आजकल महंगाई ईतनी बढ़ गई हैं की सब्जियों के दाम आसमान को छु रहे हैं. "घर की मुर्गी दाल बराबर" अब यह कहावत भी गलेसे नहीं उतर रही. कहावत के साथ साथ दाल और सब्जी का भी गलेसे उतरना एक कसरत हो गया हैं. आम आदमी की भाग दौड़ देख कर टमाटर भी हस हसकर लाल हो गया हैं. प्याज तो बिना कटे ही रुला रहा हैं. शक्कर भी कुछ कम नहीं हैं दाल और चावल के साथ मिलकर आम आदमी पे हस रही हैं.
एक दिन में जल्दीमें ऑफिस जा रहा था तो बीवी ने आवाज दी
"आज ATM से पैसे ले आना"
"कितने "
"बस एक दो हजार ज्यादा लाना"
"मेरे पास नोट छापने की मशीन हैं ना! दो क्या चार हज़ार ज्यादा लो "
"महंगाई बहुत ही बढ़ गई है"
"लेकिन salary तो नहीं बढ़ी ना"
"ठीक हैं इस महीनेका पूरा सामान खुद ले आओ"
"ठीक हैं"
"लेकिन एक शर्त पर"
"कौन सी" मैंने पूछा
"अगर आप पूरे महीने का सामान बजट के अन्दर लाओगे तो में मेरा महीने का बजट कम कर दूंगी"
"अगर ज्यादा हुआ तो"
"जितना भी ज्यादा होता हैं, उसमे और हज़ार रु और जोड़ देना"
"हज़ार बहुत ही ज्यादा हैं,थोडा और कम करो"
"फिर कितने"
"पांचसो उस से ज्यादा नहीं दे सकता"
"ठीक हैं"
फिर हम दोनों में तय हो गया. महिने सारा खर्चा कैसा कम करने का यह सोचते सोचते जल्दी निकल पड़ा लंच टाइम में फ़ोन करके पुरे सामान की सूचि बनाई. मुझे लगने लगा की शायद मैंने जिम्मेदारी ली इस लिए बड़ी लिस्ट मेरे हाथ में थमाई हैं. यह सोचते सोचते में ऑफिस से सीधा बिग बाज़ार में गया और लिस्ट के मुताबिक सभी सामान ले आया और मन मन में मैंने सोचा हज़ार रूपए तो बचाही लिया.
फिर पेपर वाले का बिल .केबल का ,लाइट बिल सभी का बिल चुकाते चुकाते में थक गया. फिर भी मै खुश था की थोड़े रूपए तो बचा ही लिया मुझे यह साबित करना था की तुमसे कम रु खर्च किये हैं. जैसाही सप्ताह गुज़र गया फिर दूध वाला भैय्या आ टपका फिर मैने उसका भी हिसाब चुकता किया. सब्जी वाले को बता रखा था की पुरे महीने का हिसाब एक ही बार देयगा और हर रोज घर में जो भी चाहिए होता दे देना. मैं मन ही मन में सोच रहा था की अभी तो एकही हप्ता बचा, कुछ खर्चा नहीं होगा. मैंने जैसे ही घर में कदम रखा तो सब्जी वाला टपक गया .पध्रह सौ के आस पास उसका बिल था फिर मैंने वालेट निकाला तो उतने रु नहीं थे. सब्जी वाले को कल आके ले जाने को कहा, क्यूँ की मेरी जेब पुर खाली ही गई थी. अभी महीने के सिर्फ चार दिन ही बच गए फिर मैने बीवी से पुछा
"कल मैं फिर से ATM जा रहा हूँ सब्जी वाले के सिवा और कुछ बाकी" इस बार मुझे दूसरी बार ATM जाना पड़ रहा था.
"LPG गैस आने वाला हैं उसके लिए भी रु निकल लाना" उसने कहा.
और दो दिन बीत गए, अभी केवल दो दिन बचे थे . गैसवाला सिलेंडर ले आया उसका भी बिल चुकता किया . एक महिना गुज़र चूका फिर हमने पूरा हिसाब किया तो मैं हैरान रह गया क्यूँ की मेरे जेबसे तक़रीबन दो हज़ार रु से भी ज्यादा खर्च हुये थे.
अगला महिना शुरू हुआ, अब उसकी बारी थी, मैं मन ही मन में सोचने लगा पिछले महीने में बीवी को दो हज़ार ज्यादा देता तो शायद ठीक होता.अभी मुझे बजट में दो हज़ार पांच सौ रु ज्यादा बढाने पड़े हर घर की यही कहानी हैं. क्यूंकि हमारी सरकार और नेता लोग सो रहे हैं और आम आदमी की फ़िक्र किसे. अभी तो चुनाव का मौसम भी नहीं हैं. अगर हर साल चुनाव आता ती कितना अच्छा होता. हर चूनावके पहले महंगाई में कमी जरुर होती हैं. यही हैं आम आदमी की जिंदगी जो महंगाई की चक्की में पिस रहा हैं. मुझे तो महंगाई मार गई ....
Saturday, February 20, 2010
Sunday, February 14, 2010
MY NAME IS.....
दुनिया में सिर्फ दो तरह के लोग होते हैं अच्छे और बुरे विचारधारा के , बहुत ही नेक सोच हैं इसपे कोई दो राय नहीं. पिछले दस दिनोसे मैं येही देख रहा हूँ टीवि पर, नेट पर सभी जगह यही खबर थी इसके अलावा कुछ देखही नहीं पाते थे. उनका नाम से क्या वास्ता कुछ भी तो नहीं वैसा तो शेक्सपियर ने कहा था की नाम में क्या रखा हैं. लेकिन हमारी राजनातिक पार्टियाँ पूरी तरह नाम पे ही निर्भर हैं नाकि काम पे. शिवसेना ने सरकार को झुकाने ने के लिए मैदान में उतरी थी यह कहकर की माय नेम इज ..... और दूसरी तरफ कांग्रेस के सी एम माय नेम इज ...... दोनों भी अपनी अपनी जिद पर इतने अड़ गए थे की किसका नाम आगे लायें इस महाभारत में सारी सरकार माय नेम के पीछे खड़ी थी ओ भी पूरी पुलिस फौज के साथ और इसके साथ ओ यह भूल गयी थी की शांति का संदेश देनेवाली माय नेम इज... के बावजूद भी आतंकवादी हमला हो सकता हैं. इसी बात का फायदा उठाकर आतंकीयों ने पुणे ब्लास्ट को अंजाम दिया था. कौन हैं इसके लिए जिम्मेदार? जहाँ कुछ निरपराध लोग मारे गएँ और कई लोग घायल हुए. और उन घायलों को अस्पताल भर्ति किया गया सिर्फ इंसान के नाम पर या माय नेम इज .....तो ही मुझे भर्ती करों, क्या कोई घायल ऐसा तो नहीं कह रहा था. मैं सभी मीडिया कर्मी और राजनितिक दलोंसे गुजारिश करना चाहता हूँ की आप मुंबई , मराठा मानुस और माय नेम इज ... को बक्श दो और देश की तरफ ध्यान दो और सोचो की आतंकवादी हादसों से किस तरह निपट सके.
उन दिनों की बात हैं मैं मुंबई में रहा करता था और अभी भी मैं कभी कभी मुंबई जाया करता हूँ लेकिन मैं सौ प्रतिशत दावे के साथ कह सकता हूँ की मुंबई में लोग जितने सुरक्षित और एक हैं ओ दुसरे किसी शहर में नहीं हैं. लेकीन हमारा मीडिया शायद मुंबई का नाम बदलकर TRP ही रख दिया हैं. क्या मीडिया को मुंबई के अलावा दुसरा कोई शहर मिला ही नहीं. कहते हैं भारत गांवो का देश हैं लेकीन क्या हमारे मीडिया ने गांवो के तरफ भी कभी देखा हैं. कई मराठी भाषिक मेरे दोस्त थे साथ में UP और कर्नाटका और केरल से आये हुए बहुतसे लोग थे जो हम एक साथ रहकर हमारा दुःख दर्द बाँटते थे और कभी कभी खुशियाँ भी. उनके नाम अलग अलग थे रहन सहन अलग थे लेकिन दिवाली हो या ईद मुबारक बात देना कभी नहीं भूलते थे. और आज भी यही हालात हैं सिर्फ एक बात छोड़कर माय नेम इज.....
अब सोचने वाली बात यह हैं की बॉम्बे का नाम मुंबई हो गया लेकिन वहां कुछ भी नहीं बदला इस लिए मैं कहता हूँ की नाम पे जोर देंने जरुरत नहीं क्यूँ की नाम से ज्यादा काम को महत्व देना चाहेयें. जिस काम से हमें दो वक्त की रोटी मिलती हैं और उसके साथ साथ हमारा नाम भी सलामत रहता हैं. आप जब एक अजनबी शहर में जाते हैं तो आपका काम ही आपके नाम को सही सलामत रखता हैं. आप किस तरह काम कर रहे हैं, क्या कर रहे हैं कैसे कर रहें हैं इससे ही अपने नाम को एक दिशा मिलती हैं. मेरा यह कहना नहीं हैं की नाम का कुछ भी महत्त्व नहीं हैं. नाम तो केवल एक पहचान का चिन्ह हैं समाज की इस वयस्था को बरकरार रखने का एक तंत्र हैं. जो की हिसाब किताब रखने की एक व्यवस्था हैं.
एक दिन मैं मेरे मित्र को मिलने के लिए मैं एक होटल में गया था वहां के GUARD ने मुझे देखते ही सलाम किया मैं उसकी तरफ देखा तक नहीं फिर ओ बोल पड़ा " साहब मुझे पह्चान लिया क्या ? जब मैं उसका चेहरा देखा तो मालूम पड़ा की वह पहले हमारे ऑफिस में काम किया करता था लेकीन नाम याद नहीं आ रहाथा. मैने कहा भाई मुझे आपका काम और चेहरा तो मालूम हुआ लेकिन नाम याद नहीं हैं. फिर उसने कहा " सर माय नेम इज...."
जब भी हम बहुतसे लोगोंसे या पुराने मित्रोंसे मिलते हैं तो सबसे पहले हमें उसका काम और चेहरा याद आता हैं. बाद में उसका नाम लेकिन हम नाम के बारेमें ज्यादा सोचते नहीं हमें सिर्फ वह क्षण याद आते हैं जो उसके साथ बिताएं हैं. कभी किसी एक छोटेसे रेस्तरां में चाय या काफी के साथ मजे लिए थे यही सब कुछ. शायद ऐसे कई लोग होगे जहाँ पुणे के उस GERMAN BAKERY में अपनों के साथ कुछ पल बिताने के लिए आये थे जो अपने यादों के सफ़र से हमेशा के लिए जुदा हो गए और अपनो का साथ छोड़कर इस दुनियासे चले तो गएँ लेकिन कुछ पल छोड़ गए जो साथ में बिताएं हुये उस GERMAN BAKERY के साथ. ओ भी बिना बताएं माय नेम इज...
जीवन की लढाई लड़ते लड़ते जो मर गए मैं उन्हें शहीद कहकर प्रणाम करता हूँ और उनके परिजनोके दुःख में शामिल होता हूँ.
उन दिनों की बात हैं मैं मुंबई में रहा करता था और अभी भी मैं कभी कभी मुंबई जाया करता हूँ लेकिन मैं सौ प्रतिशत दावे के साथ कह सकता हूँ की मुंबई में लोग जितने सुरक्षित और एक हैं ओ दुसरे किसी शहर में नहीं हैं. लेकीन हमारा मीडिया शायद मुंबई का नाम बदलकर TRP ही रख दिया हैं. क्या मीडिया को मुंबई के अलावा दुसरा कोई शहर मिला ही नहीं. कहते हैं भारत गांवो का देश हैं लेकीन क्या हमारे मीडिया ने गांवो के तरफ भी कभी देखा हैं. कई मराठी भाषिक मेरे दोस्त थे साथ में UP और कर्नाटका और केरल से आये हुए बहुतसे लोग थे जो हम एक साथ रहकर हमारा दुःख दर्द बाँटते थे और कभी कभी खुशियाँ भी. उनके नाम अलग अलग थे रहन सहन अलग थे लेकिन दिवाली हो या ईद मुबारक बात देना कभी नहीं भूलते थे. और आज भी यही हालात हैं सिर्फ एक बात छोड़कर माय नेम इज.....
अब सोचने वाली बात यह हैं की बॉम्बे का नाम मुंबई हो गया लेकिन वहां कुछ भी नहीं बदला इस लिए मैं कहता हूँ की नाम पे जोर देंने जरुरत नहीं क्यूँ की नाम से ज्यादा काम को महत्व देना चाहेयें. जिस काम से हमें दो वक्त की रोटी मिलती हैं और उसके साथ साथ हमारा नाम भी सलामत रहता हैं. आप जब एक अजनबी शहर में जाते हैं तो आपका काम ही आपके नाम को सही सलामत रखता हैं. आप किस तरह काम कर रहे हैं, क्या कर रहे हैं कैसे कर रहें हैं इससे ही अपने नाम को एक दिशा मिलती हैं. मेरा यह कहना नहीं हैं की नाम का कुछ भी महत्त्व नहीं हैं. नाम तो केवल एक पहचान का चिन्ह हैं समाज की इस वयस्था को बरकरार रखने का एक तंत्र हैं. जो की हिसाब किताब रखने की एक व्यवस्था हैं.
एक दिन मैं मेरे मित्र को मिलने के लिए मैं एक होटल में गया था वहां के GUARD ने मुझे देखते ही सलाम किया मैं उसकी तरफ देखा तक नहीं फिर ओ बोल पड़ा " साहब मुझे पह्चान लिया क्या ? जब मैं उसका चेहरा देखा तो मालूम पड़ा की वह पहले हमारे ऑफिस में काम किया करता था लेकीन नाम याद नहीं आ रहाथा. मैने कहा भाई मुझे आपका काम और चेहरा तो मालूम हुआ लेकिन नाम याद नहीं हैं. फिर उसने कहा " सर माय नेम इज...."
जब भी हम बहुतसे लोगोंसे या पुराने मित्रोंसे मिलते हैं तो सबसे पहले हमें उसका काम और चेहरा याद आता हैं. बाद में उसका नाम लेकिन हम नाम के बारेमें ज्यादा सोचते नहीं हमें सिर्फ वह क्षण याद आते हैं जो उसके साथ बिताएं हैं. कभी किसी एक छोटेसे रेस्तरां में चाय या काफी के साथ मजे लिए थे यही सब कुछ. शायद ऐसे कई लोग होगे जहाँ पुणे के उस GERMAN BAKERY में अपनों के साथ कुछ पल बिताने के लिए आये थे जो अपने यादों के सफ़र से हमेशा के लिए जुदा हो गए और अपनो का साथ छोड़कर इस दुनियासे चले तो गएँ लेकिन कुछ पल छोड़ गए जो साथ में बिताएं हुये उस GERMAN BAKERY के साथ. ओ भी बिना बताएं माय नेम इज...
जीवन की लढाई लड़ते लड़ते जो मर गए मैं उन्हें शहीद कहकर प्रणाम करता हूँ और उनके परिजनोके दुःख में शामिल होता हूँ.
Tuesday, February 9, 2010
मदारी का खेल
एक गाँव में एक मदारी बन्दर का खेल दिखा रहा था. और वहां बहुत सारे लोग जमा होकर बन्दर का खेल देख कर मजा ले रहे थे. क्यूँ की गाँव उससे अच्छा मनोरंजन हो ही नहीं सकता था. लेकिन अब हमें हर जगह मदारी दिखाइ देते हैं. और उसे देखने केलिए हमें बहार जाने की जरुरत नहीं, क्यूँ की मदारी और बन्दर का शो हर घर में दिखाई देता हैं ओ भी टेलीविज़न के माध्यम से.
अब सोचने वाली बात यह हैं की हम सब जिंदगी में कभी ना कभी बन्दर बनते ही हैं और मदारी के इशारे पे नाचते हैं. जैसा की बड़े उद्योग समूह अपना माल बेचने के लिए बड़ेसे बड़े फ़िल्मी सितरोंको नचाते हैं. और बडेसे बड़े खिलाडियों को बन्दर बनाकर तमाशा दिखाते हैं.और ठीक इसी तरह नेता लोग लोगोंको को बंदर बनाकर नचाते हैं.
जैसा की कोई नेता जब चुनाव जीत जाता हैंतो लोग उमड़ पड़ते है और अपना नाच गाना सुरु करते हैं. ठीक इसी तरह हम कभी ना कभी बंदर का रोल अदा करते हैं.
जैसा की महासचिव का मुंबई का दौरा सभी को खूब नचाया था. सी एम से लेकर सभी मंत्रिगन और साथ में सभी पुलिसवाले भी. ठीक इसी तरह सेना ने भी आपने बंदरोंको नाचने के लिया खुला छोड़ा था लेकिन उनके बन्दर अब थक चुके थे क्यूँ की पिछले कई सालोंसे से नाचते और तमाशा दिखाकर थक गये थे. इस लिए उन्होंने नाचना बंद कर दिया था. मीडिया के मदारियोने आपने आपने बंदरोंको मैदान में उतारा था की कुछ सनसनीखेज खबर मिल सके और खूब तमाशा हो.
एक जमाना था क्रिकेट को हम बड़ी चाह से देखते थे क्यूँ की वह आपने देश के लिए खेलते थे. जब ओ देश के लिए खेलते थे तभी हम भी ख़ुशी से बन्दर बनकर नाचा करते थे क्यूँ की देश के सामने हम कुछ भी बन सकते हैं, यह बन्दर तो कुछ भी नहीं. लेकिन समय के साथ साथ कुछ परिवर्तन आया कुछ पैसो वालोने कुछ खिलाडीयोंको बन्दर बनाकर तमाशा दिखाना शुरू किया शायद उसे ही हम IPL कहते हैं. जहाँ हर खिलाडीके कीमत की बोली लगती हैं, और उन्हें मैदान में छोडा जाता हैं. और इस खेल को आप तक लाया जाता हैं. जिसे आप घर बैठे देख सकते हैं. शायद आपको मालूम होगा की अब जो मदारी बन बैठे हैं. ओ भी एक जमानेमें बन्दर का रोल मिभाया करते थे. शायद बन्दर भी मदारी के चाल को समझ चुके थे और उन्होंने सोचा की क्यूँ की हम बन्दर बनकर क्यूँ नाचे हम भी मदारी बन सकते हैं. जैसा की कुछ हीरो जो बन्दर बनकर निर्देशक के इशारेपे नाचा करते थे अब ओ खुद मदारी बन कर कुछ बंदरोंको खरीदकर खेल शुरू किया, लेकिन मदारी के मन में एक आस थी की शायद अच्छा खेल दिखाना हो तो कुछ पडोसी देश के बन्दर खरीद सके. लेकिन वहां एक बड़ा मदारी बैठा था उसके पास बहुत सी बंदरों की सेना थी. अब दोन्हो मदरियोंके बीच बहस हुई और इसी खेल को मीडिया ने टीवी के जरियें लोगों तक पहुंचा दिया और लोग भी बड़े चाव से इस खेल को देख रहे थे.
अब हमारे पास केवल दो ही विकल्प हैं या बन्दर बनकर नाचना या मदारी बनकर नचाना. लेकिन मदारी बनना उतना आसान नहीं हैं. क्यूँ की उसके लिए आपको पहले बन्दर बनकर नाच गाना दिखाकर पैसा जमा करना पड़ता हैं. उसके बाद ही मदारी बनकर नचाना पड़ता हैं. यहा सभी नियम केवल बन्दर के लिए हैं. मदारी के लिए कोई नियम हैं ही नहीं. मदारी जैसा कहता ठीक उसी ताल पर नाचना हैं. आज भारत में आम आदमी की हालत भी कुछ इसी तरह ही हैं. क्यूँ की बन्दर जब भी मदारीके इशारे पे नाचता हैं इसके बदले में उन्हें कुछ खाने को मिलता हैं. शायद इस वजह से ही बन्दर मदारिके इशारों पे नाचता हैं. शायद आम आदमी की जिंदगी भी इस बन्दर से कुछ अलग नहीं हैं. क्यूँ की इसे भी अपनी भूख मिटाने के लिए मदारी सरकार हर रोज नचाती हैं. कभी महंगाई के तार पर जहाँ बुनियादी जरूरतों को पूरा करने और जीनेके लिए बन्दर बनकर नाचनाही पड़ता हैं.
जब भी चुनाव आते हैं तभी थोड़े दिनोके लिए आम इन्सान मदारी बन जता हैं. और नेता बन्दर फिर एक बार ओ चुनाव जीत कर जाता हैंतो हम सब बन्दर और वो मदारी बन जाता हैं. और हमें कई सालों तक नचाता हैं. कभी काम के नामसे , कभी जात के नामसे कभी एकता के नाम से, और कभी कभी राम के नामसे. क्या यही हैं प्रजातंत्र ? आज हमें एक नयी सोच की जरुरत हैं जहाँ लोग अपने नेताओं के इशारोंपे नाचना छोड़कर खुद अपने ही मन की सच्चाई को मदारी बनाकर नाचना हैं. यही होगा हमारा प्रजातंत्र और यही होगा सच्चे मदारी का खेल.
अब सोचने वाली बात यह हैं की हम सब जिंदगी में कभी ना कभी बन्दर बनते ही हैं और मदारी के इशारे पे नाचते हैं. जैसा की बड़े उद्योग समूह अपना माल बेचने के लिए बड़ेसे बड़े फ़िल्मी सितरोंको नचाते हैं. और बडेसे बड़े खिलाडियों को बन्दर बनाकर तमाशा दिखाते हैं.और ठीक इसी तरह नेता लोग लोगोंको को बंदर बनाकर नचाते हैं.
जैसा की कोई नेता जब चुनाव जीत जाता हैंतो लोग उमड़ पड़ते है और अपना नाच गाना सुरु करते हैं. ठीक इसी तरह हम कभी ना कभी बंदर का रोल अदा करते हैं.
जैसा की महासचिव का मुंबई का दौरा सभी को खूब नचाया था. सी एम से लेकर सभी मंत्रिगन और साथ में सभी पुलिसवाले भी. ठीक इसी तरह सेना ने भी आपने बंदरोंको नाचने के लिया खुला छोड़ा था लेकिन उनके बन्दर अब थक चुके थे क्यूँ की पिछले कई सालोंसे से नाचते और तमाशा दिखाकर थक गये थे. इस लिए उन्होंने नाचना बंद कर दिया था. मीडिया के मदारियोने आपने आपने बंदरोंको मैदान में उतारा था की कुछ सनसनीखेज खबर मिल सके और खूब तमाशा हो.
एक जमाना था क्रिकेट को हम बड़ी चाह से देखते थे क्यूँ की वह आपने देश के लिए खेलते थे. जब ओ देश के लिए खेलते थे तभी हम भी ख़ुशी से बन्दर बनकर नाचा करते थे क्यूँ की देश के सामने हम कुछ भी बन सकते हैं, यह बन्दर तो कुछ भी नहीं. लेकिन समय के साथ साथ कुछ परिवर्तन आया कुछ पैसो वालोने कुछ खिलाडीयोंको बन्दर बनाकर तमाशा दिखाना शुरू किया शायद उसे ही हम IPL कहते हैं. जहाँ हर खिलाडीके कीमत की बोली लगती हैं, और उन्हें मैदान में छोडा जाता हैं. और इस खेल को आप तक लाया जाता हैं. जिसे आप घर बैठे देख सकते हैं. शायद आपको मालूम होगा की अब जो मदारी बन बैठे हैं. ओ भी एक जमानेमें बन्दर का रोल मिभाया करते थे. शायद बन्दर भी मदारी के चाल को समझ चुके थे और उन्होंने सोचा की क्यूँ की हम बन्दर बनकर क्यूँ नाचे हम भी मदारी बन सकते हैं. जैसा की कुछ हीरो जो बन्दर बनकर निर्देशक के इशारेपे नाचा करते थे अब ओ खुद मदारी बन कर कुछ बंदरोंको खरीदकर खेल शुरू किया, लेकिन मदारी के मन में एक आस थी की शायद अच्छा खेल दिखाना हो तो कुछ पडोसी देश के बन्दर खरीद सके. लेकिन वहां एक बड़ा मदारी बैठा था उसके पास बहुत सी बंदरों की सेना थी. अब दोन्हो मदरियोंके बीच बहस हुई और इसी खेल को मीडिया ने टीवी के जरियें लोगों तक पहुंचा दिया और लोग भी बड़े चाव से इस खेल को देख रहे थे.
अब हमारे पास केवल दो ही विकल्प हैं या बन्दर बनकर नाचना या मदारी बनकर नचाना. लेकिन मदारी बनना उतना आसान नहीं हैं. क्यूँ की उसके लिए आपको पहले बन्दर बनकर नाच गाना दिखाकर पैसा जमा करना पड़ता हैं. उसके बाद ही मदारी बनकर नचाना पड़ता हैं. यहा सभी नियम केवल बन्दर के लिए हैं. मदारी के लिए कोई नियम हैं ही नहीं. मदारी जैसा कहता ठीक उसी ताल पर नाचना हैं. आज भारत में आम आदमी की हालत भी कुछ इसी तरह ही हैं. क्यूँ की बन्दर जब भी मदारीके इशारे पे नाचता हैं इसके बदले में उन्हें कुछ खाने को मिलता हैं. शायद इस वजह से ही बन्दर मदारिके इशारों पे नाचता हैं. शायद आम आदमी की जिंदगी भी इस बन्दर से कुछ अलग नहीं हैं. क्यूँ की इसे भी अपनी भूख मिटाने के लिए मदारी सरकार हर रोज नचाती हैं. कभी महंगाई के तार पर जहाँ बुनियादी जरूरतों को पूरा करने और जीनेके लिए बन्दर बनकर नाचनाही पड़ता हैं.
जब भी चुनाव आते हैं तभी थोड़े दिनोके लिए आम इन्सान मदारी बन जता हैं. और नेता बन्दर फिर एक बार ओ चुनाव जीत कर जाता हैंतो हम सब बन्दर और वो मदारी बन जाता हैं. और हमें कई सालों तक नचाता हैं. कभी काम के नामसे , कभी जात के नामसे कभी एकता के नाम से, और कभी कभी राम के नामसे. क्या यही हैं प्रजातंत्र ? आज हमें एक नयी सोच की जरुरत हैं जहाँ लोग अपने नेताओं के इशारोंपे नाचना छोड़कर खुद अपने ही मन की सच्चाई को मदारी बनाकर नाचना हैं. यही होगा हमारा प्रजातंत्र और यही होगा सच्चे मदारी का खेल.
Monday, February 1, 2010
रात और दिन
एक बार दिन बोला,
रात तू कितनी काली हैं
चाँद के साथ रहती,
जैसा की चाँद की साली हैं
चाँद भी कभी आंख तो कभी
हल्किसी रौशनी मारता हैं
कभी पूरी आंख खोलता हैं
तो कभी बंद करता हैं
रात बोली तेरे पास हैं
उजाला ही उजाला
जलता हुआ सूरज
लगता हैं तेराही साला
लेकिन तेरे पास हैं
सिर्फ काम ही काम
मेरे पास हैं चैन की
नींद और आराम
दिन बोला तेरे पास आंख
वाला भी होता हैं अंधा,
तेरे साये तले टिकी हैं चोरी,
और चलता हैं काला धंदा
रात बोली मेरे पास हैं
चाँद और चमकते सितारें
घर घर और गली में
चमकते हैं दीपक सारे
मेरे पास जीने की
और पीने की प्यास हैं
मौज मस्ती और
मिलन का अहसास हैं
समय सुन रहा था
यह बहस दूर खडा होकर
बोल उठा दिन और
रात के पास आकर
तुम दोनोंही एक काम करना
दोनों ही साथ साथ आना
ना रात के बाद दिन, बल्की
हाथोमें में हाथ लिए आना
दिन और रात को आयीं
समझ समय की यह बात
की दिन और रात कभी
नही आएंगे साथ साथ
एक के बाद एक आना
यही है तुम्हारा काम
दिन के बाद रात हो
यही हैं जीवन तेरा नाम
रात तू कितनी काली हैं
चाँद के साथ रहती,
जैसा की चाँद की साली हैं
चाँद भी कभी आंख तो कभी
हल्किसी रौशनी मारता हैं
कभी पूरी आंख खोलता हैं
तो कभी बंद करता हैं
रात बोली तेरे पास हैं
उजाला ही उजाला
जलता हुआ सूरज
लगता हैं तेराही साला
लेकिन तेरे पास हैं
सिर्फ काम ही काम
मेरे पास हैं चैन की
नींद और आराम
दिन बोला तेरे पास आंख
वाला भी होता हैं अंधा,
तेरे साये तले टिकी हैं चोरी,
और चलता हैं काला धंदा
रात बोली मेरे पास हैं
चाँद और चमकते सितारें
घर घर और गली में
चमकते हैं दीपक सारे
मेरे पास जीने की
और पीने की प्यास हैं
मौज मस्ती और
मिलन का अहसास हैं
समय सुन रहा था
यह बहस दूर खडा होकर
बोल उठा दिन और
रात के पास आकर
तुम दोनोंही एक काम करना
दोनों ही साथ साथ आना
ना रात के बाद दिन, बल्की
हाथोमें में हाथ लिए आना
दिन और रात को आयीं
समझ समय की यह बात
की दिन और रात कभी
नही आएंगे साथ साथ
एक के बाद एक आना
यही है तुम्हारा काम
दिन के बाद रात हो
यही हैं जीवन तेरा नाम
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