Sunday, July 29, 2012

धर्म-निरपेक्ष हैं


हम धर्म-निरपेक्ष हैं इस लियें सब सहते हैं
हम सब एक हैं, एक हैं, यही तो कहते हैं

बुरा ना देख, इस लिये आँखे बंद कर गएँ
देख नही सकते, वो जख्म बुलंद कर गएँ
अब आदत हो गई हैं यह दर्द सहने की,
कुछ भी करें, खून के आसूं तो बहते हैं

बुरा ना सुन, इस लियें कान ढक दियें
चीखे भी बंद हुई, अब दर्द भी पी लियें
अब अपनों का दर्द भी सुन नहीं सकते,
अपने ही देश में परदेशी की तरह रहते हैं 

बुरा न बोल, इस लियें बंद की हम जुबां 

बोल ना सकें, खुदबा खुद हो रहे हम कुर्बां 
जाँ हाथ लियें, बापू के क़दमों पे जाना  हैं,
फिर भी कहते की हम बापू के चहेतें हैं 

आज याद आते हैं, जो सूली पर चढ़ गएँ 

हमें इस धर्म-निरपेक्ष के हवालें छोड़ गएँ
इसी लियें तो वो इन्हें  ज़िंदा काट देते हैं,
हर जगह, जख्म लियें यह  करहतें हैं 

उतार दो यह  धर्म-निरपेक्ष का मायाजाल
जो धर्म को मानते,उनकी ही हैं एक चाल 
माध्यम हो या सरकार सबकी एक ही जात
एक धर्म कंधे पे, दुसरें को कुचलते रहते हैं

छाती पीटकर खुदको धर्म-निरपेक्ष कहलातें हैं
हम सब एक हैं, यही कहकर सबको बहलातें हैं
अब सड चुकी हैं यह धर्म-निरपेक्ष की दीवार,
निर्बल इटें, इमारतें यहाँ खुदबा खुद ढहते हैं  

अंधे, गूंगे और बहिरें बन बैठकर मरते हैं 

धर्म-निरपेक्ष कहकर वही पक्षपात करते हैं 
वो भूल नहीं सकते, हम क्यूँ भूलें वर्ण को,
चलो आवाज दो, आपसे यहीं  तो कहतें हैं   

Monday, July 16, 2012

बेटे का मोह


बेटा बेटी में भेद नहीं,  कर तू समांतर प्यार
लेकिन उसे लगता, बेटेसे सुख मिलेगा अपार

लगता हैं बेटे की जान में बसी उसकी जान
सबको बताता हैं, अब मिल गयी हैं पहचान
बेटी तो परधन, अब बेटा लगता सदाबहार
दिन या रात बेटे की तारीफ करता बार बार

दिन रात मेहनत करता, बेटे को पढाता   
काबिल बनाकर उसे आसमाँ  पर चढ़ाता  
सोचा था बेटा बड़ा होकर, लायेगा बहार
एक दिन चुकाएगा उसके प्यार का उधार

समय का चक्र बहुत ही तेजी से चलता 
कभी ख़ुशी तो कभी गम, जीवन ढलता
समय की होगी जीत,हारेगा उसका विचार
एक दिन धकेल देगा, जीवन को उस पार



वक्त के साथ साथ  बेटा और बेटी बड़ें हो गएँ
जब दोनोंहीं अब खुद के पैर पर खड़े हो गएँ
बेटी शादी के बाद, छोड़ दी सगे बाप का द्वार
माँ बाप को छोड़कर, घर को किया लाचार


बेटी तो पति के घर को अपना घर  मान ली
बेटेने शहरी हो कर वहीँ बसने की ठान ली
माँ बाप बेटे के चाह में, यादोँ की लेकर मार
पहले बेटें का, फोन का हैं अब इन्तजार

बीमार बाप बेटे की राह में जिंदगी जीता रहा
बेटे के याद में जहर जिन्दगी का पीता  रहा
बेटी दौड़ी चली आई थी, दिल पर लेकर भार
जो जी जान से करती थी माँ बाप से प्यार

बाप मर गया, जब बेटी  ने बेटे को बुलाया
व्यस्त था, अंतिम संस्कार को नहीं आ पाया
बाप के प्यार में, बेटी ने मचाया हाहाकार
चिता को अग्नि देकर, प्यार का किया इजहार

अब माँ सोच में पड़ी थी होकर मन में मग्न 
बेटे के लिएँ दूसरी को पेट में किया था भग्न
सोचती रही भगवान सब कुछ तेरा ही करार
शायद बेटा नहीं, बेटीसे करवाया दाहसंस्कार

अजब हैं यह दुनिया, जीने की एक रीत हैं
जिसे हम नहीं चाहते, वहीँ तो बसी प्रीत हैं
चाह की मत सुन, आस से मिलती हैं हार
फल की चाह में प्यार को मत बना मक्कार

Sunday, July 8, 2012

वक्त



जिंदगी जी रहा हूँ, लेकर एक  यादों का संसार 
पता नहीं कब थमेगी यह जिंदगी  की रफ्तार 

आज भी याद आते हैं वो बचपन के दिन
मैं पल भर भी नहीं रहता था तुम बिन

तुम्हरा वो हँसना , बात बात पर रोना
शाम में  स्कूल से निकलकर जुदा होना

एक ही बक्से में का खाना साथ में खाना
बोतल का पानी पिने के बाद छिडकाना

खेल खेल में दिन पर दिन बीत गएँ
यादों के साथ  हम समयसे जीत गएँ

फिर घूम फिरकर एक वक्त ऐसा आया
तकदीर भी मुझे उसी कॉलेज में ले आया

लेकिन तुमने कला में दाखिला लिया
मैं विज्ञान में तुब बिन किस तरह  जिया

मैं चाहता रहा, ब्लेक बोर्ड  में देखता रहा
पढ़ना था,  लेकीन प्यार ही सीखता रहा

अब जिन्दगी की नयी  किताब खुल गयी
मैं याद करता रहा, तुम मुझे भूल गयी

जब मेरे दोस्त ने, साथी के शादी में बुलाया
वहाँ तुम्हे किसी और की होते हुए दिखाया 

आज भी याद हैं, तुम्हारा पति जो होने वाला
शायद  उसके बाप का निकला था दिवाला

दहेज़ की मांग से पूरा लग्न पंड़प दहला था
लग्न मंडप से बिन ब्याहे, बेटे को ले चला था

उस वक्त मैंने  तुम्हारे पिता से  बात किया
और तुम्हे जीवनसाथी बनाने  में  साथ दिया

अब हमें ना किसी का डरख़ुशी से जी रहे थे
प्यार ही प्यार मेंजीवन का जहर पी रहे थे

पता नहीं था कुछ दिन इस तरह बीत गएँ
बेटे से प्यार में, लगता था जीवन जीत गएँ

वक्त युहीं गुजरता गया, बेटा भी बड़ा हो गया 
देखते देखते वह अपने पैरों पे खड़ा  हो गया

कुछ और दिन बीत गएँ, बेटा हमें छोड़ चला
विदेशी जीवन के लियें, हमारा दिल तोड़ चला

अब कभी फोन तो कभी चाट करता था
वो भी किसी पे दिल लगाकर मरता था

एक दिन जब उसने फोनसे  समाचार सुनाया
जब  वह एक विदेशी लड़की से ब्याह रचाया

वक्त ने अब अपनी रफ्तार की थी तेज
वक्त हमें फ़साने में बन चुका था तरबेज

याद हैं, तुम्हारी बेटे को देखने की चाहत
नसीब में नहीं था, ना मिली इसकी राहत

मैं बहुत ही रोया था, जब तुम मुझे विदा हुयी
अब तुम कब्र में सो गयी, मुझसे जुदा हुयी

इसी कब्र पर, मैं दिन रात तुम्हे याद करता हूँ
तुम्हे मिलने के लियें, जालिम वक्त से डरता हूँ

मैं भी आनेवाला हूँ, मेरा इंतजार कर लेना
यादों में जीकर, मुझे भी कब्र में भर लेना

वक्त की करवट ने रोक दी जीने की रफ़्तार
सोया कब्र में, अब नही किसीका इन्तजार 


Monday, June 11, 2012

बाकी है.....



जमीं तो बिक चुकीं , अब आसमान  बाकी  है।
सपने  तो बिक चुकें, अब  अरमान  बाकी  हैं।

यहाँ इंसानियत की कद्र नहीं, आदमी चलता हैं।
इंसानियत तो बिक चुकी, अब इंसान बाकी हैं।।

आप  सरकार नहीं,  सिर्फ गाड़ी चला रहें हैं।
जुर्माना तो बिक चुका,  अब चालान बाकी  हैं।।

ईमान  का वास्ता देकर, जीतते चलें आये हैं।
नाम तो बिक चुका, अब ईमान बाकी हैं।।

झूठा  सन्मान लिए, सर उठाकर चलते हैं।
सन्मान तो बिक चुका, अब अपमान बाकी हैं।।

हथियार बिना झगड़े तो हमने देख लिए  हैं।
हथियार तो बिक चुके, अब घमासान बाकी हैं।।

तूफान की गुंजाईश नहीं, मौसम तो ठिक हैं।
हवामान तो  बिक चुका, अब तूफान बाकी है।।

ज़िंदा लाश का सामान लिए हम यहाँ जीते हैं।
ताबूत  तो बिक चुके, अब सामान बाकी  हैं।।

जीताने की  एक आस लिए, फिर भी जी रहे हैं।
मत तो बिक चुकें, अब मतदान बाकी  हैं।।

चुनाव जीतने की चाह में,  कुछ भी करतें हैं।
जित तो बिक चुकी , अब अनुमान बाकी  हैं।।

भीड़ के शक्ल लिए, जीत का जश्न मनाते हैं ।
भीड़ तो बिक चुकीं, अब सुनसान बाकी  हैं।।

वासना के जंगल में, इज्जत भी बिक जाती हैं।
शरीर तो बिक चुका, अब विचारान बाकी  हैं।।

बड़ी ही  मेहनत से फुल पौधे खिला दिए हैं।
खुशबू तो बिक चुकी, अब  फूलदान बाकी हैं।।

तीर कमान हाथ में लिए निशाना लगातें  हैं।
तीरेंनिशाँ  तो बिक चुका, अब कमान बाकी हैं।।

समागम तो बिक चुकें, अब समाधान बाकी  हैं।
मंदिर तो बिक चुके, अब भगवान बाकी  हैं।




Tuesday, June 5, 2012

टीवी,बीवी और....



आज रवीवार यानि छुट्टी का दिन पुरे सप्ताह की थकान दूर करने का दिन. मैने जब टीवी ऑन किया और देखा की सभी न्यूज़ चैनल के  केंद्रबिंदु पर एक ही खबर छायी हुयी थी. रामदेव और अन्ना ने साजा अभियान में एक दिन का  अनशन जो की भ्रष्टाचार  के खिलाफ खोला था. मैं टीवी देखने में मग्न था. जैसा की उस आन्दोलन का एक हिस्सा हूँ.  उतने में बीवी ने आवाज़ दी.
"सुनो! सुबह सुबह टीवी देखते क्या बैठे हो? घर में पानी की एक बूंद नहीं हैं. पिछले पन्द्रह दिन से सीएमसी के नल में पानी नहीं आया और संप पूरा  सुख गया है. जाकर उस पानी वाले से पूछकर एक टेंकर पानी मंगवाकर संप भरवा लेना."
 जब मैं अपनी जगह से उठा नहीं तो हमारी धर्मपत्नी ने जबरदस्ती से मेरे हाथ में से रिमोट छीन लिया और चैनेल बदलते हुए कहा.
"भ्रष्टाचार मिटाने चले, यहाँ घर में पानी का एक बूंद नहीं हैं. चलो कुछ तो करो."
फिर मैं उठा, बैठ कर भी क्या करता, क्यूँ की अब रिमोट मेरी धर्मपत्नी के हाथ में था. अब टीवी भी उसीके इशारे पर नाच रहा था.  मैं चल पड़ा "जीवन" की तलाश में यानि की पानी सप्लाय करने वाले के पास. चलते चलते मन ही मन मे मैं यही सोचने लगा कि मुझे अब पता चला की रामदेव और अन्ना ने शादी क्यूँ नहीं की. अब मेरा अनुमान सही साबित हो रहा था इस लिए रामदेव और अन्ना इतने मग्न होकर अनशन करते हैं. इस"जीवन"से कोसों दूर थे. थोड़ी देर बाद मैं घर लौट आया तो बीवी ने चैनल चेंज करते हुए टीवी पर राज कर रही थी. टीवी देखते देखतेही उसने पूछा.
"क्या कहा पानी वाले ने ?"
"अब उसके पास भी पानी का स्टॉक नहीं हैं. हमें और दो दिन का इन्तजार करना पड़ेगा."
माथे पर तनाव लेकर उसने कहा 
"हे भगवान अब क्या करें? अन्ना और रामदेव ये भ्रष्टाचार का मुद्दा लेकर बैठे हैं. पानी का मुद्दा लेकर अनशन करते तो शायद ही कोई राहत तो मिल गई होती." 
मुझे रहा नहीं गया और में बोल पड़ा.
"क्या बात करती हों, उन्हें पानी के बारेंमें क्या मालूम, वो अभी तक कुँवारे  हैं." 
बीवी ने रिमोट मेरे हाथ में सौंप कर किचन में चली गयी। मैंने रिमोट हाथ में लेकर एक हल्किसी मुस्कराहट लिए टीवी ऑन किया और  का भ्रष्टाचार आन्दोलन देखने लगा. बीवी ने फिर से आवाज़ दी.
"सुनो टीवी क्या देख रहें हो?"  ऐसा कहतेही बिजली चली गयी और टीवी बंद हो गया. उसी के साथ साथ अन्ना और रामदेव का अनशन का लाइव कवरेज भी खत्म हुआ. जब टीवी बंद हुआ और दिमाग चलने लगा. मैं सोचने लगा क्या अन्ना और रामदेव का आन्दोलन भी इस बिजली की तरह तो नहीं जो आता और जाता हैं. इस आन्दोलन के बिच जो भी हलचल होती हैं, वही टीवी चैनल  हैं. लेकिन अभी तक यह पता नहीं चला की इसका रिमोट किसके हाथ में हैं. उतने में बीवी ने फिर आवाज़ दी.
"बिज़ली का बिल आया हैं."
"कितना आया हैं ?"
"दो सौ रुपये ज्यादा हैं"
"बिजली तो रहती ही नहीं फिर दो सौ ज्यादा क्यूँ? "
"जाकर पूछों उस बिजली वालोंको मुझे क्या पता."
उतने में बिजली आ गयी और टीवी फिर से चालू हो गया. बाहर सब्जी वाले का ठेला खडा था. बीवी  उसके पाससे सब्जिया लेकर आती हैं.
"सुनो ज़रा पांचसौ रुपये दे देना"
"क्यों महीने का बजट तो दिया हैं ना? फिर से पांचसौ रुपए?"
"हाँ मैं पैसे खा रही हूँ. देखते नहीं हो सब्जी की कीमते कितनी बढ़ी हैं. आप जो भी बजट दे रहे हो उसमें घर का खर्चा चलाना बहुत ही मुश्किल हैं.कभी कभी सब्जीयाँ भी लाया करो, फिर पता चलेगा की सब्जी का भाव क्या होता हैं."
मैंने बिना कुछ कहे है पांचसौ का नोट बीवी के हाथ में थमा दिया.
"महंगाई इतनी बढ़ गयी हैं की पता नहीं अब क्या होगा?" फिर पत्नी अपने पल्लूसे पसीना पौछ्तें  हुए बोली.  
"और एक बात इस सालसे सोनू की स्कूल की फीस बढ गयी हैं."
"हे राम! मुझे अब पता चला की रामदेव और अन्ना ने शादी क्यूँ नहीं की?"
"बस करो यह शादी का इससे क्या लेना देना हैं?"
"यह तुम नहीं समझोगी ज़रा चाय बना देना."
 
     फिर से बिजली चली गयी और उसीके साथ रामदेव और अन्ना टीवी स्क्रीन से गायब हुए. क्या भ्रष्टाचार के इस आन्दोलन से आम आदमी को कुछ मिलेगा? क्या इससे समाज में परिवर्तन आयेगा? क्या हम हमारी छोटी छोटी जरूरतें पूरा कर सकेंगे? जैसा की पानी, बिजली और सड़क आदी. इसके सिवा समाज एक वर्ग ऐसा हैं की जिन्हें दो वक्त की रोटी भी नसीब नहीं होती. अब सोचने वाली बात यह हैं की जिसे दो वक्त की रोटी नहीं मिलती वो इस आन्दोलन के बारेमें क्यूँ सोचेगा? उसे तो सिर्फ रोटी की तलाश हैं. इस रोटी के चक्कर में उसे इस आन्दोलन के बारे में सोचने का वक्त ही नही मिलता. ठीक इसी तरह मिडल क्लास के जो लोग हैं उन्हें तो उनके घर संसार की समस्या से फुर्सत कहाँ मिलती? अब सोचने वाली बात यह हैं की क्या समाज का यह हिस्सा भी पूरी तरह इस मुहीम का समर्थन दे पायेगा?  नहीं क्यूँ की इसमें से कुछ लोग इस मुहीम से जुड़ तो जाते हैं तो सिर्फ इसलियें की चलो आज रविवार हैं .इस लिए कुछ लोग चले आतें हैं.  अब सवाल हैं की अप्पर क्लास के लोगों का क्या? उन्हें तो कुछ पडा ही नहीं उन्हें इस आन्दोलनसे क्या लेना देना उन्ही के पास सब कुछ हैं. 
  अब हमें आम आदमी के बारें में सोचना हैं. यह आम आदमी हैं कहाँ? कहांसे आता हैं? समाज के कौनसे क्लास से आता हैं? क्या वह इस आन्दोलन में अपने आपको झुका देगा?                
   

      फिर से बिजली आ गई और फिर टीवी ऑन हुआ और फिर से वही लाइव शो दिखने लगा. लेकिन मैं यहाँ एक बात जरुर कहना चाहता हूँ की जो भी आन्दोलन हो उसका रिज़ल्ट जरुर आना चाहियें जो की हम आस लगाएं बैठें हैं. अगर यह आन्दोलन बेनतीजा चलता रहा तो एक दिन ऐसा आयेगा की आन्दोलन के नामसे लोगों को नफरत होने लगेगी. इस लियें यह जरुरी हैं की इसका कुछ नतीजा निकलें.

     बिजली के बिना टीवी नहीं चलता और रिमोट के बिना टीवी नहीं चलता. बीवी के बिना मैं नहीं चलता. अब सवाल यह हैं की रिमोट किसके हाथ में हैं. वो क्या देखना चाहता हैं? अब हमें यह सोचना हैं की हम टीवी में क्या देखना चाहते हैं?  जो हमारी आने वाली पीढ़ी का सुखद भविष्य या वही जिंदगी जो आप और हम जी रहे हैं. सोचो रिमोट आपके हाथ में हैं सिर्फ वक्त का इन्तजार करों और सही जगह पर सही चैनेल देखना हैं...... 

Sunday, September 25, 2011

"जादू की छड़ी"





(इस कहानी में दिए गए  सभी नाम और पात्र काल्पनिक हैं)
दिन भर की थकान लिए मोहन बिस्तर पर जा गिरा और मन ही मन खुश था की जादू की छड़ी के शब्द का उपयोग करके सबके मुह पे ताला लगा दिया यह सोचते सोचते मोहन की आंख लग गयी.  अचानक उसी  कमरे में बिजली जैसी  रौशनी चमककर  एक  आवाज़  आती  है. 



“जागो   वत्स  जागो.” 
"कौन  हैं !  कौन  हैं!"  मोहन  ने   आँखे  पूछते  हुए  कहा.
"मैं  ईश्वर."
"कौन  ईश्वर कौनसे पार्टीसे  आये हो ?"
"मैं  साक्षात  प्रभु  हूँ  यानि  भगवान."
"मेरा  तो  विश्वास  ही   नहीं  हो  रहा  हैं."
"वत्स मुझे  पता  हैं की  तुम्हें  क्या  चाहियें."
"क्या   भगवान?"
"जादू  की छड़ी." 
"आप को  कैसे  पता?"
"मैं सब  जानता  हूँ  मोहन."

"मुझे मालूम  हैं की तू  आजकल  बहुत  परेशान   रहता  हैं. रात  में ठीक  तरह  से  सो  नहीं पता. तेरे  साथी  और विरोधी  सभी  तेरा  उपयोग  कर  ले  रहे  हैं."


उतने में भगवान कान में रखी एक तीली निकालकर  हाथ में लेते  हैं उसे अपनी हथेली में रखकर मंत्रोचार करने  लगते हैं.

"इली मिली तीली बन जा छड़ी
होकर बड़ी बन जा जादू की छड़ी 
सबक सिखा सबको देखने पड़े घडी 
इली मिली तीली बन जा छड़ी "

देखते देखते ही वो तीली एक पीले रंग की छड़ी बन गई.मोहन यह  सब देखकर दंग रह गया और सोचमें पड़ गया. उसे रहा नहीं गया भगवानसे पूछ ही लिया.

"भगवन इसे अगर फिर से छोटी करना हैं तो ?"
"वत्स अगर इसे छोटा करना हैं तो यह मंत्र याद रखना इडी पीडी छड़ी बन जा तीली.अगर फिरसे उसे बड़ा करना चाहते तो इस मंत्र का प्रयोग करना इली मिली तीली बन जा छड़ी ."
"लेकिन भगवन इसका मैं क्या करू?"
"इससे तुम भ्रष्ठाचार और आतंकवाद पर काबू पा  सकते हो लेकिन याद रहे इसे पहले एक साल तक  एक ही काम के लिए इस्तमाल कर सकते हैं.जैसा की भ्रष्ठाचार बाद में इसका उपयोग आतंकवाद कम करने के लिए कर  सकते हैं.अब तुम्हे यह बताना हैं, तुम्हारी सबसे पहली प्राथमिकता क्या हैं और क्यूँ ?"
"मैं  सबसे  पहले भ्रष्ठाचार खत्म करना चाहता हूँ."
"ठीक हैं! मैं तुम्हे इसका उपयोग करने हेतु मार्गदर्शन करता हूँ."
"नहीं भगवान दूरदर्शन को मत बुलावो,मीडिया को पता चल गया तो वो बात का बतंगड़ बना देंगे."
"अरे मोहन मैं दूरदर्शन नहीं बल्कि मार्गदर्शन यानि की इस छड़ी का उपयोग कैसा और कब करे यह बताने जा रहा हूँ."  
"मुझे लगा आप दूरदर्शन के बारे में कह रहे हैं. लेकिन एक बात  सही हैं की दूरदर्शन तो हमाराही तो  चैनल हैं. "ठीक हैं आप बता दीजियेगा".   
"नियम एक -इस जादू की छड़ी का उपयोग करने  वाला इमानदार होना चाहियें और छड़ी  का  उपयोग  लोक कल्याण हेतु होना चाहिएँ."      
"लेकिन मैं तो  उतना इमानदार नहीं हूँ."
"तुम्हारा यह कहना ही एक ईमानदारी हैं इस लिए आप इस  जादू की छड़ी का बेहिचक इस्तमाल कर सकते हैं'
"ठीक हैं आप कहते तो  मैं इसका उपयोग लोक कल्याण के लिए जरुर करूँगा."
"अब ध्यान से सुनो इसका दूसरा नियम, आप इस  छड़ी का उपयोग जिस भ्रष्टाचारी पे करेंगे वह पूरी तरह कंगाल हो जाएगा और  उसका पूरा धन सरकारी तिजोरी में जमा हो जायेगा लेकिन एक बात का स्मरण रहे की वो भ्रष्ट हो. "
"लेकिन भगवन मुझे कैसे पता चलेगा की फलां आदमी भ्रष्ट हैं ?"
"वत्स इस जादू की छड़ी में एक ३.५ मी मी  का जाक दिया हैं इसमें मै मैक्रो फोन लगाकर वह छड़ी जीस भी इंसान पर घुमायेगा वह छड़ी बोल उठेगी की वो भ्रष्टाचारी हैं या नहीं."
"क्या मैक्रोफोन के अलावा दुसरा कोई रास्ता नहीं हैं?"
"और एक रास्ता हैं इस छड़ी को चार्ज करना पडेगा. इसके लिए कौनसा भी चार्जर चलेगा. जब भी यह छड़ी किसी भी आदमी पर घुमायेगा अगर छड़ी में से लाल रौशनी आएगी तो समझ लेना के वह व्यक्ति भ्रष्ट है. अगर  हरी बत्ती जलती हैं तो समझ लेना की वो इमानदार हैं. अगर वह आदमी भ्रष्ट निकलता हैं तो उसकी चल संपति जहां कही भी हो, किसके पास भी हो, देश में हो या विदेश में हो वो  सारी चल सम्पति  सरकारी खजाने में जमा होगी. लेकिन एक  और बात  उसकी अचल संपति जो पाप से बनायी गई हैं वह धीरे धीरे एक साल के अन्दर हाथ से चली जाएगी. किसके हाथ में जाएगी यह बताना मुश्किल हैं. लेकिन उसके अचल सम्पति का कुछ हिस्सा लोककार्य में जरुर लगेगा."
"यह तरीका ठीक लगता हैं".
"और आखरी शर्त इस छड़ी का उपयोग ३ महीने में एक बार तो जरुर करना चाहियं और हर तिन महीने बाद मैं खुद आकर परिक्षण करूँगा की इस छड़ी का उपयोग क्यूँ और कैसे हो रहा हैं. एक बात और तिन महीने तक इसका उपयोग नहीं हुआ तो यह छड़ी अपने आप गायब भी हो सकती हैं. क्या तुम्हे मेरी शर्तें मंजूर हैं?"
"हाँ भगवान् मुझे आपके शर्तें मंजूर हैं"
"इस  छड़ी से आप कौनसा भी रूप धारण कर सकते हैं.

              भगवान वह जादू की छड़ी मोहन के हाथ में देकर चले जाते हैं.मोहन ख़ुशी से उस छड़ी देखता ही रहता हैं. "इडी पीडी छड़ी बन जा तीली"  इस मंत्रोचार से उस छड़ी को तीली बनाकर जेब में रख लेता हैं. फिर से एक बार  जेब से तीली निकलकर फिर से मंत्रोच्चार करता हैं "इली मिली तीली बन जा छड़ी " फिर वह तीली छड़ी का रूप ले लेती हैं. यही प्रयोग कई बार करने के बाद उस  छड़ी  को चार्ज करने लगाता हैं. बेडरूम में फिरसे अँधेरा छा जाता हैं.मोहन बिस्तर पे लेटना ही चाहता था उतने में टेलिफ़ोन की घंटी बजती हैं. मोहन हडबडाकर कोने में रखा हुआ फोन उठाता हैं.

"हेलो कौन मैं मोहन."
"मोहन मैं पिछले आधे घंटे से तुम्हारा मोबाइल ट्राय कर रही हूँ क्या कर रहे हो?" दूसरी और से आवाज़ आती हैं 
"मैडम  जी बात यह हैं की फ़ोन की बैटरी खत्म हो गई हैं"
"मैंने  तुम्हे इस लिए फोन किया हैं की, आपने अपने भाषण में ऐसा क्यूँ कहा की हमारे पास कोई जादू की छड़ी नहीं हैं की जिससे  हम भ्रष्ठाचार कम कर सके."
"आपको कैसे  पता की मेरे पास जादू की छड़ी हैं ?"
"मैं तुम्हारे भाषण के बारे में बात कर रही हूँ जादू की छड़ी के बारेमें नहीं. "
"मैडम अब आपको चिंता करने की जरुरत  नहीं हैं. क्यूँ की अब मेरे पास जादू की  छड़ी आ  गयी हैं"
"क्या बक रहे हो ? नशे  में हो क्या ? अब मैं तुम्हे सुबह मिलूंगी अब मैं फोन रखती हूँ "

              दुसरे दिन सुबह मोहन जादू की छड़ी लेकर मैडम के पास  जाकर मैडम को पूरी हालात से अवगत करवाते हैं.इसके बाद मैडम अपनी पार्टी के सभी अहम नेताओं को बुलाकर उस जादू की छड़ी के बारें में बता देती हैं और सभी को निवेदन करती हैं की अपना अपना फैसला सुनाएँ.

कपिल बोलने लगते हैं - "सबसे पहले हमें इस छड़ी का उपयोग किसी एक भ्रष्ट पे अजमाने के बाद ही मैं इसके बारे में कुछ बोल पाउँगा."
"चलो फिर पहले तुम्हे ही मौका देते हैं"  मोहन ने कहा.
"मोहन! यह तो अपने पक्ष के हैं"मैडम ने कहा.
"फिर हम इस छड़ी का प्रयोग किसपे कर सकते हैं." मोहन ने मैडम से पूछा.
"किसी  ऐसे  व्यक्ति को ढुन्ड़ो की साप भी मरे लाठी भी ना टूटे" कपिल ने कहा. 
"सबसे पहले सुरेश पर अजमा कर देख लेते हैं" मोहन ने कहा .
"कौन सुरेश"कपिल ने पूछा .
"वही जो तिहार जेल में हैं" कपिल  ने कहा.
"लेकिन तिहार में जाएगा कौन? अगर विपक्ष को इसकी भनक लग गयी तो." मोहन ने कहा.
"मैं जाउंगा तिहार जेल." कपिल ने कहा.
"लेकिन इस जादू की छड़ी को चलाने वाला इमानदार व्यक्ति होना चाहियं." मोहन ने कहा.
"फिर तो आप ही जा सकते हैं." कपिल ने हसते हुए कहा.
"ठीक हैं मैं ही जाकर अजमाता हूँ और मैं कल ही यह काम करूंगा, क्यूँ की मैं इस जादू के छड़ी से कौनसा भी रूप धारण कर सकता हूँ." मोहन ने कहा.

                इसी तरह सबकुछ तय हो गया फिर दुसरे दिन सुबह ही मोहन ने जेलर के  वेश में तिहार पहुँच गया. मोहन ने सुरेश के वार्ड में जाकर अपने जेब में से एक तीली निकलकर हाथ में पकड ली सुरेश कुछ कहने से पहले ही वह तीली एक छड़ी बनकर मोहन के हाथ में आयी और देखते देखते ही मोहन ने वह छड़ी सुरेश पे घुमाई और छड़ी में से लाल रौशनी आयी फिर से मोहन मंत्रोचारसे उस छड़ी को जेब में रखकर वहांसे चल दिए. सुरेश को पता ही नहीं चला की जेलर ऐसी हरक़त क्यूँ कर रहा हैं. मोहन को एक बात समझ  नहीं आ रही थी की सुरेश के बाजु में राजा क्यूँ खड़ा था.शायद इस लिए छड़ी में दो बार लाल रौशनी आयी होगी. 

              अब मोहन के चेहरे पे एक अजीब से ख़ुशी झलक रही थी. मन ही मन में यह सोच रहा था की जिंदगी में कुछ तो अच्छा काम किया हैं.  सोचते सोचते मैडम का घर कब आया इसका पता भी नहीं चला.  वहा सभी वरिष्ठ साथी उनका इन्तजार कर रहे थे.

"क्या कैसा रहा प्रयोग?" कपिल ने पूछा.
"ठीक रहा" यह कहते कहते मोहन मैडम के सामने बैठ गए.

            उतने में कपिल के फोन की घंटी बजी .कपिल बात करते करते बाहर  चले गए फोन से बातचीत होने के बाद पसीने से लाल होकर आ गए.

"क्या कपिलजी क्या हुआ? इतना पसीना क्यूँ ? क्या अन्ना ने फिर से अनशन की धमकी दी हैं?" तिवारी ने मुस्कुराते हुए कहा.
"नहीं स्वीज़ बैंक से फोन था हमारे खाते में सी बहुतसी जमा पूंजी  गायब हुयी हैं." कपिल ने पसीना पूछते हुए कहा.
"लेकिन यह कैसे संभव हैं? मैंने तो छड़ी का उपयोग सिर्फ सुरेश पे किया था." मोहन ने कहा.
"जो जमा पूंजी हमारे खाते से गायब हुयी हैं वह हम सुरेश के जरियेही  कमायी थी." कपिल ने कहा.

          थोड़ी ही देर में सभी के फोन की घंटिया एक साथ बजने लगे सब लोग अपना अपना फोन लिए बाहर  जा कर बात करने लगे. पता चला की सभी खातोंमें से बहुत सारी रक्कम गायब थी. सभी सदस्य समझ  चुके थे की यह छड़ी तो जनलोकपाल से वस्ताद निकली. 

"अब से इस छड़ी उपयोग नहीं होगा."  कपिल ने कहा.
"लेकिन मैं भगवान् से क्या कहू?" मोहन ने पूछा.
"आप भगवान्  कह दो की यह छड़ी का उपयोग करने के लिए अभी तक अप्रोवल नहीं मिला क्यूँ की यह छड़ी  विचाराधीन हैं. ऐसा कहते कहते तिन महीने का वक्त काट लो फिर यह छड़ी गायब हो जाएगी" तिवारी ने कहा."

      कुछ दिन और बीत गए. एक दिन मोहनने फोन करके  मैडम को बता देता हैं की जादू की छड़ी गायब हो गयी. यह बात सुनकर सभी सद्स्योनें राहत की साँस  ली. 

   "हमारे पास कोई ऐसी  जादू की छड़ी नहीं हैं की इस देश को  भ्रष्टाचार से  मुक्त कर सके" यह बात वो बार बार दोहराते हैं, और आज भी उन्होंने यही कहा   कैमरामन  "हरी" के साथ "भगवान" "सत्य लाइव से ..... "




Sunday, July 31, 2011

जीतें हैं हम यहाँ......


जीतें हैं हम यहाँ जीने की एक  आस लिए !
जिंदगी  में अटकी अपनी एक सास लिए !!
 

आज नहीं तो कल की एक सोच लिए !
ढुन्डते सुकून को एक नया अहसास लिए!!
 

घर से जब बाहर  निकलते रोज़ी के लिए !
जीते हैं जैसें की चलती फिरती लाश लिए !!

इंसानी जान की कीमत की कीमत लिए !
खेल लेते हैं वो अपना दावं एक ताश लिए !! 

उन्हें कुछ गम नहीं जीते हैं वो अपने लिए !
जुबान चलातें हैं कुछ पाने की तलाश लिए !!

हादसे रोक नहीं सकते, जाँ  की कीमत लिए !
मरते हैं इस हमलें में, जान अपने पास लिए !!

बेपरवाह होकर जुबान चलाते कुछ पाने के लिए !
खूनका कीचड़ उछालते हाथ में एक पाश लिए !!

बेशर्म  मांगने आते हैं हात में  कलश लिए !
फिर से कुर्सी पर बैठने का एक रास लिए !!

Thursday, June 9, 2011

जंतर मंतर.... छू मंतर ...



हमें कभी राजघाट तो  कभी  जंतर मंतर  
तो कभी रामलीला भी  रात को  छू मंतर 
कभी अन्ना के साथ
कभी बाबा के साथ
कभी उसी नेता के साथ 
तो कभी अपने साथ 
दगा करते हैं 
बड़ी बड़ी बाते करते हैं 
यह सोचते सोचते 
मैंने सिग्नल तोड़ दिया 
और पुलिस से जोड़ लिया 
निकालो दो सौ 
मैंने बिल बनाया हैं 
यहाँ साइन करो 
और दो सौ भरो 
मैंने कहा थोडा कम करो 
यह बहुत ज्यादा हैं 
बिल को  ज़रा दूर करो 
पचास हात में धरो 
उसने कहा बिल फाड़ दिया हैं
देखो उसमे और दस जोड़ दिया हैं 
उसने सच में बिल को फाड़ दिया 
फिर मैंने कहा अरे यह क्या किया 
डरो मत यह बिल भी नकली हैं 
इसे साहब ने बनाया हैं 
इस लिय, 
मैंने साहब  को बनाया हैं 
साला धोका  देकर लुटा 
चलो अब पीछा तो छुटा
घर आकर सोच में पड़ गया
मन  की आवाज़ पे  अड़ गया 
मेरी वजह से एक और बढ़ गया
जब मैंने टीवी खोल दिया
भ्रष्टाचार पे  वो बोल दिया
अन्ना के बाते सताने लगी
एक नयी राह बताने लगी 
भ्रष्टाचार को मिटाना हैं 
नहीं तो खुद को मिटाना हैं 
ऐसा अन्ना बोलते रहे 
बात पे बात खोलते रहे 
हमें फिर से पकड़ना हैं जंतर मंतर 
इस भर्ष्टाचार को करना हैं छु मंतर 


Wednesday, April 27, 2011

तुम मुझे भुला देना....




तुम मुझे भुला देना सुबह के अखबार की तरह !
तुम मुझे भुला देना तेज समाचार की तरह !!

तुम मुझे वोट देकर, एक राजनेता की तरह !
तुम मुझे भुला देना एक मतदार की तरह !!

तुम मुझे देश भक्त कहकर,एक सरफ़रोश की तरह !
तुम मुझे भुला देना एक शहीद सरदार की तरह !!

तुम मुझे अभिनेता कहकर, एक नायक की तरह !
तुम मुझे भुला देना एक फिल्मी किरदार की तरह !!

तुम मुझे रास्ता दिखाकार, एक मार्गदर्शक की तरह !
तुम मुझे भुला देना एक सही सलाहगार की तरह !!


तुम मुझे मौसमी मिजाज देकर,एक हवा की तरह !
तुम मुझे भुला देना एक खुशबू सदाबहार की तरह !!

तुम मुझे सच्चाई दी, जिनेकी एक चाह की तरह !
तुम मुझे भुला देना एक पाक इज्जतदार कि तरह !!

तुम मुझे उपहार से सजाया, एक सुंदर वस्तू की तरह !
तुम मुझे भुला देना एक सुशोभित अलंकार की तरह !!

तुम मुझे सहारा दिया, एक अंगरक्षक की तरह !
तुम मुझे भुला देना एक नेक पहरेदार की तरह !!

तुम मुझे एक साहस दिया, एक कहानी की तरह !
तुम मुझे भुला देना एक कवी रचनाकार की तरह !!

तुम मुझे खूब नचाया, एक कटपुतली की तरह !
तुम मुझे भुला देना एक नौटंकी कलाकार की तरह !!

तुम मुझे अस्थीर किया, एक सही बरकरार कि तरह !
तुम मुझे भुला न देना एक मजबूर लाचार कि तरह !!


Wednesday, January 26, 2011

मेरा भारत महान..



सिर्फ कहने को हैं मेरा भारत महान 
देश तरफ कोई भी नहीं देता ध्यान
यहाँ नेतावों का बढ़ता हुआ भ्रष्टाचार
देश को चख रहे जैसा "आम" का अचार 
अब  देश में यही बना हैं एक वरदान
सिर्फ कहने को हैं मेरा भारत महान 

हर रोज़ निकलता हैं एक नया घोटाला 
कैसे बंद होगा यह, कैसे लगेगा ताला 
महंगाई के तले डूबा हुआ हैं हर इंसान 
सिर्फ कहने को हैं मेरा भारत महान 

प्रजातंत्र  मनाते हैं उत्साह और शानसे 
तिरंगा फहराते  नेता अपने अपने मानसे
मिटेगा भ्रष्टाचार तो ही होगा सन्मान  
सिर्फ कहने को हैं मेरा भारत महान 

कितने ल़ोग येहाँ भूखेही सो जाते हैं
नेता माल खाकर प्रजातंत्र मनाते हैं 
जागो, हमें रखना होगा तिरंगे का मान
तब शान से कहेंगे मेरा भारत महान 

Friday, December 31, 2010

नया साल आया....


चलो एक और नया साल आया
सिर्फ नयी कीमतों का माल लाया

समझ लो इस समय की धार को
समझ लो इस महंगाई के मार को
सब्जी के दाम में एक उछाल लाया
चलो एक और नया साल आया

इस मार से हम पल पल मरते हैं
चलो अब कुछ नया सोचा करते हैं
बस कम हो दाम, जो भूचाल आया
चलो एक और नया साल आया

दुआ करें और कीमतें ना बढे 
शेर मार्केट हर रोज उप्पर चढ़े  
नया समय, नया सुर ताल लाया 
चलो एक और नया साल आया

मुबारक हो तुम्हे यह नया पल 
दुआ रहें, खुश रहो आज और कल
यह पल भी एक नयी चाल लाया 
चलो एक और नया साल आया

Saturday, October 23, 2010

शुभ हो दिवाली...


आज जरुरत हैं एक "राम" की
मनानी  हैं दिवाली उस काम की

हर जगह "रावण" मिलते है,
"सीता" को देखकर हिलते हैं
रक्षा करे "सीता" के नाम की
आज जरुरत हैं एक "राम" की

हर जगह फैले हैं यह असुर
बेकाबू दौड़ रहे हैं होकर बेसुर
जरुरत हैं असूर को लगाम  की
आज जरुरत हैं एक "राम" की

गली गली में अँधेरे का  शोर हैं
रौशनी को बनाना चितचोर हैं
राह दिखानी हैं एक अंजाम की
आज जरुरत हैं एक "राम" की

मन के हर घर में हो उजाला
हर घर में हो दीपक की माला
तलाश हैं एक घनी शाम की
आज जरुरत हैं एक "राम" की

मन में लेकर प्रकाश की आशा
दीपक जल उठते हैं हर दिशा
शुभ हो दिवाली इस आम की
आज जरुरत हैं एक "राम" की

Saturday, September 25, 2010

हरे और सूखे पत्ते

इंसान का जीवन भी हरे और सूखे पत्तों की तरह हैं. जब सबकुछ हरा होता हैं सब लोग आपके साथ होते हैं यानि की सुख में सब आपके साथ होते हैं लेकिन दुःख में कोई आपके साथ नहीं होता |



 
पेड़ के निचे  गिरे हुए पत्तों पे  झुककर
हसतें हैं हरे पत्ते, सुखे पत्तों को देखकर 

शायद  उन्हें पता  नहीं  उस दिन का
अंदाज नहीं कर पाते हैं उस क्षण का
एक दिन निचे गिरेंगे वो भी सुखकर
हसतें हैं  हरे पत्ते, सुखे पत्तों को देखकर
 
हवा के साथ मिलकर मस्ती में जीते हैं
जहर जिंदगी का मस्ती में वो पीते हैं
जैसा की बैठे हैं  झूले में मजे ले लेकर
हसतें हैं  हरे पत्ते, सुखे पत्तों को देखकर



यहाँ रोने वाले का ना कोई साथ देता
उन्हें अपने साथ साथ कोई नहीं लेता
हवा भी उड़ा देती उन्हेंही  लात मारकर
हसतें हैं  हरे पत्ते, सुखे पत्तों को देखकर

बारिश का पानी भी उन्हेंही नहलाता हैं
हसने वालें  दिल को ही बहलाता हैं
और इन्हें ले जाता हैं धक्का दे देकर
हसतें वो हरे पत्ते, सुखे पत्तों को देखकर


उन्हें पता नहीं, सूरज की  धार का
उन्हें पता नहीं, रौशनी की  मार का 
यही हाल होगा एक दिन निचे गिरकर
हसतें वो हरे पत्ते, सुखे पत्तों को देखकर 

Thursday, September 23, 2010

कॉमन का कॉमन वेल्थ

मैं "कॉमन" हूँ इसलिए सब कुछ सहता हूँ
इस लिए तो आसुओं  के पानी में बहता हूँ

हाल अपना किसे कहे, अलग हैं उनकी चाल   
नेता ल़ोग मस्त हैं लूटकर "कॉमन" का  माल
मैं तुम्हे बार बार पुकार कर यही कहता हूँ
मैं "कॉमन" हूँ इसलिए सब कुछ सहता हूँ

देश की इज्जत को भी दांव पर लगाते हैं
"कॉमन वेल्थ"  से ही " कॉमन" को ठगातें हैं
"सीमेन्ट"की पुल की तरह मैं भी यहाँ ढहता हूँ
मैं "कॉमन" हूँ इसलिए सब कुछ सहता हूँ

ल़ोग यहाँ  रोटी की तलाश में रह जाते हैं
लेकिन नेता  ल़ोग यहाँ सब कुछ खाते हैं
"कॉमन वेल्थ" की चिंता दिन रात करता हूँ
मैं "कॉमन" हूँ इसलिए सब कुछ सहता हूँ

हर शहर का हाल भी यहाँ  ही बेहाल हैं
हर सडक में गड्डो की एक नई मिसाल हैं
क्या होगा इस देश का, सोचकर डरता हूँ
मैं "कॉमन" हूँ इसलिए सब कुछ सहता हूँ

सोचता हूँ, मुझे भी चुनाव का वक्त आयेगा
"कॉमन" क्या करेगा तु सोचता रह जाएगा
तुझे मारना हैं इस लिए आज मैं मरता हूँ
मैं "कॉमन" हूँ इसलिए सब कुछ सहता हूँ

Tuesday, August 24, 2010

स्वंयरक्षा ही सुरक्षा

बंगलूरु एक बहुत ही तेजीसे बढ़ने वाले शहरों की दौड़ में शामिल हैं। आजसे दस साल पहले हैदराबाद के पीछे था। लेकिन अब जनगणना के अधार पे यह भारत का तीसरा बड़ा शहर माना जाता हैं। यहाँ हर रोज नए माँल और नए टावर्स खड़े होते हैं। हर टावर्स में कई ओफिसेस होते हैं। जैसा की कालटर्न टावर जो पुराने एअरपोर्ट रोड पे आता हैं। २३/०२/१० मंगलवार शाम चार बजे के आसपास जो हादसे ने एक नया मोड़ लीया था और हमारी सुरक्षा को ही कटघरे में खडा किया था। जहाँ हमारे जीवन की गाड़ी चलाने के लिए रोज आफिस जाते हैं लेकिन वहाँ हम कितने सुरक्षित हैं? क्या बहुमंजिला इमारतों में ऐसी कोई सुविधा नहीं हैं की हम आपातकालीन परिस्थिति में बहार आ सके। अगर सुविधा हैं तो लोगों को सातवी मजिल से कूद कर जान देने की नौबत क्यूँ आयी? और इस हादसे में नौ लोग मारें गए थे और तिस लोगों की हालत गंभीर थी और कई ल़ोग अस्पताल में दाखिल हुए थे। ना जाने ऐसे कई ल़ोग होंगे जो अपने बच्चों को या अपने चाहने वालों को यह बताकर आये होंगे की शाम को ऑफिस से घर जल्दी आया करूँगा । लेकीन उनकी शाम कही रुक गई थी। चाहने वालोंके सपने भी चूर चूर हो गए थे। क्या इस हादसे के लियें कौन हैं जिम्मेदार ? यह सवाल भी एक पहेली से कम नहीं।

तक़रीबन दस साल पहले की बात हैं। एल्क्ट्रिक शार्ट सर्किट की वजह से हमारे कंपनी में आग लगी थी और वह आग कुछ केमिकल की वजह से ज्यदाही फ़ैल गयी थी। सभी ल़ोग इधर से उधर भाग रहे थे क्यूंकि वहाँ इतना धुवा फैला था की कुछ भी ठीक तरह से दिखाई नहीं दे रहा था और पुरा प्यासेज धुवे से भर गया था जिससे साँस लेने में दिक्कत आ रही थी। आग के उस पार चार ल़ोग फसे थे। हमारा मुख्य उद्देश यह था की उन चार लोगोंको बचाना। मैंने बड़े ही सहास के साथ एक Fire extinguisher उठाया और बढती हुयी आग को काबू किया और हमारे कुछ सथियोने खिडकियोंके तोड़ कर धुवे को बहाव को कम किया था। उन चार लोगोंको बचा लिया था। यह सब होने के बाद fire brigade के कर्मचारी आयें और बुझे हुए आग पर पानी डालकर चले गए। यह एक हकीकत हैं जिस अनुभव से मैं गुजर चुका था। बाद में मुझे कंपनी से एक अवार्ड भी दिया गया था। यह बताना मैं इसलिए जरुरी हैं की आग लगने के बाद अन्दर हालात किस तरह बेकाबू हो जाते हैं और उस हालात में हम क्या कर सकते हैं।

इस घटना के मद्देनज़र कुछ सुरक्षा के उपाय बताना चाहता हूँ।
१) अपातकालीन दरवाजे या खिड़की पर ताला ना लगाएं और संकेतपत्र जरुर लगाए उस संकेतपत्र पर emergency exist लिखा होना चाहिए सभी संकेतपत्र लाल या हरे रंग में होने चाहियें।
२) आपात कालीन द्वार की ओर जाने के लिया दिशा दर्शक फलक जरुर लगाएं।
३) अपघात या आगजनी की घटनासे लोगोंको अवगत करने के लिए Fire siren लगायें। आपतकालीन स्थिति में ल़ोग इकट्ठा होने के लिए एक निश्चित जगह होनी चाहिए। आपातकालीन स्थिति में कैसे बहार आयें इसका प्रशिक्षण देना चाहियें।
४) कौन से समय में कौनसा Fire exitingusher का इस्तमाल करना चाहिए क्यूंकि बिजली से लगी आग पर पानी वाला Fire exitingusher नहीं चलाना चाहियें और इसका प्रशिक्षण नियमित अंतराल से देना चाहियें।
५) सुरक्षा के लिए एक समिति बनानी चाहियें जो इसका नियमीत अंतराल में प्रशिक्षण दे सके। और सभी नियमित अन्तराल से लेखापरिक्षण करना जरुरी हैं।

जिंदगी के सफ़र को ज़िंदा रखने के लीय हम काम करते हैं, जहाँ हम काम करते, उसेही हमें कर्मभूमि समझ कर कुछ सुरक्षा उपयों को ध्यान में रखे और अपनी सुरक्षा स्वयं करे। स्वंयरक्षा ही सुरक्षा हैं।

Friday, July 30, 2010

अन्दर के तीन बन्दर....

नेता लोग ऐसा क्यूँ करते हैं ?
संसद भवन सर पे लेकर नाचते हैं
कभी कूदते हैं,
चिल्लाते हैं,
"बन्दर" की तरह उछलते हैं
कभी तोड़ फोड़ तो कभी माइक उठाकर
मारने दौड़ते,
कभी अपनेही साथियों को कुचलते हैं

कभी कभी तो लगता हैं
क्या  यही लोग देश को चलाते हैं ?
क्या होगा  इस पद के गरिमा का
सन्मान या,
अपमान,
क्यूँ इस  पद के गरिमा को रुलाते हैं ?
जब "गांधीजी" उप्पर से देखते होगे
और तरसकर यह कहते होगे
क्या इस लिए ही मैं इन्हें
आजाद किया था
यह वाकया देखकर, हैरान रहते होंगे
कभी कभी वो,  यह भी  सोचते होगे 
गलत हो गया,
इंसान की जगह "बन्दर" को चुनकर
बुरा मत सुनो,
बुरा मत देखो,
बुरा मत कहो,
अगर रखता एहां "इंसान" को चुनकर
शायद बन्दर सी हरकते रुक गई होती
उछलना,
कूदना,
फिर बन्दर सी चाल भी
इन्ही  के सामने झुक गई होती
यहाँ की  जनता सब कुछ देखती फीर भी
अपनी आँखे  ढक देती हैं
और नेता लोग, जनता की  यह
पीड़ा देखकर  आँखे ढक लेती  हैं
यहाँ तो जनता सब कुछ सुनकर भी
कुछ भी तो नहीं कह पाती
जनता ने  आवाज़ निकाली तो भी वह
नेता को सुनाई नहीं देती
यहाँ  जनता को जरुरी नहीं
बंद करना जुबान,
यहाँ तो सिर्फ नेता ही बोलते हैं
जनता कुछ भी तो नहीं  बोल पाती
फीरसे,
हर बार,
कुर्सी उन्ही के नाम हो जाती
अब हमें लगने लगा हैं की
वह  उपदेश,
सिर्फ जनता के लिए था
इस लिए नेता ल़ोग बेफिक्र थे
क्यूँ की
उपदेश ना की नेता के लिए था

Monday, July 5, 2010

भारत बंद!

बंद के नाम से देश के धन को क्यूँ जला रहे हैं यहाँ
जिम्मेदार ही  जिम्मेदारियों को क्यूँ भुला रहे हैं यहाँ

एक ही जात के राजनेता महंगाई रोको कहकर यहाँ
महंगाई के पिस्तोल से  गोलीयाँ क्यूँ चला रहे हैं यहाँ

अभी तक पता नहीं उनका, कई वादे कर गये यहाँ
आखिर उन्ही को हम सत्तासुख क्यूँ दिला रहें यहाँ

महंगाईके मारसे दबकर मरे हुए लगते हैं सब  यहाँ
उन्हीको मुर्दा समझकर अंतपे क्यूँ सुला रहे है यहाँ

महंगाई के पहाड़ सी सरकार हिलाना भी बेकार यहाँ
बंद के एक छोटे किलेसे पहाड़ क्यूँ हिला रहे हैं यहाँ  

दाल सब्जी  के दाम भी आसमान  को छू चुके  हैं यहाँ
पेट्रोल और डिजल के आंसुओंसे क्यूँ रुला रहे हैं यहाँ

इस दूषित हवा को भी बेचने के लिए ही बैठे हैं यहाँ
हर सांस के साथ कडवा जहर क्यूँ पिला रहे हैं यहाँ
 

भारत बंद! भारत बंद! यही नारा क्यूँ झुला रहे हैं यहाँ
जाम कहकर, चक्का वोटों की तरफ क्यूँ चला रहे हैं यहाँ

Thursday, May 27, 2010

बेटा या बेटी -३

(अब तक आपने पढ़ा की रोहन को दूसरी बेटी होती है. माँ को बेटी होना पसंद नहीं इस लिए फ़ोन काट देती हैं.दूसरी बेटी जन्म के तुरंत बाद ही वह प्लानिंग करता हैं यह बात किसी को बताता नहीं . राकेश की माँ यह सलाह देती हैं की मशीन  (सोनोग्राफी) द्वारा परिक्षण के बाद ही उसें पोता मिला था इस लिए रोहन भी वैसाही करें.  रोहन पत्नी और बच्चे के साथ आपनी बेटी का पहला जन्म दिन मानाने गाँव चले  जाते  हैं. वहां उसका बचपन का दोस्त रमेश मिलता हैं. रमेश पांच बेटियों के बाद बेटा पाने के लिए दूसरी शादी करना चाहता हैं.  रोहन के  बापू को मालूम पड़ता हैं की रोहन ने दो बेटियों के बाद  संतान रोकने का आपरेशन किया हैं इस लिए  उन्हने रोहन के सामने दूसरी शादी का विकल्प रखते हैं ताकि पोता पा सके . बेटी का पहला जन्म दिन मनाने का सपना अधूरा छोड़ कर रोहन बपुजिके फैसले का विरोध कर गाँव से निकल पड़ता हैं .... और आगे ...)
भाग -3


           रोहन को चार  दिन बाद  ऑफिस ज्वाइन करना था इस लिए बिस्तर पर लेटे लेटे ही अख़बार पड़ रहा था उतने में रेवती ने  आवाज़  दी.
"सुनो हम अर्चना का जन्म दिन गाँव में मना नहीं सके लेकिन हम एहां तो मना सकते हैं ना"
"हम कल उसका जन्म दिन यहीं पर   मनाएंगे"
"ठीक हैं सिर्फ राकेश  चम्पा और माँ जी  को ही बुला लो"
"और साथ में उनके बेटियों को भी बुला लेंगे".
 "ठीक हैं"
और समय के साथ साथ सब तय हो गया केक लाया गया और पड़ोस के कुछ बच्चों को भी बुलाया गया केक काटकर शहरी परम्परा से अर्चना का जन्म दिन का कार्यक्रम का समापन हो गया. माँ के आलावा राकेश के घर से सभी लोग उपस्थित थे लेकिन रोहन रहा नही पूछ ही लिया की माँ के अनुपस्थिति की वजह क्या हैं? राकेश ने कहा फिलहाल माँ घर में नहीं हैं ओ अपने एक रिश्तेदार के एहां चली गयी हैं. राकेश ने आगे कहा
"यार अर्चना का जन्म दिन तो १९ को था बी २१ को कैसे"
"उसके लिए एक लम्बी  कहानी है फिर कभी"
"अरुण का जन्म दिन कैसा हुआ"
"बहुत बढ़िया एक बड़े होटल में तक़रीबन ४०० लोगोंको आमंत्रित किया  था. मेरी पहली बेटी का जन्म दिन भी इतने धूम धाम से नहीं मनाया था.रोहन तुम होते  तो और भी मजा आता"
"बहुत बढ़िया"
"अच्छा रोहन मैं चलता हूँ"
राकेश के जाने के बाद  रोहन सोच में पड़ गया की समाज में ऐसे कई लोग हैं जो बचपन से ही बेटा और बेटीके  पालन पोषण में इतना बड़ा फासला बना देते हैं की यह सब देखकर भगवान को  भी कभी कभी बेटी बनाने के गलती का अहसास होता होगा. हम बचपनसे ही बेटी को पराया धन कहकर उसके मन में बिठा देते हैं की यह घर उसका नहीं हैं. इस घर पे केवल बेटे का ही अधिकार हैं.

          एक दिन रोहन ऑफिस से निकलने के लिये तैयार हो ही रहा था उसे खबर मिली की बहार रीशेपशन   में कोई इन्तजार  कर रहा हैं. जाकर देखता तो दो अधेड़ उम्र की महिलएं बैठी थी जैसाही रोहन  उनके पास गया उनमेसे के महिला बोल पड़ी.
"साहब मैं आशा और संजना  संजीवनी अनाथ आश्रम से आये हैं कुछ देणगी चाहते हैं"
"लेकिन मैं तो बस एक १०० या २०० रु दे सकता हूँ बस"
" साहब हमारे आश्रम में  २५ निराधार महिलएं रहती हैं"
"तो मैं क्या कर सकता हूँ"
"आप उन में से एक का साल भर का खाना दे सकते हैं, सुबह का नाश्ता ८०० रु हर साल दो वक्त का खाना २००० रु और दो वक्त का खाना और नास्ता २५०० रु साल भर के लिए"
"मुझे सोचने के लिए थोडा वक्त चाहियें  दो तिन दिन में मैं आपको बता दूंगा क्या करना हैं"
"साहब आपसे से  गुजारिश हैं आप सिर्फ एक बार हमारे  आश्रम को देख लीजिएगा और उसके बाद ही  फैसला लीजियेगा"
"ठीक हैं यह सब बादमें"
"नहीं साहब हमारा आश्रम  एहां से नजदीक ही हैं आज ही देखे तो ठीक रहेगा"
ओ दोनो  औरतें हाथ जोड़कर मिन्नते करने लगी रोहन को रहा नहीं गया और आज ही आश्रम देखने का फैसला कीया.

            थोडीही देर में तिनोही  आश्रम के नजदीक आ गए बड़े बड़े निलगिरी के पेड़ आश्रम की शोभा बड़ा रहे थे. कुछ महिलएं गाना गाते गाते ही पापड़ बेल  रहे थे वैसा तो  ही आश्रम ठीक ठाक लग रहा था. पूरा आश्रम देखकर रोहन ने दो तिन दिन का वक्त मांगकर वहां से निकलने लगा. उतने में पीछे से आवाज़ आयी :"बेटा"आवाज़ कुछ जानी  पहचानी लगती थी इस लिए रोहन पीछे मुड़कर देखा माँ जी यानी राकेश की मा.
"माँ आप एहां"
"हाँ बेटा"
"क्या राकेश को मालूम हैं की आप एहां हैं"
"बेटा राकेश खुद मुझे एहां छोड़ गया हैं"
"मैं घर में कुछ काम नहीं कर रही हूँ ऐसा बहु ने शिकयत की और इधर से मैनेजर  से बात कर मेरा एहां दाखिला करवाया.  मेरा एक ही बेटा था जो मुझे इस हालात में छोड़  गया हैं. बेटा उस दिन मैं तुम्हे अस्पताल में कही थी की बेटा होना चाहियें लेकिन अब मैं तुझे यह कहती हूँ की बेटा हो या बेटी कुछ फर्क नहीं पड़ता"
"माँ जी कुछ जरुरत रहे तो फ़ोन कीजयेगा मैं मेरा नंबर एहां आशा मैडम के पास छोड़ जाता हूँ" ऐसा कहकर रोहन ने जेब में से ५०० रु निकाले और उस वृद्ध महिला के हाथ में थमा दियें.
वृद्ध महिला के आंख भर आयें और जाते जाते उसने कहा.
"बेटा तू मुझे मिला था इस बात जिक्र राकेश के से मत  करना शायद मुझे बेटी होती तो कुछ सहारा मिल गया होता लेकिन भगवान की येही मर्जी हैं"

       रोहन वहां से निकल पड़ा और सोचने लगा जीवन भी एक अजीब खेल खेलता हैं. बचपन पूरा बड़ा होने में गुजर जाता हैं.  जवानी पूरी काम और  मस्ती में  गुजर जाती हैं.  बुढ़ापा सिर्फ जवानी के यादों को ताजा करके जीना चाहता हैं. लेकिन बचपन जवानी की ओर , और बुढापा जवानी के यादोमें गुजर जाता हैं और जवानी में हम बेटा या बेटी के चक्कर में न जाने कितने अपराध करते हैं. लेकिन अभी भी बहुतसे लोग आपनी मंजिल आपने बेटो में तलाशते हैं. उन्हें यह पता नहीं होता की अंधरे में सिर्फ नजदीक का रास्ता ही दिखता हैं दूर का नहीं. लेकिन याद रहे बेटा हो या बेटी ओ तुम्हारे साथ तब तक चलते हैं जब तक उनके पास खुद की  रौशनी नहीं होती. जब तुम्हारी रौशनी ख़त्म होती हैं तो सिर्फ अन्धेरा ही अन्धेरा होता हैं. मंजिल अभी भी बहुत दूर दिखाई पड़ती हैं  रास्ता लम्बा हैं और अन्धेरा घना हैं.  यह जीवन का   रास्ता हमें पार करना ही हैं चाहे कोई साथ हो या ना हो.
(समाप्त)