अब सोचने की बात यह हैं की हम जन्मदिन मनाते हैं क्यूँ की हम एक साल बड़े हो गए इस लिए, हाँ यही सच हैं. लेकीन सत्य नहीं. सत्य इससे बिलकुल विपरीत हैं. हमारे जीवन में का एक अमूल्य वर्ष व्यर्थ में चला गया, या हम इस वर्ष में बहुत कुछ हासिल किया हैं, क्या इस लिए ही हम उत्सव मना रहे हैं ? सत्य तो यह हैं की हम मृत्यु एक साल और करीब आ गए हैं. अगर हम यही बात उस महाशय के सामने रखते क्या होगा ? ऐसे शुभ अवसर पर ऐसी बात! बल्कि बाकि लोग भी यही सोचेंगे की ऐसे शुभ अवसर पर कैसी बातें कर रहा हैं. क्यूँ की सत्य दिखाई नहीं पड़ता जैसा की म्रत्यु,शायद इस लिए ही हमें म्रत्यु की तारीख मालूम नहीं पड़ती.
जन्म के लिए एक तारीख होती हैं जिस तारीख को इंसान ने आपने सहूलियत के लिए बनया हैं. जिसमे कुछ अंक दिन और महिनोंके नाम जोड़कर, जिसे हम कैलेंडर कहते हैं. अब एहां कैलेंडर सच हैं .लेकिन सत्य नहीं. क्यूँ की कैलेंडर में भी बहुतसे कैलेंडर हैं. आप अगर हिन्दू कैलंडर देखते हैं तो उसका नंबर इसाई कैलंडर से अलग ही होगा. और दोनों तिथियोंका मिलन कदापि नहीं होंगा. अब सवाल यह हैं की कौनसी तिथि निश्चित करके जन्मदिन मनाएं. यह सब तो मानवी खेल हैं. सत्य तो यह हैं की सूरज और पृथ्वी के बिच जो क्रम बना हैं वही सत्य हैं. लेकिन हमें वह दिखाई नहीं पड़ता, जिसे हम देखते हैं की सूरज पूरब से उगता हैं और पश्चिम से डूबता हैं, यही देखे हैं, देख रहे हैं और आगे भी देखते रहेंगे. इस लिए सत्य दिखाई नहीं देता.
जिस हवा को हम नहीं देख सकते लेकिन उसे हम महसूस जरूर कर सकते येही सत्य हैं. सच को हम देख सकते हैं. सच के पास सबूत होते हैं. लेकिन सत्य के पास सबूत नहीं हैं. जहाँ सबुत हैं वह लौकिक हैं. सत्य अध्यात्मिक हैं. जहाँ जन्म हैं वही मृत्यु हैं, अब हमें यह सोचने की जरुरत हैं की जन्मदिन मना रहे है या मृत्युदिन, जब से हमारा जन्म हुआ हैं उसी क्षणसे हम मृत्यु के और बढ़ रहे हैं, इसका मतलब यह हैं हम हर क्षण मर रहे हैं. जब हम जन्मदिन मनाते हैं तब हम मृत्यु के बारे में ही सोचते हैं जो मृत्यु का डर हैं उसे छुपाने की एक नाकाम कोशिस करते हैं. अगर हम मृत्यु से डरते नहीं तो जन्मदिन मनाने के आवश्कता ही नहीं. क्यूँ की कुछ क्षण हम ख़ुशी हासिल करना चाहते हैं. शायद इसी ख़ुशी से मृत्यु का डर कम कर सके. ऐसी बहुतसे बातें हैं जैसा की हम पाणी को देख सकते हैं लेकीन तृषा नहीं देख सकते लेकिन हम उसे महसूस कर सकते हैं.
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भगवान बुद्ध जब पहली बार राज भवन से बहार निकले थे उसी दिन मृत्यु को समझ गए थे और उसी दिनसे उन्होंने राज दरबार त्याग दिया.क्यूँ की ओ सत्य को जान चुके थे. जीसस को जब क्रूस पर बांध कर, हाथ और पैरोंमें किले ठोक कर गोल्गुत्था के पहाड़ पर ले जा रहे थे तभी भी ओ लोगोंको उपदेश ही दे रहेथे क्यूँ की ओ मृत्यु के डर से कोसों दूर थे. बल्कि वहां देखने वाले लोगही ज्यादा डरे हुए थे. समझो किसी एक इंसान को मालूम हैं की वह मर ही नहीं सकता तो जन्म दिन मनायेगा ही नहीं. अगर मनाता भी हैं तो उतना उत्साह नहीं होगा, क्यूँ की मृत्यु को चुनौती देने का आभास नहीं करेगा. यह सब मायावी हैं या उसे हम मानवी भी कह सकते हैं. जन्मदिन हमने बनाए हुए नियम है, जो की हम सुख की तलाश में रहते हैं. क्यूँ की डर से दूर भाग सके. डर का कारण ही मृत्यु हैं, मृत्यु ही जीवन का अंतिम सत्य हैं.
रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय ।
हीरा जन्म अमोल था, कोड़ी बदले जाय ॥
ठीक इसी तरह जीवन के अनमोल साल बिता देते हैं और हर साल उल्हास के साथ जन्म दिन मनाते हैं. और झूट मुठ ही बधाई देते हैं. तुम जियो हाजोरों साल.. बोल तो सच हैं, लेकिन सत्य नहीं. लेकिन सुनते समय हमें लगता हैं की हम मृत्यु बहुत ही दूर हैं.
जब हमारे ग्रंथो में गार्गेयी का वर्णन आता हैं की ओ वस्त्रहीन रहती थी. शर्म से लोग उसके तरफ देखते ही नहीं थे. क्यूँ की देखने वाले की नज़र में खोट थी पाप था, अभी भी होता हैं कामवासना लिप्त आदमी जब भी स्त्री को देखता हैं तो वस्त्र होने के बाद भी उसे वस्त्रहीन महसूस करता हैं. अगर ऐसा नहीं होता तो बुर्खें या पर्दों की जरुरत ही नहीं होती. एहां वस्त्र सच हैं और शारीर सत्य हैं क्यूँ की यहाँ वस्त्र बदल सकते हैं शारीर तो वही जो सत्य का प्रतिक हैं. यही फर्क हैं सत्य और सच में.