को इस काम के लिए दे सकते हैं ?
"हमारे सभी देवगणों को पहले ही बहुत काम हैं , चाहे तो मैं एक सलाह देता हूँ."
"ठीक है, लेकिन आपकी सलाह उपयुक्त होनी चाहिए"
"आप ऐसा करो जो धरती से जो जीव आते हैं, उन्हीमे से कुछ जीवों को नियुक्त करो,जिनको इन सभी का अभ्यास और अनुभव हो "
"ठीक हैं! चित्रगुप्त आप एक सूची तैयार करो, लेकिन याद रहें की पापी को कोई जगह नहीं मिलनी चाहियें.जब
तक हर एक जीव का पूरा हिसाब नहीं मिलता तब तक कोई फैसला नहीं होना चाहियें"
"लेकिन जो जीव कतार में खड़े हैं उनका क्या?"
"उनके लिए एक तम्बू लगा दो,और सुनो उस पर WAITING HAAL का फलक लगा दो"
सभी इंतजाम हो गया और कुछ दिन के बाद सभी काम सुचारू रूप से चलने लगा.लेकिन एक बडी समस्या खड़ी हो गई.अब स्वर्ग में लोग ज्यादा आने लगे यमराज का हिसाब गलत निकला.अब तो यहाँ बीस से पच्चीस प्रतिशत लोग स्वर्ग में आने लगे. इन्द्रदेव ने यमराज को बुला लिया और दोनों ने मिलकर एक अहम फैसला लिया. नारद मुनि को जाँच के लिए नियुक्त कर दिया.
और कुछ दिन बीत गएँ नारद मुनि रिपोर्ट पेश की,नारदजी ने कहा.
"इस रिपोर्ट के हिसाब से स्वर्ग में जो भी लोग हैं. उन्ही में ज्यादातर भारतीय हैं.मेरा शक और बढ़ गया मैंने एक आदमी की रिपोर्ट देखि मुझे बहुत ही ठीक ठाक लगी मैंने पुरे लोगों की रिपोर्ट देखि उसमे कोई भी खराबी नज़र नहीं आयी. फिर मैंने चित्रगुप्त की मुख्य सलाहकार की रिपोर्ट देखी तो मुझे पता चला की, उसने ही सभी लोगों की रिपोर्ट बदल दी थी. क्यूँ की ओ भारत देश में एक नेता था रिश्वत लेकर सभी लोगों को स्वर्ग भेज दिया था. लेकिन सोचने वाली बात यह थी की उस नेता को यह पद कैसे मिला ? यही था... परलोक में भी भारत का डंका...... "
Wednesday, November 4, 2009
VANDE MATARAM
लेकिन कुछ दिनों बाद यह सीमाएं बढती गई और लोगों की विचारधारा की जिसे हम "समुदाय" कहते तो बेहतर होगा क्यूँ की हम इसे "धर्म" तो कदापि नहीं कह सकते. धर्मं का मतलब ही अलग हैं. जब हम हिन्दू, इस्लाम, सिख या इसाई, इनके सामने धर्म शब्द का उपयोग करना उचित नही होगा, तो समझ लेना की हमें धर्म का सही अर्थ मालूम ही नहीं. शायद हमारी धारनाए बहुत ही गलत हैं. क्यूँ की धर्म का मतलब ही अलग हैं, जो सत्य शब्द का समंतार रूप हैं. अभी सत्य किसी एक समुदाय का प्रतिक तो नहीं हो सकता. अब हमें एक पर्यायी शब्द सोचना होगा जो हर समुदाय को जोड़ सके या समांतर अर्थ दे सके. मेरे हिसाब से धारणा एक शब्द है जो किसी भी समुदाय को जोड़ा जा सकता हैं . यहाँ धारणा शब्द का प्रयोग उचित होगा,जैसा की हिन्दू धारणा इसी प्रकार इसाई या इस्लामी धारणा, शब्द प्रयोग कर सकते हैं.
स्वधर्मे निधनम् श्रेयहा | परधर्मो भयावहा |
अब यहां धर्म का मतलब ,जब कोई गलत काम कर रहा हैं तो उसे रोकना, इंसान का धर्म होता हैं,धर्म हैं और रहेगा. इसे ही हम स्वधर्म कह सकते हैं. अगर आप स्वधर्म में जियोगे तो श्र्येय होगा. हम सत्य के साथ अपना जीवन व्यतीत करना चाहते तो धर्म के यानि सत्य के साथ मरना ही उचित होगा .अगर आप किसी अधर्म के साथ जीवन व्यतीत करते हैं तो वह भयानक या भयभित होगा.
गीता के पहले अध्याय में भी येही कहा गया हैं. जो धर्मक्षेत्र जैसे कुरुक्षेत्र में कौरव और पांडव की सेना खड़ी थी. अब सोचने बात यह हैं की,उस क्षेत्र को धर्म क्षेत्र क्यूँ कहा गया हैं? कुरुक्षेत्र तो ठीक हैं लेकिन धर्मं क्षेत्र क्यूँ ? इसका एक ही मतलब, जहाँ हम सत्य के लिए लड़ते हैं. या सत्य के लिए लड़ रहे हैं वही हमारा धर्मं क्षेत्र कहलाता हैं.
आज हम देखते हैं यहाँ अलग अलग धारणा के लोग रहते हैं. सत्य तो यह हैं की सब लोग खाते हैं, पीते हैं,हासते हैं रोते हैं. क्या हम कहते हैं फलां आदमी इस्लाम है ओ सोता नहीं, फला आदमी इसाई हैं ओ कभी रोता नहीं, या फला आदमी हिदू हैं, खाना खाए बिना ही रहता हैं. जी नहीं! हम सब इंसान हैं हमारे नियम हम बना सकते हैं. फलां आदमी हिदू है ओ बिना प्राणवायु के जीता हैं और फलां आदमी इसाई हैं ओ बिना पानी के रह सकता हैं.
आज देश को जरुरत हैं उस धर्म की जो सत्य का रास्ता दिखा सके. क्या यही हमारा धर्म नहीं हैं ?
आज देश में कितने लोग ऐसे हैं जिनको दो वक्त की रोटी भी नसीब नहीं होती. लेकिन हम हमारी धारणा में ऐसे जकडे हुए हैं की हमें उसके सिवा कुछ दिखता ही नहीं. हम रोज एक नया किस्सा बनाते और बताते हैं.
जैसा की "वन्दे मातरम्" हमें पहले यह जानना जरुरी हैं की, वन्दे मातरम का अर्थ क्या हैं.इसका सरल अर्थ तो यह हैं की, हम अपने वतन को नमन करते,या प्रणाम करते. मेरे हिसाब इससे ज्यादा कुछ भी नहीं.
मेरे और आपके मानने या ना मानने से क्या होगा? कुछ नहीं! हम दिल से जिसे मानते वही हमारा वन्दे मातरम हैं................ वही वन्दे मातरम हैं.
Tuesday, November 3, 2009
WORK IN PROGRESS...... टेढी खीर
हमारे मोहल्ले में PWD ने सभी सड़को की मरम्मत करने की ठान ली थी. उसी प्रकार काम तेजी से चलता गया और कुछ ही दिन में हमारी सड़क अच्छी और चिकनी दिखने लगी. नज़र उतारनेका मन कर रहा था लेकिन क्या करता मैं मेरे काम में इतना व्यस्त था की पूछो मत.(खुद का WORK IN PROGRESS)
आखिर में जिस बात का डर था वही हो गया. नज़र तो लग ही गई ओ भी "वाटर सप्लाई" विभाग की, और उन्होंने "WORK IN PROGRESS " का बोर्ड लगा कर सड़क खोदने का काम "तमाम" कर दिया. कुछ दिन और बीत गए, हमने फिर से सड़क मरम्मत करवाई. उसके बाद टेलीफोन डिपार्टमेन्ट ने एक और बोर्ड लग दिया," WORK IN PROGRESS" सड़क की खुदाई का काम शरू कर दिया.और सड़क की हालत जैसी की तैसी. जैसा की हमारे नेता लोग आते(चुनाव के पहले )और हमें एक जीने का नया अहसास देते ठीक उसी तरह सड़क ने हमें कुछ दिन अहसास जरुर दिया था.
एक दिन मेरा दोस्त मेरे घर आया और उसने मुझे पूछा.
"यार जब मैं पिछली बार आया था तो सड़क ठीक ठाक थी, और अब ये गड्ढे "
"शायद तू हमारे सरकार को जानता नहीं,यहाँ जनतां अंधी हैं और सरकार लंगडी"
" जनता सब कुछ देख कर भी अंधी होती हैं, और सरकार तेज चल नहीं सकती क्यूँ की वहां का हर विभाग अपने अपने तरीके से काम करते हैं"
"चुनाव प्रचार के वक़्त तो बहुत ही तेज चलते हैं,तेज बोलते हैं "
"क्यूँ की तब ओ सरकार का हिस्सा नहीं होते, जब सरकार में आते खुद पे बोर्ड लगाकर फिरते हैं 'WORK IN PROGRESS' फिर लोगों को यह भी समझ में नहीं आता की किसका काम PROGRESS में हैं"
"जैसे की टेढी खीर "
अब मैं "टेढी खीर" के बारेमें आपको बताना चाहता हूँ यह एक "लोककथा"हैं.
एक गाँव में दो दोस्त रहते थे. एक जन्मसे अंधा था और दूसरा लंगडा, दोन्हो भिख मांग कर अपना गुजारा करते थे . एक दिन लंगडे दोस्त ने गाँव में जाकर खीर ले आया. और अपने अंधे दोस्त से कहा.
"देख यार मै तेरे लिए क्या लाया हूँ"
"क्या लाया"
"सफ़ेद खीर"
'"सफ़ेद खीर यानी "
"ओ जो सफ़ेद गाय जा रही हैं बिल्कुक उसी तरह" अंधे के समझ में कुछ भी नहीं आया .
"सफ़ेद क्या होता हैं"
"दूध के जैसा"
"दूध कैसा होता है"
"ओ जो बगला(CRANE) होता हैं ना बिलकुल सफ़ेद" फिर भी उसे कुछ भी समझ में नहीं आया,फिर लंगडे दोस्त ने बहुत ही मेहनत करके एक बगला पकड के अंधे के हात में थमा दिया. जैसे ही अंधे ने उसपर हाथ फिराकर बोला "टेढी खीर"
अंधी जनता और लंगडी सरकार-----टेढी खीर, यही हमारी कहानी हैं "WORK IN PROGRESS"
Thursday, October 29, 2009
SALESMAN
एक दिन की बात हैं. मैं बिग बज़ार में से गुजर रहा था. उतने में मुझे एक SALESMAN की आवाज़ सुनाई दी , "भाईयो और बहनों सुनो सुनो यह एक ऐसा तेल हैं जो आपको हमेशा FRESH रखता हैं".
उस आदमीको देखतेही मुझे हमारे 'बिग बी' याद आये, जो इसी तरह "ठंडा ठंडा कूल कूल का ADD. करते हैं".उसके साथ साथ कई और प्रोडक्टस आपने पिटारे में ले कर फिरते हैं. जैसा की सीमेंट क्रीम जो क्रीम लगाने के बाद इन्सान मशीन में बदल जाता हैं . और काम भी मशीन की तरह ही करने लगता ऐसे बहुत सारे ऐसे ADD.हैं जो लोगों को....... बनाकर माल बेचते हैं.
थोडी दूर एक और SALESMAN "कोनेमें" खडा होकर एक JAPANESE पंखे के बारे में लोगो को बता रहा था. उसे देखते ही मुझे हमारे कप्तान साहब याद आयें जो एक पंखा बेचने के लिए टीवी पर आते हैं ,जो कोने में तो खडा नहीं रहते लेकिन कोने कोनेमें हवा देने का वादा जरूर करते, क्यूँ की उन्हें आदत हैं सभी खिलाडियों को " कोने कोने में" खड़े करने की शायद इस लियें उन्होंने यह ADD चुना हैं. और ADD. में स्कूल के बच्चों का "कप्तान" बनकर उसे भी कोने कोने में खडा करते हैं. क्यूँ की विपक्ष के खिलाडी गेंद को इतनी तेजीसे मारते हैं की, जिसके हवासे फिल्डर के तों CATCHES भी छुट जाते हैं. फिर तो हवा कोने कोने में जरूर लगेगी.और एक ADD में ओ बिग बाज़ार में काम करने लगे हैं.सॉरी..... बिग बाज़ार के लिए ADD कर रहे हैं. हामारे कप्तान की बात ही कुछ और हैं. बहुत ही अच्छा काम करते हैं. ( बिग बाज़ार में. )
और थोडी दुरी पर एक और SALESMAN खडा था जो टीवी के साथ साथ डिश भी बेचा करता था, उसे देखते ही मुझे हमारे खान साहब नज़र आये जो घर घर जाकर "डिश के साथ विश भी करते हैं".
थोडी दूर और एक SALESMAN जो पेन बेच रहाथा और ओ जोर जोर से लोगो को अपील कर रहा था "भाईओ और बहनों पाच रुपये में एक, चलती ही जाएँ".मुझे हमारे ब्लास्टर साहब याद आयें जो पेप्सी के साथ साथ पेन और कई सामान अपनी झोली में लेकर फिरते हैं.
एक बात तो तय हैं की हम सब इस जीवन में कुछ न कुछ बेचते और खरीदते हैं . कुछ चीजे पैसे से, कुछ चीजें बिना पैसो से लेकिन बेचनेवाले कम तो खरीदनेवाले ज्यादा शायद इसी वजह से उनका धंदा( ADD) चल रहा हैं.
जीना बोले तो क्या है? क्या हमारी बुनियादी जरूरतें सिर्फ रोटी, कपडा और मकान तक सिमित हैं? या इससे भी कई ज्यादा , नही हर एक की जरुरते अलग हैं. उसके लिए कोई भी सीमारेखा ही नहीं. अब आदमी की बुनियादी जरूरतों का कोई हिसाब ही नहीं रहा.
इसी वजह से तो SALSMAN कुछ भी बेचने के लिए उतारू हैं क्यूँ की हम ही हैं जो सब कुछ खरीदते हैं.हमारे बिना SALESMAN कुछ भी नहीं.
Monday, October 26, 2009
किसान..
शायद भगवान भी क्यूँ रूठा ?
फसल उगाता,अनाज के लिए
पेट भर रोटी, मिले सब के लिए
एक साल, बारिश की तबाही
नेता आया "हेलीक्याप्टरसे"
सुका पड़ा तब भी "हेलीक्याप्टरसे"
बड़े बड़े वादे , फिर दिलासा भी झुटा,
शायद भगवान भी क्यूँ रूठा
बच्चे, बीवी भूखे सोते,
खाने के लिए कुछ भी नहीं
जहर के अलावा
सोना चाहा नींद नही,
रोते बच्चे को गुस्से में आकर पिटा
शायद भगवान भी क्यूँ रूठा
सोचा, जहर या फंदा लगाऊं,
बच्चे का मुख देख कर रुक गया
सेठ से क़र्ज़ लाया इस बारिश से तो घर ही टूटा
रात भर खुद को तड़पाया,
फिर जहर को गले लगाया
अब सब छुटा,जीवन से नाता टूटा
Saturday, October 24, 2009
हलकी सी हवा
यह हलकी सी हवा मेरे सांस में
जब मैं सुबह उठता हूँ,.
खिडकीसे तुम्हें देखता हूँ
खुद की पहचान मेरे पास में
यह हलकी सी हवा मेरे सांस में
जब तक हवा पानी हैं
तब तक तू मेरी रानी हैं
जीना भी क्या एक ही आस में
यह हलकी सी हवा मेरे सांस में
जिंदगी एक पहेली हैं
जो जीता उसकी सहेली हैं
रानी ही गुम हो गई मेरे ताश में
यह हलकी सी हवा मेरे सांसमें
जिंदगी भर भटकता रहा
जीवन के जाल में अटकता रहा
बीती पूरी जिंदगी तेरी तलाश में
यह हलकी सी हवा मेरे सांस में