Saturday, December 22, 2012

"तू चीज बड़ी हैं मस्त मस्त"

     
"तू चीज बड़ी हैं मस्त मस्त", जब यह गाना मार्केट आया था, इससे यह पता चलता हैं की समाज में औरत और मर्द में कितना फर्क हैं। हमारें समाज का बड़ा हिस्सा हैं जो औरत को चीज समझता हैं।
औरत और मर्द में इतना फर्क क्यूँ हैंकौन हैं इसके लियें जिम्मेदारहमारा सामाजिक ढांचा जो की स्त्री को केवल उपयोग की वस्तु समझता हैं। शायद यही वजह हैं जो स्त्री को हमेशा एक वस्तु की नज़र से देखा जाता हैं और यही बलात्कार की वजह बन जाती हैं, जैसा की 'यूज़ एंड थ्रो'। यही हकीक़त हैं हर एक रेप पीडिता की। 

      स्त्री को आइटम समझकर पेश करना - यह हमारा फ़िल्मी कल्चर बन गया हैं। फिल्मो में अगर हीरो हिरोइनसे छेड़ छाड़ करता हैं तो बड़े ही चाव से देखते हैं। जहाँ हलकट और शिला की जवानी पे ठुमके लगते हैं तो, बड़े ही चाव से हम देखते और पसंद करते हैं। क्या सिर्फ औरत ही आइटम होती हैं? इसका मतलब क्या हैं? हमें इस कल्चर को बदलना होगा और औरत को इस मनोरंजन के रोल से बहार लाना होगा। इस देश में तो एक पोर्न स्टार को भी इतना महत्व देते हैं की वो रातोंरात फेमस बन जाती हैं।   इसेसे लोगों का स्त्री के प्रति देखनेका नज़रिया बदल जाता हैं और यही नज़रिया समाज के लियें घातक बन जाता हैं। आप पोर्न स्टार को देखते और चाहते लेकिन क्या आप अपनी बहन और बेटी को इसी रूप में स्वीकार करोगे


          दूसरी और अहम् बात क्या फाँसी  की सजा मुक़रर करनेसे रेप केसेस में कमी आयेगी? नहीं बिलकुल नहीं! लेकिन हमें यह सोचना होगा की इसे किस तरीके से रोक सकते। इसके लियें एक जबरदस्त इच्छाशक्ती की जरुरत हैं, इच्छाशक्ती आने के लियें इमानदार नेता  लोगों की जरुरत हैं, जो सभी का हेतु  एक ही होना चाहियें,जो की इस सिस्टम में बदलाव ला सकें। जब दुसरें देशों में गर्भपात के कानून की वजह से एक औरत अपनी जान खो देती हैं तो उस देश में तत्काल कानून में बदलाव लाया जाता हैं, यहाँ इतनी देरी  क्यूँ ? कौन हैं इसके लियें जिम्मेद्दार?
             
           सबसे पहले हमारा कानून, विरोधी पक्ष का वकील के  उलटे सीधे सवालों से पीडिता का कई बार रेप होता हैं।  हर एक सवाल  का उत्तर देते समय वही यातना याँद  करना पड़ता हैं, जो की रेप से कम नहीं। जब हमारीं न्यायिक  प्रक्रिया की  देरी जो की पीडिता के सहनशक्ति को चूर चूर कर देती  हैं। 

         इसके बाद आता हैं हमारां राजनीतिक सिस्टम, जहाँ हम रेपिस्ट और गुंडों को चुनते हैं। जितने भी रेप केसेस सामने आतें हैं रेपिस्ट के पीछे कोई कोई राजनेता जरुर होता हैं। इसे बदलना नामुमकिन हैं। क्यूँ की हर पक्ष में यहीं रावण राज करतें हैं और सोने की लंका समझ कर पुरे देश और देश की इज्जत को लुटते हैं। 

          एक और बात  की हमारा पुलिस दल जो की इस मामले को उतना गंभीर नहीं समझता और केस दर्ज करने में जो देरी करते हैं। सबसे पहली बात यह हैं हमारें समाज में बहुत से लोग हैं पुलिसपे भरोसा नहीं करतें, क्यूँ की हमारें नेता लोग पुलिस को  अपने नियंत्रण में रखतें हैं। 

     हमारा  मीडिया, आजकल जो भी समाचार पत्र निकलते हैं, उनका भी योगदान बहुत जादा हैं, क्यूँ की स्त्री को जिस तरह पेश करते हैं लगता हैं समाचार पत्र पढने के लियें नहीं बल्कि देखने के लियें निकलते हैं। जहाँ टाइम्स ऑफ़ इंडिया का सप्लीमेंट बैंगलोर टाइम्स, मुंबई टाइम्स आदि।

         टी वी मीडिया और विज्ञापन जहाँ औरत की जरुरत नहीं होती वहाँ भी औरत की नुमायश होती हैं, जैसा की औरत नहीं एक उपयोग की चीज हैं। हमारें न्यूज़ चैनल इसे एक समाचार का ज़रिया बनाकर अपनी रोजी रोटी सेंक लेते हैं।

          अब आप पुछंगे की इस सब से रेप केसेस से क्या लेना देना हैं? आप ठीक कहतें हैं इससे रेप केसेस से कोई लेना देना नहीं लेकिन इससे एक बात साबित होती हैं की औरत की तरफ जो समाज का देखने का नज़रिया दिखाई  देता हैं, जो "तू चीज बड़ी हैं मस्त मस्त"।   

       जब तक समाज का औरत के देखने का नज़रिया  नहीं बदलता तब तक यह चलता ही रहेगा। जो औरत और मर्द में अंतर हैं उसे हम बदल नहीं सकतें। 

      हम बलात्कारी  को सजा तो मुकरर कर सकते हैं,क्या इससे रेप केसेस में कमी आएगी? क्या जिस किसीभी  देश में मौत की सजा मिलती वहाँ रेप नहीं होतें?

         और हम लोग इंडिया गेट पर मोर्चा निकालते हैं, और वोट देते समय एक गुंडे और बलात्कारी को वोट देते हैं। और अब चिल्ला चिल्ला कर उन्ही के पैर पड़ते हैं।  क्या हम इसें बदल देंगे? इसे बदलना बहुत ही दूर की बात हैं, क्यूँ की हमारा सिस्टम सड गया हैं, अब हमें भी इस सड़े हुए सिस्टम के नशे की लत लग चुकी हैं, जो इस देश की मज़बूरी हैं।  इस दुनियाँ  में कई लोग ऐसे हैं जो बेटी को दुनिया में आने से पहले मार देते हैं। दहेज़ के  लिए बहु को जलातें हैं और  दूसरों की बहन बेटी को देख कर कहतें हैं की "तू चीज बड़ी हैं मस्त मस्त"।

      जब तक हम औरत के तरफ देखने का नजरिया बदलते नहीं तब तक हम इसे रोक नहीं सकते, क्यूँ की समाज में कई ऐसे तत्व हैं जो औरत को चीज समझते हैं, इसे रोकना हमारी पहली प्राथमिकता होनी चाहिएं। एक जमानें में सेक्सी शब्द का अर्थ गाली होता था आज वही शब्द एक सुन्दरता की मिसाल बन गया  हैं।  इसे बदलना जरुरी हैं जैसा की तू  चीज बड़ी हैं मस्त मस्त ऐसे गाने बंद कर देना चाहियें जो की औरत को एक वस्तु के रूप में प्रस्तुत करतें हैं। जब तक हम इस चीज शब्द का उपयोग करतें हैं तब तक औरत को एक उपयोग की वस्तु बनकर रहेगी, इसे बदलना होगा और इसमें औरत का सहयोग बहुत ही महत्वपूर्ण हैं।

 

Wednesday, November 14, 2012

खोता हुआ बचपन....



एक तरफ जो होटेल में काम करने वाला रामू जब अपने मालिक से बात करता हैं।

"साब  कल छुट्टी चाहियें अपुनको" बाल मजदूर रामू ने अपने मालिक से पूछा।

"क्या करेगा छुट्टी लेकर, काम क्या तेरा बाप आकर करेगा? दिवाली में छुट्टी!" मालिक ने चिल्लायाँ।  

"साब मेरी माँ की तबियत ठीक नहीं हैं" रामू विनम्र होकर  कहा।

"दूंगा एक झापड़ चल वो टेबल साफ कर जा, मेरा मुह क्यूँ देखता हैं?  काम नहीं करेगा तो खाना नहीं मिलेगा और एक बात याद रख छुट्टी नहीं मिलेगी" होटल मालिक ने जवाब दिया। 

     हमारें  देश में कई बच्चे ऐसे हैं, जिसे शिक्षा तो दूर की बात हैं, लेकिन मुलभुत  सुविधाएं मिलना भी मुश्किल हैं। कई बच्चे ऐसे हैं जो की किसी होटल में या घरोंमें मजदूरी  करके अपना जीवन व्यतीत करतें हैं। अब हमें यह सोचने की जरुरत हैं, जिन  बच्चों को पेट भरने की चिंता सताती हैं, वो शिक्षा के बारें में सोच भी नहीं सकते, अब हमारी पहली प्राथमिकता यह होनी चाहियं रोटी कपडा और मकान के साथ शिक्षा, जब हम सीर्फ शिक्षा पर विचार करतें हैं तो यह गलत होगा की केवल भूके पेट और कपड़ों  के बिना केवल शिक्षा देना सही नहीं होगा। इनका बचपन तो पेट की आग में जल रहा हैं।


  दूसरी तरफ रीमा को अपनी सहेली के साथ बहार खेलने जाना था, इस लियें वो अपनी माँ से पूछती हैं।

"माँ मुझे सीमा के साथ खेलने जाना हैं" रीमा ने माँ से पूछा।

"रीमा तुमने होमवर्क पूरा किया ? चलो पहले छुटियों में दिया हुआ होमवर्क पूरा करों" माँ ने पूछा।

"माँ मैं आने के बाद होमवर्क करुँगी" रीमा ने कहा। 

"रीमा तुम्हें पता हैं? पड़ोस के वर्मा के  बेटेने स्कूल में अव्वल स्थान काबिज किया हैं, देखा हैं कभी उसे दुसरें बच्चों के साथ खेलतें? नहीं ना! चलो होमवर्क करों, कहीं खेलने जाने की जरुरत नहीं हैं" माँ ने कहा।

         दूसरी तरफ हम उन  बच्चों के बारें में सोचना होगा, जो की शिक्षा के भाग दौड़ में अपना बचपन खो  देते हैं। जिन्हें हम एक स्पर्धा में धकेल देते हैं, जो की कभी खत्म नहीं होती, स्कूल के बड़े बैग ओ कंधेपे अटकाकर हर रोज़ स्कूल जाते हैं, जो की जरुरत से ज्यादा मानसिक तनाव स्पर्धा।  अभिभावक के साथ साथ टीचर का दबाव, अब जो बच्चे शिक्षा ले रहें हैं, और जो नही ले रहें हैं, उनमे ज्यादा अंतर नहीं हैं। अब अगर हम यह कहते गए तो कई सवाल उठेंगे, की क्या हम इस शिक्षा को बंद कर देना चाहियें ? नहीं मेरा कहना यह नहीं हैं। लेकिन हमें कुछ ऐसा करना होगा की बच्चे के प्रतिभा के अनुसार शिक्षा देनी होंगी, क्या हम सब यह कर पायेंगे। दूसरी तरफ वह बच्चे जो की प्रतिस्पर्धा के आग में अपना बचपन खो रहें हैं, जो की हमने प्रतिस्पर्धा का एक वर्तुल बना दिया हैं और बच्चे इस वर्तुल में मंजिल के आस में चक्कर काट रहें हैं। क्या यहीं हैं सच्चा बचपन, क्या इसे बदलना जरुरी नहीं? क्या अब वक्त आ गया हैं की  इस  शिक्षा प्रणाली को बदलने की जरुरत हैं। जो की खोता हुआ बचपन वापस ला सकें। 

Thursday, September 27, 2012

पाठकों का आभार - तीन साल का सफ़र


Pageviews by Countries

Graph of most popular countries among blog viewers

EntryPageviews
India
2151
United States
405
Russia
300
Germany
239
Ukraine
161
Latvia
133
Netherlands
73
France
45
Brazil
42
Japan
37


 देश वीदेश के सभी पाठकों का आभार ...


 ब्लॉगस लिखते लिखते तकरीबन तीन साल का सफ़र में मेरे पाठक दोस्तों की अहम भूमिका रही हैं। जो की देश वीदेश में रहते हैं,जिन्होंने मेरे इस सफ़र को जिन्दा रखा हैं। हमारे जीवन में बहुत सारे मोड़ आते हैं. जहाँ की हमारे स्कूल के दोस्त, बादमें कॉलेज के दोस्त,ऑफिस के दोस्त और अंत में आते हैं नेटवर्क के दोस्त. स्कूल के दोस्त कहाँ है, यह तो पता करना बहुत ही मुश्किल का काम हैं। कॉलेज एक या दो  दोस्त  मिलते हैं, कभी फोन पे बाते होती और हालचाल पूछ लेते हैं। ऑफिस के सभी  दोस्त तो हर रोज मिलते हैं, लेकिन वो बाते नहीं होती जो हम करना चाहते। अब मैं नेटवर्क के दोस्तों की बात करता हूँ। हम तो हर रोज़ मिलते हैं और अपने विचार शेयर करते वो  भी कोई आवाज़ के बिना ही लेकिन उनकी आवाज़ हमारे दिल पे दस्तक जरुर देती हैं. 
                 सुना था भीड़ में भी आदमी अकेला होता हैं।  आजु बाजु में बहुत सारे  ल़ोग  होने के बाद भी सन्नाटा क्यूँ सुनाई देता हैं? भीड़ में बहुत सारी आवाज़े होती, लेकिन उसे केवल मन की आवाज़ ही सुनाई देती हैं।  भीड़ की आवाज़ से मन की  आवाज़ कई गुना ज्यादा होती और इसे ही हम सन्नाटे की आवाजें कहते हैं। इस लिए कुछ जानकार कहते हैं की, आप किसी की बात सुने या ना सुने मन की बात जरूर सुनियेगा।
              
"जीवन"

जीवन के इस सफ़र में बहुत से लोग मिलते हैं! लेकिन कुछ लोग हमेशा के लिए यादगार बन जाते है! कुछ लोग जीवन में  धुंदलीसी  याँदें  छोड़ जाते हैं! बार बार याद करनेसे कुछ धुंदलेसे चेहरे याद आते हैं! लेकिन कुछ लोग ऐसे होते हैं! जो मददगार बनकर खुद चले आते हैं! लेकिन हम वही भूल करते हैं! अक्सर उन्ही लोगोंके चेहरे भूल जाते हैं! जिसे हम हमेशा पाते हैं, वही चेहरे भूल जाते हैं।

"प्यारे दोस्तों मैं कोई लेखक या कवी नहीं हूँ, क्यूँ की मैं भी कुछ लिखना चाहता हूँ। इस ज्ञान के सागर मे डुबकी लगाकर कुछ मोती समेटकर आप लोगोंके साथ बाँटना चाहता हूँ। मुझे मालूम हैं की आप सभीको मोतियोंकी परख हैं। इस लिए कुछ गलतियां हुई  तो बेहिचक बता दीजिएगा।"

Thanks

आपका एक साथी 

उत्तमकुमार 

Sunday, September 16, 2012

कॉमन मैन और दो कार्टून


जीवन के बस में सफ़र करते समय मेरी बाजु वाली सीट पर एक आदमी आ बैठा, ऐसे  ही बात करते करते पहचान हो गई और और मैंने पूछा।

"काम क्या करते हो?"

"मैं एक कलाकार हूँ?" उसने कहा।

"कलाकार! कौनसी कला हैं आपके पास?" मैंने पूछ।

"मैं एक  कार्टूनिस्ट हूँ " उसने कहा।

"अच्छा, किस प्रकार के  कार्टून बनाते हैं आप?"

"मैं देश के पार्लमेंट को शौचालय का रूप देना, देश के अशोक चिन्ह को  भेड़िए का रूप देना और ऐसे बहुत सारें, आपने वह समाचार तो सूना होगा की मेरे कुछ कार्टून आपत्तिजनक हैं, यह कहकर सरकार ने मुझे जेल भेजा था। उसने अपने मोबाइल में बताते हुए कहा, यह देखो मैं इस कार्टून में पार्लिमेंट को शौचालय बता दिया, क्या कुछ गलत किया क्या ?"


"क्या पार्लमेंट में शौचालय नहीं हैं? पुरे पार्लमेंट को शौचालय बताने की जरुरत क्या थी? यह तो गलत हैं ना। मुझे तो कुछ समझ में नहीं आ रहा हैं।" मैंने कहा।

"मैं तो कभी पार्लमेंट में गया नहीं, मुझे क्या पता की पार्लमेंट में शौचालय हैं या नहीं। लेकिन उतने बड़े पार्लमेंट  में शौचालय तो होगा ही, नहीं तो खाने पीने के बाद वहाँ के लोग कहाँ जाएंगे?"

"किसी एक कोने में शौचालय बता दिया होता, कुछ तो वजह होगी पुरे पार्लमेंट को शौचालय बताने की? एक बात और, ये जो पार्लमेंट के  लोग वेस्टर्न टॉइलट का उपयोग करते हैं या इंडियन? फिर आप ने वेस्टर्न रूप  में जो टॉइलट बनया, और उसे नेशनल टॉइलट का नाम दिया हैं। इस देश में कई लोग तो ऐसे हैं की,टॉइलट का नाम तक पता नहीं, फिर इसे नेशनल टॉइलट कहने  की वजह क्या हैं?"

"वजह यह हैं की मैं देशप्रेमी हूँ।"

"क्या आपका देशप्रेम वेस्टर्न  टॉइलट तक ही सिमित हैं? फिर तो देशद्रोही इसे क्या समझते होगे?"

"अब मुझे कैसे पता? मैं तो देश प्रेमी हूँ।"

उसने अपने मोबाइलपे दुसरा कार्टून बताते हुए, मोबाइल फोन मेरे हाथ में दिया। मैंने कहा, "अच्छा हैं, कितने का हैं?"

उसने हाँसते हुए कहा, "क्या साहब, क्यूँ मज़ाक करतें हो? यह तो अनमोल हैं।"

"कुछ तो कीमत होगी? कहाँसे लिया हैं?"

"लिया नहीं यह कार्टून मैंने बनाया हैं?"

"मैं कार्टून की नहीं, इस मोबाइल फोन की बात कर रहां हूँ।"

"लेकिन मैं तो इस कार्टून की बात कर रहां हूँ।"

"मैं इस मोबाइल की।"

"क्यूँ पका रहे हो ? हमारी बहस तो इस कार्टून पर हो रही हैं।"

"क्या करूँ साहब मैं एक कॉमन मैन हूँ। मैं बहुत ही दुविधा में जी रहा हूँ। चैनल बदल बदल कर समाचार देखता हूँ, कुछ अच्छा समाचार मिलेगा, जो की कॉमन मैन के लिए होगा। करवट बदल बदल कर सपने देखने की आदत हैं, आज नहीं तो कल महंगाई कम होगी। इस लियें विषय बदल गया होगा। सॉरी सॉरी!! चलों बता दो आप किस कार्टून के बारें में बता रहे थे?"


"यह देखो यह भेड़िए वाला, इसके निचे लिखा हैं की "भ्रष्टमेव जयतें" अब बता दो इससे सरकार क्यूँ एतराज होना चाहियें, जो की मुझे जेल में दाल दिया, क्या देश से प्रेम करना कोई गुनाह हैं?"

"इसे देख कर तो लगता हैं की, एतराज नहीं होना चाहियें। लेकिन एक बात समझ में नहीं आ रही हैं की इसमें देश प्रेम कहाँ हैं?

"देखो मेरी लड़ाई इस भ्रष्टचार के खिलाप हैं, इस लियें इस कार्टून के निचे लिखा हैं पढो।

"भ्रष्टमेव जयते' लिखा हैं, और बिच में खोपड़ी का निशाँ हैं। मैंने देखा, लेकिन इस खोपड़ी के निशाँ का मतलब क्या हैं? क्या यह  देशप्रेमी की निशानी हैं? यह तो खतरा 440 वोल्ट का निशाँ लगता हैं।  पता ही नहीं चल रहा हैं की, भ्रष्टाचार के साथ हैं या इसके खिलाप।"

"गौर से देखो इसके निचे क्या लिखा हैं?"

"हाँ मैंने देखा हैं 'भ्रष्टमेव जयते' लिखा हैं, इस लियें तो पूछ रहाँ हूँ की आप तो भ्रष्टाचार के विरोध में हैं, फिर भी उसी के जय की बात कर रहे हों, ऐसा क्यूँ ?"

"देखो आप एक कॉमन मैन हैं, आप को इस देशप्रेम के बारें क्या पता चलेगा?"

"ठीक कहा साहब आपने, मैं तो कॉमन मैन हूँ ,मुझे हर रोज़ बिजली के झटके और महंगाई के मार दिखाई देती हैं। देश प्रेम क्या होता हैं, आप मेरेसे अच्छा जानते हैं, मुझे वही बिजली का निशाँ दिखाई देगा क्यूँ की एक कमरे में की बिजली बंद करने के बाद दुसरें कमरे की बिजली चलाता हूँ,  बिजली के बिल का झटका ना लगे, इस लिए बार बार वही खोपड़ी का निशाँ दिखाई देता हैं।अच्छा!! एक बात और, इस तीन भेड़ीए का मतलब क्या हैं?"                 

"यह कलाकार की भाषा हैं, आपके समझ में नहीं आयेगी, यही देश प्रेम हैं। इस लियें तो सारें हिन्दुस्तान के लोग सडक पर उतर आयें थे, जो की सरकार पर दवाब बनाकर मुझे जेल से छुड़ाया, समझे? कॉमन मैन।

"एक और सवाल, जो लोग आपकी रिहाई के लिय सडक पर उतरे थे उसमे कॉमन मैन कितने थे?"

"हे भगवान!! चलों मेरा स्टॉप आ गया मैं उतरता हूँ।"उसने सीट से उठकर बैगको  कंधे पे लटकाते हुए कहा।

"जातें जातें फोन की कीमत तो बता दीजिएगा" मैं ऐसा कहते ही उसने हाथसे माथा पटककर निचे उतर गया।

वह जाते ही मैं सोचने लगा, कॉमन मैन वही हैं, जो हर आन्दोलन में शामिल होता हैं। जो हर दिन भ्रष्टाचार और महंगाई के मार से मरता हैं, जो देश के लिए अपना सब कुछ त्याग देता हैं। यही  हैं कॉमन मैन, जो सरकार को चुन कर अपना खजाना उन्ही के हातों में दे देता हैं, जो की देश को लुट सके, यहीं हैं वो कॉमन मैन जिसका देश प्रेम दिखाई नहीं देता।  सोचते सोचते अगला स्टॉप आ गया, उतने में एक औरत की आवाज़ सुनाई दी, "ये  मिस्टर  दिखाई नहीं देता यह रिज़र्व सीट हैं, देखो लिखा हैं सिर्फ महिलाओं के लिए।"

 मैं उस सीट से उठकर दुसरे सीट पर जा बैठा और फिर वहीँ सफर चालू हुआ। मेरे बाजुमें   एक और आदमी आकर बैठ गया फिर से वही सिलसिला चालू हुआ, वही संवाद लेकिन अब विषय दुसरा था।

Sunday, September 9, 2012

ख़रगोश कछुए की दौड़

         

   कहानी कुछ नयी और कुछ पुरानी हैं। एक बार एक जंगल में 'ख़रगोश'और 'कछुए'  के  बिच दौड़ प्रतियोगिता का आयोजन हो रहा था। जंगल' में उत्साह का माहौल था। इस बार की दौड़ में ख़रगोश से बहुत ही आशा थी, क्यूँ की वह पिछले मुकाबले में 176 कीमी की दौड़, 176 मिनिट में पूरा करके  अव्वल स्थान पर काबिज़ था। इस लियें उसका का नंबर  176 था। 186 नबर की काली जर्सी के साथ कछुए का कुछ अलग ही अंदाज़ था।  जगह जगह बैनर से पूरा जंगल सजाया  गया और मीडिया के जानवर भी मौजूद थे।  यह मुकाबला एक बड़े मैदान से शुरू होकर टेढ़े -मेढ़े  रास्ते से होकर एक बड़े पहाड़पे खत्म होना था।  इमानदार जज जीत का सही निर्णय करने के लिय तत्पर थे, जो की इस स्पर्धा की निगरानी सही ढंग से कर सकें। उधर ख़रगोश टीम के सभी साथी उत्साहित थे। उन्हें पता था की यह दौड़ प्रतियोगिता इस बार भी ख़रगोश ही जितेगा।

           स्पर्धा के ठीक पहलें उधर जंगली टीवी के  रिपोर्टर बन्दर ने ख़रगोश से बात करने लगा, "चलो अब हमारे साथ हैं, ख़रगोश जो की इस स्पर्धा के गतविजेता रहें है, चलो हम अब उन्ही से बात करते हैं।

 "आप ने इस स्पर्धा में जो एक नया रिकॉर्ड बनया था, क्या इस साल भी आप अव्वल आएंगे ?"  रिपोर्टर बन्दर ने पूछा।

"देखो मेरी बराबरी उस कछुए से कभी भी मत करो! यह स्पर्धा मैं ही जीतने वाला हूँ।" ख़रगोश ने जवाब दिया।

"अगर आप यह सपर्धा जीत जातें हैं तो इसका श्रेय  किसे देंगे?" रिपोर्टर ने पूछा।

"मैं आज जो भी हूँ, इन जानवरों  की वजह से हूँ, उन्होंने मुझे प्रेरणा और सहयोग दिया हैं, जो की आगे भी देते रहेंगे" ख़रगोश ने मैदान में बैठे सभी साथियों के तरफ हाथ हिलाते हुए कहा।

जैसा ही ख़रगोश ने हाथ हिलाकर प्रेक्षकों के तरफ देखा, प्रेक्षकगन जोर शोर से उसका स्वागत किया।

"अगर आप इसका श्रेय किसी एक को देना चाहते तो किसे देंगे"  रिपोर्टर ने पूछा।

"मैं यह श्रेय  कौवे को दूंगा जो की मेरे  बॉस और गुरु हैं।" ख़रगोश ने कहा।

"एक आखरी सवाल जीतने के बाद जो राशी मिलेगी उसका क्या करोगे?" रिपोर्टर ने पूछा।

"सब साथी मिल बाँट कर खाएँगे, जैसा की हमने पिछले बार किया था, इसमें सबका योगदान हैं।" ख़रगोश ने कहा।

         रिपोर्टर ने माइक हाथ में लेकर कहने लगा, "ये हैं हमारे ख़रगोश जो की पिछले मुकाबले के विजेता रहे हैं। अब हमें यह देखना होगा क्या इस बार भी वही चैम्पियन होंगे या नहीं? उनके उत्साह और जोश को देखे तो ऐसा लगता हैं की, इस बार भी वो आसानी से जीत जायेंगे।  कैमराबर्ड  उल्लू के साथ मैं रिपोर्टर बन्दर जंगली टीवी से, लाइव। ब्रेक के बाद हम कछुए  से बात करेंगे, और जान लेंगे की वो इस स्पर्धा के बारें में क्या कहतें  हैं।"


   "चलो अब हम ब्रेक के बाद मिलते हैं, दुसरे प्रतिस्पर्धी कछुएजी से।" रिपोर्टर  बन्दर ने कहा।
"क्या आप यह प्रतयोगिता जीत जायेंगें?"
लेकीन कछुए ने  कुछ भी जवाब नहीं दिया, इशारें में ही अपनी बॉस लोमड़ी के तरफ इशारा किया।

उतने में रिपोर्टर बन्दर ने लोमड़ी के तरफ माइक करते हुये पूछा, "क्या आपको लगता हैं की यह स्पर्धा कछुएजी जीत जायेंगे?"

" देखो हमने इस स्पर्धा के लियें बहुत ही हार्ड वर्क किया हैं, इस लियें मुझे लगता हैं की मेहनत का फल जरुर मिलेगा।" लोमड़ी ने कहा।"

"अगर मेहनत का फल मिलता हैं तो, उस फल का क्या करेंगे?" रिपोर्टर ने पूछा।

"क्या बात करते हो?  इसका कुछ हिस्सा हम ख़रगोश के टीम को भी दे देंगे,  जब उनकी जीत का फल वो हमसे मिल बांटकर खाते हैं, तो हम क्यूँ नहीं?"लोमड़ी ने कहा।

"और एक बात, आपने यह कछुआ जी का स्पर्धा क्रमांक 186 देने की वजह क्या हैं।" रिपोर्टर ने पूछा।

"इसके लियें आपको  स्पर्धा के अंत तक इन्तजार करना पडेगा।" लोमड़ी ने हँसते हुए कहा।

"हमारें दुसरे प्रतिस्पर्धी, कछुएजी  की चेहरें पर कोई हाव-भाव नहीं है। लोमड़ी जी ने कहा की मेहनत का फल जरुर मिलेगा। चलों कुछ ही देरमें स्पर्धा शुरू होने वाली ही हैं। कैमराबर्ड उल्लू  के साथ बन्दर।
 
         कुत्ते के भौंकने के साथ साथ यह स्पर्धा आरंभ होती हैं। खरगोश घमंड के साथ दौड़ने लगता हैं। 176 कीमी दौड़ने के बाद पीछे मुड़कर देखता हैं तो, दूर दूर तक कछुआ दिखाई नहीं देता। हरी घाँस पर लेटे लेटे ही सो जाता हैं। लेकिन कछुआ धीरे धीरे चलकर 186 कीमी के मार्क पर पहुँच जाता हैं। जब खरगोश जाग जाता, तब तक कछुआ स्पर्धा जीत चुका था।

      कछुए ने एक नया इतिहास रच दिया हैं।  सभी साथी जश्न मना रहे थे, इस बड़ी जीत का।  जंगली टीवी के रिपोर्टर ने  जब कछुए की जीत के बारें में पूछा तो जवाब आया "लाख सवालों से अच्छी हैं करोड़ों रुपयों की ख़ामोशी।"



          चलों अब हम इस कहानी के अभिप्राय पर नज़र डालते हैं।  यह स्पर्धा दो घोटालों के बिच में हैं, जो की 2जी और कोयला। यहाँ ख़रगोश ने 2जी वालें का अभिनय किया हैं। ठीक इसी तरह कोयले वालें का रोल कछुए ने निभाया हैं, जो की धीरे धीरे चल कर सबसे आगे पहुँच जाता हैं। जंगल का मतलब  देश, और मैदान जो एक संसद, जहाँ  से इस स्पर्धा की शुरुवात होती हैं।  जजोंका रोल कैग ने निभाया, 176 नंबर का मतलब हैं 1.76 लाख करोड़ रूपये, ठीक इसी तरह 186 का मतलब हैं 1.86 लाख करोड़ रूपये। हरी घाँस का मतलब नोटों की हरी गड्डियां। अब हमें यह बताने की जरुरात नही होगी की, यहाँ  कौवा  और लोमड़ी का रोल क्या हैं।
 
         अगर यह स्पर्धा देश के विकास के लियें होती तो कितना अच्छा होता। आज हम भी कछुए की जीत का जश्न मना रहे होते,

(photos from google)

Saturday, August 18, 2012

राजा और बेताल

      (फोटो दैनिक भास्कर से साभार)

            राजा विक्रम ने फिर से उसी भ्रष्ट्राचार के पेड़ से घोटालें के शव को उठाया और अपने कंधे पर लाद  कर चलने लगा। दिन के उजालें में चारों तरफ अँधेरा छाया हुआ था, क्यूँ की पेड़ इतना विशाल और घना था की उसके अन्दर रौशनी की  किरण घुसने का प्रयास भी नहीं कर सकती थी। पेड़ की बड़ी बड़ी शाखाएं आसमान में घुसकर सूरज को डुबो दिया था। इस पेड़ की जड़ें इतनी मजबूत थी की पूरी पाताल  लोक तक पहुँच चुकी थी। 
पेड़ के जड़ोंने पुरे "जीवन" को सोख कर जमीं को नीरस बना दिया था। "जीवन" के बिना लोग  मर रहें थे।  दूर से मीडिया के भालू की पुकार और विपक्षी बादलों गड़गडहाट सुनाई दे रही थी। आम जुगनू की चमक और कडकडहाट के साथ आन्दोलन की बिजली बिच बिच में चमक रही थी।

                राजा विक्रम  शव को लेकर चल रहा था। शव के अंदर का बेताल  बोलने लगा। राजा मैं आज तुझे एक ऐसी कहानी सुनाऊंगा, कहानी के अंतमें कुछ सवाल पूछूंगा,अगर तू इसका उत्तर नहीं दे सका तो तेरे सर के सौ टुकड़े हो जायंगे। ऐसा कहकर कहानी सुनाने लगा।

               दुनिया में एक भारत नाम का देश हैं । उस देश में एक मोहन नाम के महामंत्री रहते थे , जो की ईमानदारी का कवच पहनकर  वो अपना कामकाज संभालते थे। गाँधी के विचार धारा पर चलने वालें, बुरा मत बोल, बुरा मत सुन और बुरा मत देख। इसी विचार धारा को  बड़ी ही कट्टरता से पालन करते  थे । इस देश में जो भी कुछ होता था, वह बुराही होता हैं, यह सोच कर,वो कुछ भी देख नहीं पाते। ठीक इसी तरह लोग चिल्ला-चिल्लाकर अपनी यातनाएं कहते थे,महामंत्री जो थे की, गाँधी के बन्दरों के प्रति बहुत ही संवेदनशील थे, इस लियें वो किसी इंसान  की बातों को इतनी अहमियत देना उचित नहीं समझते थे। दिन रात  यही सोचकर काम किया करते थे।

             देश में पडोसी देश के लोग घुस कर आतंक फैलाते रहते थे, फिर भी उन्ही के मुह से शब्द बहार नहीं निकलता।  उनका ईमानदारी का कवच भी कोयले की आग में जलने लगा था। जिस जिस जगह पर कवच जल चुका था, वहाँ से बेईमानी  की झलक दिखाई पड़ रही थी। यह सब इस लियें हो रहा था की वह कुछ भी कहने से पहले अपनी बॉस के सलाह लिया करते थे। अब सवाल यह हैं की उनकी बॉस उन्हें जो कहने को कहती वही वो कहते, जो देखने को कहती वही वो देखते, और जो सुनने को कहती वही वो सुनते। बहुतसे मंत्रीगन जो उनके अधीन काम करते थे, वो कोई भी काम देशहित में नहीं करतें थे। सिर्फ और सिर्फ घोटालें कर के देश को लुट रहे थे। देश के लोगों के सामने एक बड़ा ही रहस्य खुलता हैं, लोग यह देख कर चिंतित होते हैं। वो घोटाला कुछ इस तरह था।  कोयला घोटाला 1, 86, 000 करोड़  रुपए का हैं, जो की अब तक का सबसे बड़ा घोटाला उभरकर सामने  आया था । इसके पहले जो 2 जी का घोटाला हुआ, घोटालें की राशी थी 1,76,000 करोड़ रूपए।

        बेताल थोड़ी देर रुका और राजा से कहा देख अब मैं महामंत्री मोहन की लाइव बातचीत सुनाता हूँ। यह कहकर वेताल ने विक्रम के कान में माइक्रोफोन रख दिया।

      अब विपक्ष ने हमले तेज़ कर दिए थे इस लिए महामंत्री अपनी बॉस को फोन करके पूछता हैं।

 "मैडम मैं क्या करूँ ? क्या मैं इस पद को छोड़ दूँ? मीडिया को क्या जवाब दूँ ? लोगों को कैसे मुह दिखाऊं?"

उधर फोन से मैडम कहती हैं। "देखो तुम्हें डरने की कोई जरुरत नही, तुम वही गाँधी के बंदरोवाले गुण का उपयोग करों?"

"कौनसे गाँधी मैडम" महामंत्री  ने पूछा।

"वही जो सबका बाप हैं जिसने कहा बुरा मत देखो, बुरा मत सुनो और बुरा मत बोलो" मैडम ने कहा।

"लकिन एक समस्या हैं" महामंत्री ने पूछा।

"अब क्या हैं ?" मैडम चिल्लाते हुए बोली।

"उधर तीन  बन्दर थे एक ने कान, दुसरेने आँख, और तीसरे ने मुह बंद किया था, मैं अकेला यह सब कैसे कर पाउँगा? अब मैं तिन गाँधी कहांसे ला पाउँगा "?महामंत्री ने कहा।

"पागल तीन  गाँधी नहीं, तीन बन्दर बोल, क्या गाँधी और बन्दर में कुछ भी अंतर नहीं हैं ? और सुनो जहाँ  जो बंद करना हैं वही करना सब एक साथ बंद करने की जरुरत नहीं" मैडम ने कहा।

"सॉरी मैडम बात यह हैं की हमेशा तीन  गाँधी नजर आतें हैं, इस लिए थोड़ी गलती हो गयी।" महामंत्री  ने कहा।

"ठीक हैं अब समझ में आई ना बात।" 

 "नहीं मैडम एक और बात हैं।

 "क्या हैं ?"

"गांधीजी ने बन्दरों का चुनाव क्यूँ किया होगा? इंसान को भी चुन सकते थे ना।"

"पता नहीं मैं फोन रखती हूँ "

"ठीक हैं मैडम" कहकर महामंत्री  ने फोन रख  दिया। 

      यह सब सुनाने के बाद बेताल ने राजा से कहा 'अब बता की इतना सब कुछ होने के बाद भी क्या इमानदार कहलाने वाले महामंत्री को इस पद पर रहना चाहियें या नहीं ? या मैडम के दिए हुए रास्ते पर चलना चाहियें ?        

      राजा विक्रम कहने लगा "मेरे हिसाब से उस महामंत्री को पद छोड़ने की कोई  आवशकता नहीं। क्यूँ की यह पब्लिक हैं, थोड़े दिनों बाद सब कुछ भूल जाती हैं। अब कॉमनवेल्थ और 2 जी घोटालें लोग भूलने लगे हैं। ठीक इसी तरह यह लोग कोयला घोटाला भी भूल जायेगे। मीडिया भी कितने दिन तक इसी खबर को भुनाएगा, और विपक्ष कितने दिनों तक विरोध का नाटक करेगा। कुछ दिन की तो बात हैं।"     

      वेताल कहने लगा "बात तो सही हैं, लेकिन जो राजा विकास और न्याय की बाते करता था, उस राजा से मुझे यह अपेक्षा नहीं थी। क्या राजा तू  भी इस मैडम के बातों से सहमत होकर इस देश के लोगों को धोका देने लगा हैं। बेताल यह वाणी सुनकर राजा जोर जोर से हँसने लगा।    

     और थोड़ी देर बाद राजा ने बेताल को समझाया की मैं वो राजा विक्रम नहीं हूँ, बल्कि मैं तो 2 जी वाला राजा हूँ।  यह सुनते ही शव उड़ने लगा और फिर उसी राजा को जोर से पकड कर राजा के साथ साथ उड़कर पेड़ पर जाकर लटक गया।


Tuesday, August 14, 2012

तो दे दो



दिल की  'फोनरिंग' सुनना हैं,
प्यार का 'मिस कॉल' तो दे दो

दिल  के गीत को गुनगुनाना हैं,
गीत गाने का माहौल तो दे दो 

दिल  से दिल के अंदर जाना हैं,
अब दिल के द्वार खोल तो दे दो 

मुझे तुमसे प्यार जताना हैं,
जज्बातों को मोल तो दे दो 

दिल से  दिल का सौदा करना हैं,
प्यार के तुला से तोल तो दे दो 

एक 'रन'से दिल को जितना हैं,
प्यार का एक 'नोबॉल' तो दे दो


प्यार के  'फेसबुक' पे लिखना हैं,
दिल की एक 'वॉल' तो दे दो

प्यार के खेल में नायक  बनना हैं,
जीवनपट में  एक 'रोल' तो दे दो

तेरे ही दिल में घर बसाना है,
दो बेड़रूम एक 'हॉल' तो दे दो

प्यार के 'कार' को  चलाना हैं,
राहदारी का 'टोल' तो दे दो

दिल पे तेराही नाम लिखना हैं,
दिल के टुकड़े का 'स्क्रोल' तो दे दो

दिल के शो केस में सजाना हैं,
तस्वीर की एक 'डॉल' तो दे दो

तुम्हे याद कर मेले में खोना हैं,
मेले का एक 'शोल' तो दे दो

मन में झांककर देखना हैं,
दिल के खिड़की में 'होल' तो दे दो

'फेसबुक' पे हालेंदिल  बयान हैं,
पसंदी नहीं सिर्फ 'लोंल' तो दे दो

अब टूटे हुए दिल को जोड़ना हैं,
आखिर में  'फेविकोल' तो दे दो

(other language words used -Phone ring, miss call,  run,no ball, hall, car, role,wall, Facebook, role, scroll, doll, shoal,hole,lol and  fevicol)

Wednesday, August 8, 2012

आज़ादी का अहसास




उत्सव मनातें हैं आज़ादी  का  अहसास लियें
जीते हैं सिर्फ करमुक्त एक एक साँस लियें

हम भी आज़ाद हैं यही दुनिया को बतातें हैं 
आजादी  की तड़प लियें, दिल को सतातें हैं 
महंगाई की गुलामी में जी रहें हैं लोग यहाँ,
भ्रष्टाचार मुक्त जीवन का  एक रास लियें
उत्सव मनातें हैं आज़ादी  का  अहसास लियें


कहते थे बुरे कामों का बुराही फल होता हैं 
लेकिन यहाँ तो बुरा नेताही सफल होता हैं 
आज़ादी किसे मिली पता ही नहीं होता, 
आम लोग जीते,जीने की जिंदा लाश लियें
उत्सव मनातें हैं आज़ादी का  अहसास लियें 

क्या इसी आजादी को हम लोकतंत्र कहतें हैं 
जहां नेता इसेही खाने का एक मंत्र कहते हैं
भ्रष्टाचार से आज़ादी की लड़ाई अभी बाकि  हैं
जीते हैं नयी आज़ादी की एक आस लियें
उत्सव मनातें हैं आज़ादी का  अहसास लियें

अब हमें अमर देशभक्तों के  नाम याद रहें
चल बसें वो देकर जान, वो काम याद रहें
आजाद, भगत सिंग,राजगुरु, सुखदेव सारें,
मर मिटे थे,  आज़ादी का एक  ताश लियें
उत्सव मनातें हैं आजादी का  अहसास लियें

अमर होकर छोड़ गएँ वो हम सबका साथ
देश की चाबी देकर इन भ्रष्ट नेतावों के "हाथ"
चलो, अब हमें भी  करना हैं एक नेक  काम,
अब नयें अहसास की, एक नयी तलाश लियें
उत्सव मनातें हैं आज़ादी का  अहसास लियें

Sunday, July 29, 2012

धर्म-निरपेक्ष हैं


हम धर्म-निरपेक्ष हैं इस लियें सब सहते हैं
हम सब एक हैं, एक हैं, यही तो कहते हैं

बुरा ना देख, इस लिये आँखे बंद कर गएँ
देख नही सकते, वो जख्म बुलंद कर गएँ
अब आदत हो गई हैं यह दर्द सहने की,
कुछ भी करें, खून के आसूं तो बहते हैं

बुरा ना सुन, इस लियें कान ढक दियें
चीखे भी बंद हुई, अब दर्द भी पी लियें
अब अपनों का दर्द भी सुन नहीं सकते,
अपने ही देश में परदेशी की तरह रहते हैं 

बुरा न बोल, इस लियें बंद की हम जुबां 

बोल ना सकें, खुदबा खुद हो रहे हम कुर्बां 
जाँ हाथ लियें, बापू के क़दमों पे जाना  हैं,
फिर भी कहते की हम बापू के चहेतें हैं 

आज याद आते हैं, जो सूली पर चढ़ गएँ 

हमें इस धर्म-निरपेक्ष के हवालें छोड़ गएँ
इसी लियें तो वो इन्हें  ज़िंदा काट देते हैं,
हर जगह, जख्म लियें यह  करहतें हैं 

उतार दो यह  धर्म-निरपेक्ष का मायाजाल
जो धर्म को मानते,उनकी ही हैं एक चाल 
माध्यम हो या सरकार सबकी एक ही जात
एक धर्म कंधे पे, दुसरें को कुचलते रहते हैं

छाती पीटकर खुदको धर्म-निरपेक्ष कहलातें हैं
हम सब एक हैं, यही कहकर सबको बहलातें हैं
अब सड चुकी हैं यह धर्म-निरपेक्ष की दीवार,
निर्बल इटें, इमारतें यहाँ खुदबा खुद ढहते हैं  

अंधे, गूंगे और बहिरें बन बैठकर मरते हैं 

धर्म-निरपेक्ष कहकर वही पक्षपात करते हैं 
वो भूल नहीं सकते, हम क्यूँ भूलें वर्ण को,
चलो आवाज दो, आपसे यहीं  तो कहतें हैं   

Monday, July 16, 2012

बेटे का मोह


बेटा बेटी में भेद नहीं,  कर तू समांतर प्यार
लेकिन उसे लगता, बेटेसे सुख मिलेगा अपार

लगता हैं बेटे की जान में बसी उसकी जान
सबको बताता हैं, अब मिल गयी हैं पहचान
बेटी तो परधन, अब बेटा लगता सदाबहार
दिन या रात बेटे की तारीफ करता बार बार

दिन रात मेहनत करता, बेटे को पढाता   
काबिल बनाकर उसे आसमाँ  पर चढ़ाता  
सोचा था बेटा बड़ा होकर, लायेगा बहार
एक दिन चुकाएगा उसके प्यार का उधार

समय का चक्र बहुत ही तेजी से चलता 
कभी ख़ुशी तो कभी गम, जीवन ढलता
समय की होगी जीत,हारेगा उसका विचार
एक दिन धकेल देगा, जीवन को उस पार



वक्त के साथ साथ  बेटा और बेटी बड़ें हो गएँ
जब दोनोंहीं अब खुद के पैर पर खड़े हो गएँ
बेटी शादी के बाद, छोड़ दी सगे बाप का द्वार
माँ बाप को छोड़कर, घर को किया लाचार


बेटी तो पति के घर को अपना घर  मान ली
बेटेने शहरी हो कर वहीँ बसने की ठान ली
माँ बाप बेटे के चाह में, यादोँ की लेकर मार
पहले बेटें का, फोन का हैं अब इन्तजार

बीमार बाप बेटे की राह में जिंदगी जीता रहा
बेटे के याद में जहर जिन्दगी का पीता  रहा
बेटी दौड़ी चली आई थी, दिल पर लेकर भार
जो जी जान से करती थी माँ बाप से प्यार

बाप मर गया, जब बेटी  ने बेटे को बुलाया
व्यस्त था, अंतिम संस्कार को नहीं आ पाया
बाप के प्यार में, बेटी ने मचाया हाहाकार
चिता को अग्नि देकर, प्यार का किया इजहार

अब माँ सोच में पड़ी थी होकर मन में मग्न 
बेटे के लिएँ दूसरी को पेट में किया था भग्न
सोचती रही भगवान सब कुछ तेरा ही करार
शायद बेटा नहीं, बेटीसे करवाया दाहसंस्कार

अजब हैं यह दुनिया, जीने की एक रीत हैं
जिसे हम नहीं चाहते, वहीँ तो बसी प्रीत हैं
चाह की मत सुन, आस से मिलती हैं हार
फल की चाह में प्यार को मत बना मक्कार

Sunday, July 8, 2012

वक्त



जिंदगी जी रहा हूँ, लेकर एक  यादों का संसार 
पता नहीं कब थमेगी यह जिंदगी  की रफ्तार 

आज भी याद आते हैं वो बचपन के दिन
मैं पल भर भी नहीं रहता था तुम बिन

तुम्हरा वो हँसना , बात बात पर रोना
शाम में  स्कूल से निकलकर जुदा होना

एक ही बक्से में का खाना साथ में खाना
बोतल का पानी पिने के बाद छिडकाना

खेल खेल में दिन पर दिन बीत गएँ
यादों के साथ  हम समयसे जीत गएँ

फिर घूम फिरकर एक वक्त ऐसा आया
तकदीर भी मुझे उसी कॉलेज में ले आया

लेकिन तुमने कला में दाखिला लिया
मैं विज्ञान में तुब बिन किस तरह  जिया

मैं चाहता रहा, ब्लेक बोर्ड  में देखता रहा
पढ़ना था,  लेकीन प्यार ही सीखता रहा

अब जिन्दगी की नयी  किताब खुल गयी
मैं याद करता रहा, तुम मुझे भूल गयी

जब मेरे दोस्त ने, साथी के शादी में बुलाया
वहाँ तुम्हे किसी और की होते हुए दिखाया 

आज भी याद हैं, तुम्हारा पति जो होने वाला
शायद  उसके बाप का निकला था दिवाला

दहेज़ की मांग से पूरा लग्न पंड़प दहला था
लग्न मंडप से बिन ब्याहे, बेटे को ले चला था

उस वक्त मैंने  तुम्हारे पिता से  बात किया
और तुम्हे जीवनसाथी बनाने  में  साथ दिया

अब हमें ना किसी का डरख़ुशी से जी रहे थे
प्यार ही प्यार मेंजीवन का जहर पी रहे थे

पता नहीं था कुछ दिन इस तरह बीत गएँ
बेटे से प्यार में, लगता था जीवन जीत गएँ

वक्त युहीं गुजरता गया, बेटा भी बड़ा हो गया 
देखते देखते वह अपने पैरों पे खड़ा  हो गया

कुछ और दिन बीत गएँ, बेटा हमें छोड़ चला
विदेशी जीवन के लियें, हमारा दिल तोड़ चला

अब कभी फोन तो कभी चाट करता था
वो भी किसी पे दिल लगाकर मरता था

एक दिन जब उसने फोनसे  समाचार सुनाया
जब  वह एक विदेशी लड़की से ब्याह रचाया

वक्त ने अब अपनी रफ्तार की थी तेज
वक्त हमें फ़साने में बन चुका था तरबेज

याद हैं, तुम्हारी बेटे को देखने की चाहत
नसीब में नहीं था, ना मिली इसकी राहत

मैं बहुत ही रोया था, जब तुम मुझे विदा हुयी
अब तुम कब्र में सो गयी, मुझसे जुदा हुयी

इसी कब्र पर, मैं दिन रात तुम्हे याद करता हूँ
तुम्हे मिलने के लियें, जालिम वक्त से डरता हूँ

मैं भी आनेवाला हूँ, मेरा इंतजार कर लेना
यादों में जीकर, मुझे भी कब्र में भर लेना

वक्त की करवट ने रोक दी जीने की रफ़्तार
सोया कब्र में, अब नही किसीका इन्तजार