Friday, July 30, 2010

अन्दर के तीन बन्दर....

नेता लोग ऐसा क्यूँ करते हैं ?
संसद भवन सर पे लेकर नाचते हैं
कभी कूदते हैं,
चिल्लाते हैं,
"बन्दर" की तरह उछलते हैं
कभी तोड़ फोड़ तो कभी माइक उठाकर
मारने दौड़ते,
कभी अपनेही साथियों को कुचलते हैं

कभी कभी तो लगता हैं
क्या  यही लोग देश को चलाते हैं ?
क्या होगा  इस पद के गरिमा का
सन्मान या,
अपमान,
क्यूँ इस  पद के गरिमा को रुलाते हैं ?
जब "गांधीजी" उप्पर से देखते होगे
और तरसकर यह कहते होगे
क्या इस लिए ही मैं इन्हें
आजाद किया था
यह वाकया देखकर, हैरान रहते होंगे
कभी कभी वो,  यह भी  सोचते होगे 
गलत हो गया,
इंसान की जगह "बन्दर" को चुनकर
बुरा मत सुनो,
बुरा मत देखो,
बुरा मत कहो,
अगर रखता एहां "इंसान" को चुनकर
शायद बन्दर सी हरकते रुक गई होती
उछलना,
कूदना,
फिर बन्दर सी चाल भी
इन्ही  के सामने झुक गई होती
यहाँ की  जनता सब कुछ देखती फीर भी
अपनी आँखे  ढक देती हैं
और नेता लोग, जनता की  यह
पीड़ा देखकर  आँखे ढक लेती  हैं
यहाँ तो जनता सब कुछ सुनकर भी
कुछ भी तो नहीं कह पाती
जनता ने  आवाज़ निकाली तो भी वह
नेता को सुनाई नहीं देती
यहाँ  जनता को जरुरी नहीं
बंद करना जुबान,
यहाँ तो सिर्फ नेता ही बोलते हैं
जनता कुछ भी तो नहीं  बोल पाती
फीरसे,
हर बार,
कुर्सी उन्ही के नाम हो जाती
अब हमें लगने लगा हैं की
वह  उपदेश,
सिर्फ जनता के लिए था
इस लिए नेता ल़ोग बेफिक्र थे
क्यूँ की
उपदेश ना की नेता के लिए था

Monday, July 5, 2010

भारत बंद!

बंद के नाम से देश के धन को क्यूँ जला रहे हैं यहाँ
जिम्मेदार ही  जिम्मेदारियों को क्यूँ भुला रहे हैं यहाँ

एक ही जात के राजनेता महंगाई रोको कहकर यहाँ
महंगाई के पिस्तोल से  गोलीयाँ क्यूँ चला रहे हैं यहाँ

अभी तक पता नहीं उनका, कई वादे कर गये यहाँ
आखिर उन्ही को हम सत्तासुख क्यूँ दिला रहें यहाँ

महंगाईके मारसे दबकर मरे हुए लगते हैं सब  यहाँ
उन्हीको मुर्दा समझकर अंतपे क्यूँ सुला रहे है यहाँ

महंगाई के पहाड़ सी सरकार हिलाना भी बेकार यहाँ
बंद के एक छोटे किलेसे पहाड़ क्यूँ हिला रहे हैं यहाँ  

दाल सब्जी  के दाम भी आसमान  को छू चुके  हैं यहाँ
पेट्रोल और डिजल के आंसुओंसे क्यूँ रुला रहे हैं यहाँ

इस दूषित हवा को भी बेचने के लिए ही बैठे हैं यहाँ
हर सांस के साथ कडवा जहर क्यूँ पिला रहे हैं यहाँ
 

भारत बंद! भारत बंद! यही नारा क्यूँ झुला रहे हैं यहाँ
जाम कहकर, चक्का वोटों की तरफ क्यूँ चला रहे हैं यहाँ

Thursday, May 27, 2010

बेटा या बेटी -३

(अब तक आपने पढ़ा की रोहन को दूसरी बेटी होती है. माँ को बेटी होना पसंद नहीं इस लिए फ़ोन काट देती हैं.दूसरी बेटी जन्म के तुरंत बाद ही वह प्लानिंग करता हैं यह बात किसी को बताता नहीं . राकेश की माँ यह सलाह देती हैं की मशीन  (सोनोग्राफी) द्वारा परिक्षण के बाद ही उसें पोता मिला था इस लिए रोहन भी वैसाही करें.  रोहन पत्नी और बच्चे के साथ आपनी बेटी का पहला जन्म दिन मानाने गाँव चले  जाते  हैं. वहां उसका बचपन का दोस्त रमेश मिलता हैं. रमेश पांच बेटियों के बाद बेटा पाने के लिए दूसरी शादी करना चाहता हैं.  रोहन के  बापू को मालूम पड़ता हैं की रोहन ने दो बेटियों के बाद  संतान रोकने का आपरेशन किया हैं इस लिए  उन्हने रोहन के सामने दूसरी शादी का विकल्प रखते हैं ताकि पोता पा सके . बेटी का पहला जन्म दिन मनाने का सपना अधूरा छोड़ कर रोहन बपुजिके फैसले का विरोध कर गाँव से निकल पड़ता हैं .... और आगे ...)
भाग -3


           रोहन को चार  दिन बाद  ऑफिस ज्वाइन करना था इस लिए बिस्तर पर लेटे लेटे ही अख़बार पड़ रहा था उतने में रेवती ने  आवाज़  दी.
"सुनो हम अर्चना का जन्म दिन गाँव में मना नहीं सके लेकिन हम एहां तो मना सकते हैं ना"
"हम कल उसका जन्म दिन यहीं पर   मनाएंगे"
"ठीक हैं सिर्फ राकेश  चम्पा और माँ जी  को ही बुला लो"
"और साथ में उनके बेटियों को भी बुला लेंगे".
 "ठीक हैं"
और समय के साथ साथ सब तय हो गया केक लाया गया और पड़ोस के कुछ बच्चों को भी बुलाया गया केक काटकर शहरी परम्परा से अर्चना का जन्म दिन का कार्यक्रम का समापन हो गया. माँ के आलावा राकेश के घर से सभी लोग उपस्थित थे लेकिन रोहन रहा नही पूछ ही लिया की माँ के अनुपस्थिति की वजह क्या हैं? राकेश ने कहा फिलहाल माँ घर में नहीं हैं ओ अपने एक रिश्तेदार के एहां चली गयी हैं. राकेश ने आगे कहा
"यार अर्चना का जन्म दिन तो १९ को था बी २१ को कैसे"
"उसके लिए एक लम्बी  कहानी है फिर कभी"
"अरुण का जन्म दिन कैसा हुआ"
"बहुत बढ़िया एक बड़े होटल में तक़रीबन ४०० लोगोंको आमंत्रित किया  था. मेरी पहली बेटी का जन्म दिन भी इतने धूम धाम से नहीं मनाया था.रोहन तुम होते  तो और भी मजा आता"
"बहुत बढ़िया"
"अच्छा रोहन मैं चलता हूँ"
राकेश के जाने के बाद  रोहन सोच में पड़ गया की समाज में ऐसे कई लोग हैं जो बचपन से ही बेटा और बेटीके  पालन पोषण में इतना बड़ा फासला बना देते हैं की यह सब देखकर भगवान को  भी कभी कभी बेटी बनाने के गलती का अहसास होता होगा. हम बचपनसे ही बेटी को पराया धन कहकर उसके मन में बिठा देते हैं की यह घर उसका नहीं हैं. इस घर पे केवल बेटे का ही अधिकार हैं.

          एक दिन रोहन ऑफिस से निकलने के लिये तैयार हो ही रहा था उसे खबर मिली की बहार रीशेपशन   में कोई इन्तजार  कर रहा हैं. जाकर देखता तो दो अधेड़ उम्र की महिलएं बैठी थी जैसाही रोहन  उनके पास गया उनमेसे के महिला बोल पड़ी.
"साहब मैं आशा और संजना  संजीवनी अनाथ आश्रम से आये हैं कुछ देणगी चाहते हैं"
"लेकिन मैं तो बस एक १०० या २०० रु दे सकता हूँ बस"
" साहब हमारे आश्रम में  २५ निराधार महिलएं रहती हैं"
"तो मैं क्या कर सकता हूँ"
"आप उन में से एक का साल भर का खाना दे सकते हैं, सुबह का नाश्ता ८०० रु हर साल दो वक्त का खाना २००० रु और दो वक्त का खाना और नास्ता २५०० रु साल भर के लिए"
"मुझे सोचने के लिए थोडा वक्त चाहियें  दो तिन दिन में मैं आपको बता दूंगा क्या करना हैं"
"साहब आपसे से  गुजारिश हैं आप सिर्फ एक बार हमारे  आश्रम को देख लीजिएगा और उसके बाद ही  फैसला लीजियेगा"
"ठीक हैं यह सब बादमें"
"नहीं साहब हमारा आश्रम  एहां से नजदीक ही हैं आज ही देखे तो ठीक रहेगा"
ओ दोनो  औरतें हाथ जोड़कर मिन्नते करने लगी रोहन को रहा नहीं गया और आज ही आश्रम देखने का फैसला कीया.

            थोडीही देर में तिनोही  आश्रम के नजदीक आ गए बड़े बड़े निलगिरी के पेड़ आश्रम की शोभा बड़ा रहे थे. कुछ महिलएं गाना गाते गाते ही पापड़ बेल  रहे थे वैसा तो  ही आश्रम ठीक ठाक लग रहा था. पूरा आश्रम देखकर रोहन ने दो तिन दिन का वक्त मांगकर वहां से निकलने लगा. उतने में पीछे से आवाज़ आयी :"बेटा"आवाज़ कुछ जानी  पहचानी लगती थी इस लिए रोहन पीछे मुड़कर देखा माँ जी यानी राकेश की मा.
"माँ आप एहां"
"हाँ बेटा"
"क्या राकेश को मालूम हैं की आप एहां हैं"
"बेटा राकेश खुद मुझे एहां छोड़ गया हैं"
"मैं घर में कुछ काम नहीं कर रही हूँ ऐसा बहु ने शिकयत की और इधर से मैनेजर  से बात कर मेरा एहां दाखिला करवाया.  मेरा एक ही बेटा था जो मुझे इस हालात में छोड़  गया हैं. बेटा उस दिन मैं तुम्हे अस्पताल में कही थी की बेटा होना चाहियें लेकिन अब मैं तुझे यह कहती हूँ की बेटा हो या बेटी कुछ फर्क नहीं पड़ता"
"माँ जी कुछ जरुरत रहे तो फ़ोन कीजयेगा मैं मेरा नंबर एहां आशा मैडम के पास छोड़ जाता हूँ" ऐसा कहकर रोहन ने जेब में से ५०० रु निकाले और उस वृद्ध महिला के हाथ में थमा दियें.
वृद्ध महिला के आंख भर आयें और जाते जाते उसने कहा.
"बेटा तू मुझे मिला था इस बात जिक्र राकेश के से मत  करना शायद मुझे बेटी होती तो कुछ सहारा मिल गया होता लेकिन भगवान की येही मर्जी हैं"

       रोहन वहां से निकल पड़ा और सोचने लगा जीवन भी एक अजीब खेल खेलता हैं. बचपन पूरा बड़ा होने में गुजर जाता हैं.  जवानी पूरी काम और  मस्ती में  गुजर जाती हैं.  बुढ़ापा सिर्फ जवानी के यादों को ताजा करके जीना चाहता हैं. लेकिन बचपन जवानी की ओर , और बुढापा जवानी के यादोमें गुजर जाता हैं और जवानी में हम बेटा या बेटी के चक्कर में न जाने कितने अपराध करते हैं. लेकिन अभी भी बहुतसे लोग आपनी मंजिल आपने बेटो में तलाशते हैं. उन्हें यह पता नहीं होता की अंधरे में सिर्फ नजदीक का रास्ता ही दिखता हैं दूर का नहीं. लेकिन याद रहे बेटा हो या बेटी ओ तुम्हारे साथ तब तक चलते हैं जब तक उनके पास खुद की  रौशनी नहीं होती. जब तुम्हारी रौशनी ख़त्म होती हैं तो सिर्फ अन्धेरा ही अन्धेरा होता हैं. मंजिल अभी भी बहुत दूर दिखाई पड़ती हैं  रास्ता लम्बा हैं और अन्धेरा घना हैं.  यह जीवन का   रास्ता हमें पार करना ही हैं चाहे कोई साथ हो या ना हो.
(समाप्त)

Wednesday, May 26, 2010

बेटा या बेटी- २

(अब तक आपने पढ़ा की रोहन को दूसरी बेटी होती है. माँ को बेटी होना पसंद नहीं इस लिए फ़ोन काट देती हैं . दूसरी बेटी जन्म के तुरंत बाद ही वह प्लानिंग करता हैं यह बात किसी को बताता नहीं . राकेश  की माँ यह सलाह देती हैं की मशीन (सोनोग्राफी) द्वारा परिक्षण के बाद ही उसें पोता मिला था इस लिए रोहन भी वैसाही करें .. और आगे ...) 
भाग २
            तक़रीबन पांच साल बाद रोहन अपने वतन यानि गाँव लौटा था. गाँव में तो उतना कुछ परिवर्तन नहीं हुआ था लेकीन गली गली में सीमेंट की सड़कें जरुर बनी थी. गाँव के पास एक बड़ा इमली का पेड़ था उसे गाँव के लोगोने तोड़ दिया था. क्यूंकि  पेड़ की जड़े मंदिर के दिवार में घुस रहीथी ऐसा गाँव के लोगों का कहना था. गाँव के मंदिर और उंचा हो गया था. तक़रीबन दो फर्लांग  का रास्ता चलते चलते रोहन आपने घर के द्वार पर दाखिल हुआ. दाखिल होते ही भाभीने स्वागत किया अर्चना को उठाकर गोद में लिए और उसके अंदर ले जाते ही माँ और बापू अन्दर से बहार आयें. रोहन और रेवती ने माँ बापू के चरण स्पर्श कियें. जीते रहो कहकर बेटे और बहु को आशीर्वाद दिया. माँ ने हालचाल पूछते हुए कहा.

"बेटा आने से पहले फ़ोन तो करना था और अचानक आ गया"
"नहीं माँ अर्चना का पहला  जन्म दिन गाँव में मनाना था"
"लेकिन बेटा हमारी बहुत ही तमन्ना थी दुसरा बेटा होगा"
"माँ बेटा हो या बेटी आजकल उतना फर्क नहीं हैं. चार दिन बाद १९ तारीख को अर्चना का पहाला जन्म दिन हैं सोचा इस ख़ुशी के मौके को साथ में बाटा जाएँ"
"चलो ठिक हुआ"
माने अंकिता को अन्दर ले गयी उतने में भाभी ने चाय ले आयीं कई सालों बाद रोहन को गाँव की चाय नसीब हुयी थी और ओ चुस्की लेकर चाय पी रहा था. चाय पिने के बाद रोहन ने रेवती को बहार बुलाकर कहा.

"अभी घर में किसीसे कुछ भी नहीं कहना की हमने प्लानिंग की हैं अर्चना का जन्मदिन के बाद यह बात मैं माजी को मैं  खुद कह दूंगा"
"ठीक हैं"
"मैं थोड़ा बहार जाकर अपने पुराने दोस्तों को मिल आता हूँ"

रोहन ने पिताजी को कहकर  अपना पुराना दोस्त रमेश के घर की तरफ निकल पड़ा. जैसे ही रमेश के घर गया रमेश ने उसका स्वागत किया. रमेश ने आपने पाच बेटियों का परिचय करवा दिया.यह सब देख कर रोहन को रहा नहीं और कहा.
"यार पांच बेटियां कुछ प्लानिंग किया होता"
"नहीं मुझे बेटा चाहियें था"
"अगली बार बेटा नहीं हुआ तो"
"अगली बार बेटा जरूर होगा"

उतने में जयंती यानि रमेश की पत्नी बहार आयीं चेहरे का तेज उतर गया था कुछ परेशां नज़र आ  रही थी.  उतने में रमेश को किसी का बुलावा आया और ओ जल्दी ही अता हूँ कहकर बहार गया. रोहन ने जयंती से कहा.

"क्या हाल बना रखा हैं" यह सुनतेही जयंती रो पड़ी और कहने लगी.
"भय्या ज़रा अपने दोस्त को कह दीजियेगा
"क्या कहना हैं"
"यह की दूसरी शादी ना करें"
"क्या रमेश दूसरी शादी करना चाहता हैं"
"हाँ उनको बेटा चाहियें, क्यूँ की मैं उन्हें बेटा नहीं दे सकती".
"चिंता मत करो मैं उसे समझा दूंगा"
"सूना हैं आपको दूसरी भी बेटी हुई हैं"
"हाँ! और हमें अब दो बेटियां ही हैं यानि अब बेटा नहीं होगा"
"क्यूँ और एक बार देख सकते"
"नहीं मैंने मेरे बीवी का आपरेशन करवाया हैं"
"इसका मतलब अभी बच्चा नहीं होगा"
"नहीं! लेकिन यह बात किसीसे कहना मत"
"ज़रा आप इनको बताईयेगा की दूसरी शादी ना करे"यह कहकर जयंती फिर रोने लगी
उतने में रमेश बहार से आते ही जयंती पर चिल्लाते हुए कहा तुने रोहन को क्या बतया और जयंती को घिसिटते हुए अन्दर ले गया. रोहन कुछ ना कर सका वहांसे निकलकर घर आ पहुंचा.
आखरी बार जब रोहन रमेश से मीला था उसकी दो बेटियां थी जो उसकी दूसरी बेटी लगभग अंकिता के उम्र की थी उसके बाद उसे तिन और बेटियां पैदा हुई थी.

                   आज अर्चना का पहला जन्म दिन था. घर के सभी ल़ोग सुबह से ही काम में लगे थे घर एक के माहोल में एक अजीबसी प्यार की खुशबू थी. सब ल़ोग आपने आपने काम में लगे थे शायद बापूजीके चेहरे परभी ख़ुशी झूम रही थी.  रोहन अर्चना का जन्मदिन घर में ही मनाना चाहताथा इस लिए बहार के किसी को आमंत्रित नहीं किया था.
 भाभी ने माँ जी   को अन्दर बुला लिया और कहा
"सासु माँ क्या आपको पता हैं"
"क्या हैं  बहु साफ साफ बतादे"
"छोटी बहुने आपरेशन करवाया हैं"
"यानि अब इस दो बेटियोंके बाद रोहन को बेटा नहीं होगा"
"इतना बड़ा धोका! बहु तुम्हे किसने बताया"
"सासु माँ पुरे गाँव में खबर फ़ैल गयी हैं"
"क्या यह सच  हैं"
"हाँ सासुमाँ आपके रोहने ने  खुद जयन्तीको  कहा था "
"बहु ज़रा रोहन के बापू को बुला लेना"

 इतने में बहु ने जाकर रोहन के बापू को बुलाकर लाती हैं और बापूजी को सारा मामला मालूम पड़ता हैं. फिर बापूने रोहन को आपने कमरेमें बुलाकर पूछते हैं.
"रोहन मैं ये क्या सुन रहा हूँ"
"क्या हैं बापूजी"
"क्या तुमने बहु का आपरेशन करवया हैं ओ भी दो लड्कियोंपर"
"हाँ बापूजी"
"क्या तुम्हे लड़का नहीं चाहियें"
"आजकल लड़का या लड़की में कोई अंतर नहीं होता"
"मुझे मत सिखा"
अब बापूजी की  आंखे लाल हुयी थी वह कुछ सुननेके लायक   नहीं थे गुस्से में कुछ भी कदम उठा सकते थे उनके मुह से बहार आने वाले शब्द भी रुक  गए थे बापूजी ने गहरी सास ली और कहा.
":बेटा तुमने ऐसा क्यूँ किया"
"बापूजी यह मेरा ही फैसला था"
"तुम दूसरी शादी कर लो"
"नहीं मैं रेवती को धोका नहीं दे सकता"
"ठीक हैं तुम्हारा येही फैसला हैं तो मेरा फैसला भी सुनो  तुम्हे अगर मेरे जायदाद में का हिस्सा चाहिए तो मेरी बात तुम्हे माननी पड़ेगी"
"नहीं पिताजी मैं ऐसा नहीं कर सकता"
"ठीक हैं इसी समय सामान बंधो और निकलो, अब इस घर में तुम्हे कोई जगह नहीं"

 रोहन गुस्से से बहार आया सामान पैक करके रेवती और दो बेटियों के साथ घर से निकल पडा. रोहन मन ही मन सोचने लगा की उसका इस दुनिया में कोई भी नहीं और जिस गाँव में वह अपना बचपन गुजरा वही गाँव अब उसे पराया हो गया था.
(क्रमश:)

Tuesday, May 25, 2010

बेटा या बेटी १


भाग १
(इस  कहानी  में दिए गए नाम और पात्र काल्पनिक  हैं)

रोहन ने  माँ को फ़ोन लगाया और कहने लगा.

"माँ मैं रोहन   बोल रहा हूँ  शहर से"
"बोलो बेटा सब ठीक तो हैं ना , और बहु कैसी हैं"
"वही माँ घर में लक्ष्मी आयीं हैं आप दादी बन गई हैं"
"क्या पोता हुआ हैं"
"नहीं माँ पोति हुई हैं".
"दूसरी भी"
"हाँ"

फिर फ़ोन कटने की आवाज़  रोहन  सोच लिया की माँ ने फ़ोन काट  दिया  होगा और मन ही मन सोचने लगा की शायद रेवती की तबियत के  बारेमें पूछा होता.  फिर से वह लौटकर रेवती  के पास आया खाट के पास  रखे हुए स्टूल पे  बैठ गया. एक बूढी औरत रोहन  के पास आयीं और मिठाई का डिब्बा आगे करते हुए कही.

"बेटा मुह मीठा कर ले पोता हुआ हैं"
"बधाई माजी"
"क्या तुम  अकेले ही  इस अस्पताल में! प्रसवन समय अस्पताल में  औरत  का होना बहुत जरुरी हैं "
"नहीं माँ जी मदद के लिए पड़ोस की आंटी  आती  हैं सुबह और शाम" 
"बेटा निराश मत हो अगले बार लड़का जरुर होगा मेरे बहु को भी पहले दो लडकिया हुयी और अब यह लड़का लेकिन एक बात का ख़याल रहे की पहलेही इलाज कर रखना"
"इलाज़ मैं समझा नहीं"
"इलाज़ यानि ओ मशीन से पता कर लेते हैं ना की  लड़का होगा या  लड़की"
"लेकिन यह  तो कानूनन अपराध हैं और डॉक्टर ऐसा करेंगे क्या"
"अरे बेटा काहेका अपराध थोड़ा ज्यादा  पैसा देकर करवा लेना और डोक्टर भी अन्दर के अन्दर सब कर देगा
देखो अभी मेरी बहु चम्पा हैं ना ये उसका दुसरा मौक़ा हैं क्यूँ की दो लड़कियों के बाद जब ओ उम्मीदसे थी तभी मशीन टेस्ट में लड़की निकली"
"फिर"
"फिर क्या बेटे! गिरा दिया और अब यह पोता"
ऐसा कहते कहते  वृद्ध महिला   बहु के पास चली गयी क्यूँ के कुछ और ल़ोग जमा हुए थे जो सभी ल़ोग बहु को बधाई  देने आये थे.

रोहन  अब बिलकुल अकेला  हो गया था सोचा माँ का फ़ोन आयेगा लेकिन किसका भी अभी तक फ़ोन नहीं आया था वह मन ही मन सोचने लगा था क्या लड़की होना कोई गुनाह हैं ? उतने में रेवती  ने आवाज़ दी.

"सुनो घर में किसीको बताया तो नहीं ना की दो लड़कियों पर प्लानिंग की हैं"
 "नहीं! माको सिर्फ  लड़की हुई हैं इतनाही बताया हैं"
"ठीक हैं! जब हम  गाँव जायेंगे तभी बता देंगे"
"ठीक  हैं"

कुछ दिन और बीत गएँ एक दिन मार्केट वह बुढ़िया मिली और पूछ ताछ शुरू की.

'बेटा तुम एहां कैसे"
"पहले यह बताओ की आप येहाँ "
"हां मेरा बेटा अभी येही पर घर लिया हैं आनंद नगरमें "
"आनंद नगर में तो मै भी रहता हूँ"
"चलो पास में ही हैं मैं तुमे हमारे घर  ले जाती हूँ लो आ गया येही घर"

घर के अन्दर जाते ही बुढीया ने राकेश को बुलाकर परिचय करवा दिया और चम्पा बिस्तर  पर ही थी इस लिए  माँने ही चाय बना लायी और चाय पीते पीते ही रोहन ने  कहा.

"मेरा घर भी इधर पास में ही हैं कभी कभी आते जाते रहना"
"जरुर अब तो हमारा परिचय भी हो गया आत जाते रहेंगी" राकेश ने कहा.
"बेटे का नाम क्या रखा हैं"
"अरुण नाम रखा हैं जो इसके दादाजी की अंतिम इच्छा थी"

राकेश ने साथ में उसकी बड़ी  और छोटी बेटीयोंको को बुलाया और कहा.

"यह मेरी पहली बेटी रुचिका और दूसरी रक्षिता आपको कितने बच्चे हैं"
"जी मेरी दो बेटियां  हैं  अंकिता और अर्चना"

थोड़ी देर रूककर रोहन घर की ओर निकल पड़ा अब राकेश  और रोहन अच्छे दोस्त बन गए थे अब  लगतार आना जाना रहता था. ठीक  उसी तरह चम्पा और रेवती भी एक दुसरे में घुल मिल गए थे और साथ  में दोनों परिवार के बच्चे भी.
(क्रमश:)

Friday, April 30, 2010

कुत्ते कमीने...

एक दिन गाँव के सभी कुत्तोने मिलकर एक  आसोसियशन का निर्माण किया उस असोसीयसन  का नेत्रत्व  'टॉमी' नाम के कुत्ते ने किया. टॉमी ने चौपाल के सभी कुतों को इक्कठा  किया और टॉमीने आपना भाषण भौंकने  लगा.
" एहां उपस्थित साथियों को प्रणाम अब मैं कुछ अहम मुद्दों पर चर्चा करेंगे. मेरा सबसे पहले आप लोगों को एक बात
 पूछना  चाहता हूँ की यह आदमी ल़ोग  जब भी किसी बुरे  आदमी को गाली देने का हैं तो हमारे नाम से ही गाली क्यूँ देते हैं? उदहारण   के लिए  'कुत्ते कमीने ' इस शब्द का प्रयोग किया करते हैं और यह हमारे लियें शर्म की बात हैं.  अब हमने भी यह सोच रखा हैं की किसी भी कुतों को गाली देना हैं तो आजसे हम भी आदमी के नाम से गाली दिया करेंगे जैसा की 'आदमी कमीने'.  मेरे कुतों, हमारा  सबसे पहले यह हक बनता  हैं की जो फिल्मोमे काम करे वाले ल़ोग हमेशाही इस भाषा का प्रयोग किया करते हैं. लेकिन क्यूँ क्या हम वफादार होते हैं इस लियें? आदमी लोगों का एक बहुत ही बड़ा सिनेमा हैं जिसका नाम हैं शोले वहां  तो हीरो अपने हेरोइन को कहता हैं 'बसंती इन कुत्तों के सामने मत नाच' मुझे तो उस फिल्म में  दूर दूर कोई कुत्ता नज़र नहीं आता फिर भी इस भाषा का प्रयोग  ओ भी गुंडों के लिए यह कतई शोभा नहीं देता और हमारा पहला उद्देश यह हैं की हम उस शोले पिक्चर का बहिष्कार  करंगे".
एक कुत्ता उठकर भौंका.. 
"लेकिन हम बहिष्कार करे तो कैंसे? क्यूँ की आदमी बहुत ही चालाक और बेईमान होता हैं और हम जैसे वफादार कुत्तों को भी कमीने  शब्द का प्रयोग किया करता हैं. असल बात यह हैं के ओ खुद कमीना होता हैं"
टॉमी आगे बोला..
"आज से हम एक प्लान के मुताबिक काम करंगे अगर कहाँ भी शोले का पोस्टर दिखाई दिए  तो पहले उसे फाड़ देंगे. शोले का नहीं बल्कि उस हीरो का  हर एक पोस्टर्स फाड़ देंगे  जिसनेभी  इस शब्द का प्रयोग किया हो"
और एक कुत्ता उठकर भौंका
"अगर हमने ऐसा किया तो कमीने आदमी लोग हमें छोड़ देंगे क्या"
टॉमी भौंका.. 
"ओ कमीने आदमी ल़ोग हमारा कुछ बिगाड़  नहीं सकते  क्यूँ की हम यह काम रातमें किया करंगे. और रात में अगर कोई चोर आदमी  किसी के घर में घुसा तो भौंकना नहीं. और जब सब ल़ोग आराम से सोये होते हैं तो तभी हम जोर जोर से भौंकना चालू रखेंगे और कमीने आदमीयों  नींद हराम कर देंगे".
एक और कुत्ता उठाकर भौंकने लगा
"सुना हैं उस कमीने आदमियोने  फैसला किया हैं की बिजली के खम्बे उखाड़ देने वाले हैं इस हालात में  हम क्या करेंगे?
टॉमी भौंका..
"कोई बात नहीं कुछ ल़ोग कार तो घर के बहार ही पार्क करंगे ना"
"लगता हैं उसके लिए भी एक नया नियम आने वाला हैं जैसा की  जिसके एहां पार्किंग की सुविधा हैं सिर्फ वही ल़ोग कार लिया करंगे"
"डरने की कोई बात नहीं हम गेट  कूदकर अन्दर जायेंगे और हमारा काम करेंगे अगर गेट  कूद ना सके तो कम्पौंड की  दिवार का इस्तमाल किया करंगे. मेरे प्यारे कुत्तों कुछ और समस्या रहे तो अभी बोल दो"
सभी कुत्तोने हाँ भर दी और जोश जल्लोष के साथ नाचभौंकना चालू किया .....

रोहन यह देख रहा था और ओ भी खुशीसे उन कुत्तों के साथ नाच रहा था..रोहन उठो... रोहन..माँ की आवाज़ ने रोहन को जगा दिया.  रोहन मन ही मन में सोचने लगा की कितना अच्छा सपना था "कुत्ते कमीने"

Friday, April 16, 2010

मुंबई का ऑक्सिजन



                     जिसे सोना था बैठे हुए हैं, जिसे बैठना था खड़े हैं, जिसे खड़े रहना था चल रहे हैं, जिसे चलना था दौड़ रहे हैं और जिसे दौड़ना था उससे भी तेज सवारी पकड़ते हैं। यही हैं मुंबई इसे हम मायानगरी भी कहते हैं। अगर हम पुरे हिन्दुस्तान का मुआयना किया तो यह बात सामने आती हैं की हिंदुस्तान सिर्फ दो तरह के ल़ोग रहते हैं एक मुंबई में रहने वाले और दुसरे किसी और शहरमे। कहते हैं एहां ल़ोग मशीन की तरह काम करते हैं। कुछ लोगोने ने तो इसे यांत्रिक जीवन बताया हैं।


                      इस यांत्रिक जीवन को सरल बनाने के लिए वहां लोकल गाड़ियाँ हैं उसे हम मुंबई की रक्तवाहिकाएँ कहते हैं। मुंबई का जलवा  देखकर यह  मालूम पड़ता हैं की उसमे यात्रा करने वाले लोग यानी रक्त कोशिकाएं जो इस पुरे शहर को ऑक्सिजन सप्लाय करती हैं। सोचने वाली बात यह हैं की आखिर मुंबई का ऑक्सीजन हैं क्या? मुंबई का ऑक्सिजन यानि पैसा, यह पैसा ही मुंबई को आबाद किया हैं और यह पैसा आता हैं हर एक इंसान के खून पसिनेकी कमाई से। एहां काम करने वाला हर इंसान मशीन की तरह काम करता हैं। अपने जीवन शैली साथ साथ उस शहर की तरक्की का हिस्स्सा बन जाता हैं

                        
एहां लोगों का एकही मकसद होता हैं काम और उसी काम के लिए सुबह की लोकल पकड़ना बहुत ही जरुरी बन जाता हैंलोकल छुट गई तो बस, इस लिए यहाँ ९० प्रतिशत ल़ोग अपने लोकल का समय निश्चित करके ही चलते हैं। जीवन का समय निश्चित हो ना हो लेकिन लोकल का समय निश्चित होनाही हैं। एहां बहुतसे ल़ोग ऐसे हैं की अपनी लोकल समय पे पकड़ने के लिए रेल लाइन क्रास  करते हैं और इसमें बहुतसे ल़ोग आपनी  रक्त वाहिनियाँ को रेल के हवाले छोड़ देकर जान गवां बैठते हैंजब ओ रेल के निचे कटते हैं तो  खून उसी तरह बहता हैं जैसा की स्टेशन में रुकी हुई ट्रेन में से लोग बहार आते हैंमुंबई में लोगों का जीने का और काम करने का तरिका बिलकुल ही अलग हैंकहते हैं जो आदमी मुंबई में टिका तो  दुनिया को बिका।  ल़ोग  सभी  शहरोंमें रहते हैं लेकिन हर शहर का एक स्टाइल हैं, दुसरे बड़े शहरों में काम तो होता हैं लेकीन मुंबई के हिसाब से कम ही होता हैं। 

                       कई लोगोने सवाल उठाए हैं की मुंबई किसकी ? उनके लिए मेरा उत्तर एक ही हैं।  मुंबई उन लोगोंकी है जो उस लोकल की भीड़से गुजरकर रोजीरोटी कमाते हैं।  मुंबई तो उन लोगोंकी हैं जो लोग कामपर नहीं बल्कि  युद्ध पर जा रहे हैंमुंबई तो आम लोगोंकी हैं जो लोग रक्त कोशिकाएं बनकर पुरे  मुंबई को  ऑक्सिजन सप्लाय करते हैंऔर एही हैं मुंबई का ऑक्सिजन जो मुंबई को ज़िंदा रखा हैं



Saturday, February 20, 2010

महंगाई मार गई......

आजकल महंगाई ईतनी बढ़ गई  हैं की सब्जियों के दाम आसमान को छु रहे हैं. "घर की मुर्गी दाल बराबर" अब यह कहावत भी गलेसे नहीं उतर रही. कहावत के साथ साथ दाल और सब्जी का भी गलेसे उतरना एक कसरत  हो गया हैं. आम आदमी की भाग दौड़ देख कर टमाटर भी हस हसकर लाल हो गया हैं.     प्याज   तो बिना कटे ही रुला रहा हैं. शक्कर भी कुछ कम नहीं हैं दाल और    चावल के साथ मिलकर आम आदमी पे हस रही हैं.

एक दिन में जल्दीमें ऑफिस जा रहा था तो बीवी ने आवाज दी
"आज ATM से पैसे ले आना"
"कितने "
"बस एक दो हजार ज्यादा  लाना"
"मेरे पास नोट छापने की  मशीन हैं ना!  दो क्या चार हज़ार ज्यादा लो "
"महंगाई बहुत ही बढ़ गई है"
"लेकिन salary तो नहीं बढ़ी ना"
"ठीक  हैं इस महीनेका पूरा सामान खुद ले आओ"
"ठीक  हैं"
"लेकिन एक शर्त पर"
"कौन सी" मैंने पूछा
"अगर आप पूरे  महीने का सामान बजट के अन्दर लाओगे तो में मेरा महीने का बजट  कम कर दूंगी" 
"अगर ज्यादा हुआ तो"
"जितना भी  ज्यादा होता हैं, उसमे और हज़ार रु और जोड़ देना"
"हज़ार बहुत ही ज्यादा हैं,थोडा और कम करो"
"फिर कितने"
"पांचसो उस से ज्यादा नहीं दे सकता"
"ठीक  हैं"
फिर हम दोनों में तय  हो गया.  महिने  सारा खर्चा कैसा  कम करने का  यह सोचते सोचते  जल्दी   निकल पड़ा   लंच टाइम में फ़ोन करके पुरे सामान  की सूचि बनाई.   मुझे लगने लगा की शायद मैंने जिम्मेदारी ली इस लिए  बड़ी लिस्ट मेरे हाथ में थमाई  हैं. यह सोचते सोचते में ऑफिस से सीधा  बिग बाज़ार में गया  और लिस्ट के मुताबिक सभी सामान ले आया   और मन मन में मैंने सोचा हज़ार रूपए तो बचाही लिया.
              फिर पेपर वाले का बिल  .केबल का ,लाइट बिल सभी का बिल चुकाते चुकाते में थक गया.  फिर भी मै खुश था की  थोड़े  रूपए तो बचा ही लिया    मुझे यह साबित करना था की तुमसे  कम रु  खर्च किये हैं.  जैसाही सप्ताह गुज़र गया फिर दूध वाला भैय्या आ टपका फिर मैने  उसका भी हिसाब चुकता किया. सब्जी वाले को बता रखा था की पुरे महीने का हिसाब  एक ही बार देयगा  और  हर रोज घर  में जो भी चाहिए होता दे देना.  मैं मन ही मन में सोच रहा था  की अभी तो  एकही  हप्ता बचा,  कुछ खर्चा नहीं होगा. मैंने जैसे ही घर में कदम रखा तो सब्जी वाला टपक गया .पध्रह सौ के आस पास उसका बिल था  फिर मैंने  वालेट  निकाला  तो उतने रु  नहीं थे. सब्जी वाले को  कल आके   ले जाने को कहा, क्यूँ की मेरी  जेब पुर खाली ही गई  थी.  अभी महीने के सिर्फ चार  दिन ही बच गए फिर मैने बीवी से पुछा
"कल मैं फिर से ATM जा रहा हूँ सब्जी वाले के सिवा और कुछ बाकी" इस बार मुझे दूसरी बार ATM जाना पड़ रहा था.
"LPG  गैस आने वाला हैं उसके लिए भी रु निकल लाना" उसने कहा.
और  दो दिन बीत  गए, अभी केवल दो   दिन बचे थे . गैसवाला सिलेंडर  ले आया  उसका भी बिल  चुकता किया . एक महिना गुज़र चूका  फिर हमने पूरा हिसाब किया  तो मैं हैरान रह गया क्यूँ की मेरे जेबसे तक़रीबन दो  हज़ार रु से भी ज्यादा खर्च हुये थे.
          अगला महिना शुरू हुआ, अब उसकी बारी थी, मैं मन ही मन में सोचने लगा पिछले महीने में  बीवी को दो हज़ार ज्यादा देता तो शायद ठीक होता.अभी मुझे बजट में दो हज़ार पांच सौ रु  ज्यादा बढाने  पड़े  हर घर की यही कहानी हैं. क्यूंकि  हमारी   सरकार और नेता लोग सो रहे हैं और आम आदमी  की फ़िक्र किसे.    अभी तो चुनाव का मौसम भी नहीं हैं. अगर हर साल चुनाव आता ती कितना अच्छा होता. हर चूनावके पहले महंगाई में कमी जरुर होती हैं. यही हैं  आम आदमी की जिंदगी  जो  महंगाई की चक्की में पिस रहा हैं. मुझे तो महंगाई मार गई ....

Sunday, February 14, 2010

MY NAME IS.....

                   दुनिया में सिर्फ दो तरह के लोग होते हैं  अच्छे और बुरे विचारधारा के , बहुत ही नेक सोच हैं इसपे   कोई दो राय  नहीं.     पिछले दस दिनोसे मैं येही देख रहा हूँ टीवि पर, नेट पर सभी जगह यही खबर थी इसके अलावा कुछ देखही नहीं  पाते  थे.   उनका नाम से क्या वास्ता कुछ भी तो  नहीं वैसा तो  शेक्सपियर ने कहा था  की नाम में क्या रखा हैं.  लेकिन हमारी राजनातिक पार्टियाँ पूरी तरह नाम पे ही निर्भर हैं नाकि काम पे.  शिवसेना ने सरकार को झुकाने ने के लिए मैदान  में उतरी थी यह कहकर की माय नेम इज ..... और दूसरी तरफ कांग्रेस के सी एम माय नेम इज ...... दोनों भी अपनी अपनी जिद पर इतने अड़ गए थे की किसका नाम आगे लायें इस महाभारत में सारी सरकार माय नेम के पीछे  खड़ी  थी ओ भी पूरी पुलिस फौज के साथ और इसके साथ ओ यह भूल गयी थी की शांति का संदेश  देनेवाली  माय नेम इज...  के बावजूद भी आतंकवादी हमला हो सकता हैं.  इसी बात का  फायदा  उठाकर आतंकीयों   ने पुणे ब्लास्ट को  अंजाम दिया था.  कौन हैं  इसके लिए जिम्मेदार? जहाँ कुछ निरपराध  लोग मारे गएँ और कई लोग घायल हुए. और उन घायलों को अस्पताल भर्ति किया गया सिर्फ इंसान के नाम पर या माय नेम इज  .....तो ही मुझे भर्ती करों, क्या कोई घायल ऐसा तो नहीं  कह रहा था.  मैं सभी मीडिया कर्मी और राजनितिक दलोंसे गुजारिश करना चाहता हूँ की आप मुंबई , मराठा मानुस और माय नेम इज ... को बक्श दो और देश की तरफ ध्यान दो और सोचो की आतंकवादी हादसों  से   किस  तरह निपट सके.

                 उन दिनों की बात हैं मैं मुंबई में रहा करता था और अभी भी मैं कभी कभी मुंबई जाया करता हूँ लेकिन मैं सौ प्रतिशत दावे के साथ कह सकता हूँ की मुंबई में लोग जितने सुरक्षित और एक हैं ओ दुसरे किसी शहर में नहीं हैं. लेकीन  हमारा मीडिया शायद मुंबई का नाम बदलकर TRP  ही रख दिया हैं.  क्या मीडिया को मुंबई के अलावा  दुसरा कोई शहर मिला ही नहीं.  कहते हैं भारत गांवो का देश हैं लेकीन  क्या हमारे मीडिया ने गांवो के तरफ भी कभी देखा हैं.   कई मराठी भाषिक मेरे दोस्त थे साथ में  UP और कर्नाटका और केरल से आये हुए बहुतसे लोग थे जो हम एक  साथ रहकर हमारा दुःख दर्द बाँटते थे और कभी कभी खुशियाँ भी.   उनके नाम अलग अलग थे रहन सहन अलग थे लेकिन दिवाली हो या ईद मुबारक बात देना कभी नहीं भूलते थे. और आज भी यही हालात हैं सिर्फ एक बात छोड़कर माय नेम इज.....

                       अब सोचने वाली बात यह हैं की बॉम्बे का नाम मुंबई हो गया लेकिन वहां कुछ भी नहीं बदला इस लिए मैं कहता हूँ की नाम पे जोर देंने  जरुरत नहीं क्यूँ की नाम से ज्यादा काम को महत्व देना चाहेयें. जिस काम से हमें दो वक्त की रोटी मिलती हैं और उसके साथ साथ हमारा नाम भी सलामत  रहता हैं. आप जब एक अजनबी शहर में जाते हैं तो आपका काम ही आपके नाम को सही सलामत रखता हैं.  आप किस तरह काम कर रहे हैं, क्या कर रहे हैं कैसे कर रहें हैं इससे ही अपने नाम को एक दिशा मिलती हैं. मेरा यह कहना नहीं हैं की नाम का कुछ भी  महत्त्व नहीं हैं.   नाम तो केवल  एक पहचान का चिन्ह हैं  समाज की इस वयस्था को बरकरार रखने का एक तंत्र हैं. जो की  हिसाब किताब रखने की एक व्यवस्था हैं.

                     एक दिन मैं मेरे मित्र को मिलने के लिए मैं एक होटल में गया था वहां के GUARD ने मुझे देखते ही सलाम किया मैं उसकी तरफ देखा तक नहीं फिर ओ बोल पड़ा " साहब  मुझे पह्चान लिया  क्या ? जब मैं उसका चेहरा देखा तो मालूम पड़ा की वह पहले हमारे ऑफिस में काम किया करता था लेकीन  नाम याद नहीं आ रहाथा. मैने कहा भाई मुझे आपका काम और चेहरा तो मालूम हुआ लेकिन नाम याद नहीं हैं. फिर उसने कहा " सर माय नेम इज...."

                  जब भी हम बहुतसे लोगोंसे या पुराने मित्रोंसे मिलते हैं तो सबसे पहले हमें उसका काम और चेहरा याद आता हैं. बाद में उसका नाम लेकिन हम नाम के बारेमें ज्यादा सोचते नहीं हमें सिर्फ वह क्षण याद आते हैं जो उसके साथ बिताएं हैं.  कभी किसी एक छोटेसे रेस्तरां में चाय या काफी के साथ मजे लिए थे यही सब कुछ. शायद ऐसे कई लोग होगे जहाँ पुणे के उस GERMAN BAKERY में अपनों के साथ  कुछ पल बिताने के लिए आये थे जो अपने  यादों के  सफ़र से हमेशा के लिए जुदा हो  गए   और अपनो का साथ छोड़कर  इस दुनियासे चले तो गएँ लेकिन  कुछ पल छोड़ गए  जो साथ में बिताएं हुये उस GERMAN BAKERY के साथ. ओ भी बिना बताएं  माय नेम इज...
 जीवन की लढाई लड़ते लड़ते  जो मर गए मैं उन्हें  शहीद कहकर प्रणाम करता हूँ और उनके परिजनोके दुःख में शामिल होता हूँ.