Friday, January 22, 2010

सत्य और सच-२




                  हमारे एक सहयोगी ने एक बड़े होटल में बर्थडे  पार्टी रखी थी. ओ अब ६६ साल के हुए थे. बहुतसे लोग पार्टी में आये थे और बधाई के लिए लोग कतार में खड़े थे. वह कतार देख कर मुझे हमारे इलाके का शिवमंदिर याद आया वहां भी लोग ठीक उसी तरह कतार में खड़े रहते हैं. सब कुछ होने के बाद भी  भगवान से कुछ ना कुछ  मांगते  जरुर  हैं.

                     अब सोचने की बात   यह हैं की हम जन्मदिन मनाते हैं क्यूँ  की हम एक साल बड़े हो गए इस लिए, हाँ यही सच हैं. लेकीन  सत्य नहीं. सत्य इससे बिलकुल विपरीत हैं. हमारे  जीवन में  का एक अमूल्य  वर्ष व्यर्थ  में चला गया, या हम इस वर्ष में बहुत कुछ हासिल किया हैं, क्या इस लिए ही हम  उत्सव मना रहे हैं ?  सत्य तो यह हैं की  हम  मृत्यु  एक साल और करीब आ गए हैं.   अगर हम यही बात उस महाशय  के सामने रखते क्या होगा ?  ऐसे शुभ अवसर पर ऐसी बात! बल्कि  बाकि लोग भी यही सोचेंगे की ऐसे शुभ अवसर पर  कैसी  बातें  कर रहा हैं.   क्यूँ की सत्य दिखाई नहीं पड़ता जैसा की म्रत्यु,शायद इस लिए ही हमें म्रत्यु की तारीख मालूम नहीं पड़ती.
                
                  जन्म के लिए एक तारीख होती हैं जिस तारीख को इंसान ने आपने सहूलियत के लिए बनया हैं. जिसमे कुछ अंक दिन और महिनोंके नाम जोड़कर,  जिसे हम कैलेंडर कहते हैं. अब एहां  कैलेंडर सच हैं .लेकिन सत्य नहीं. क्यूँ की कैलेंडर में भी बहुतसे कैलेंडर हैं. आप अगर हिन्दू  कैलंडर देखते हैं तो उसका नंबर इसाई कैलंडर से अलग ही होगा. और दोनों  तिथियोंका  मिलन  कदापि नहीं होंगा. अब सवाल यह हैं की कौनसी तिथि निश्चित  करके जन्मदिन  मनाएं.  यह सब तो मानवी खेल हैं. सत्य तो यह हैं की सूरज और पृथ्वी के बिच जो क्रम बना हैं वही सत्य हैं.  लेकिन हमें वह दिखाई नहीं पड़ता, जिसे हम देखते हैं की सूरज पूरब से उगता हैं और पश्चिम से डूबता हैं, यही  देखे  हैं, देख रहे हैं  और आगे भी देखते रहेंगे. इस लिए सत्य दिखाई नहीं देता.

                    जिस हवा को हम नहीं देख सकते लेकिन उसे हम महसूस जरूर कर सकते  येही सत्य हैं. सच को हम देख सकते हैं. सच के पास सबूत होते  हैं. लेकिन सत्य के पास सबूत नहीं हैं. जहाँ सबुत हैं वह लौकिक  हैं.  सत्य  अध्यात्मिक हैं. जहाँ जन्म हैं वही मृत्यु हैं, अब हमें यह सोचने की जरुरत हैं की जन्मदिन मना रहे है या मृत्युदिन,  जब से हमारा  जन्म हुआ हैं उसी क्षणसे  हम मृत्यु के और बढ़ रहे हैं, इसका मतलब यह हैं हम हर क्षण मर रहे हैं.  जब हम जन्मदिन मनाते हैं तब हम मृत्यु के बारे में ही सोचते हैं जो मृत्यु का डर हैं उसे छुपाने की एक नाकाम कोशिस करते हैं.  अगर हम मृत्यु से डरते नहीं तो जन्मदिन मनाने के आवश्कता ही नहीं. क्यूँ की कुछ क्षण हम ख़ुशी हासिल करना चाहते हैं. शायद इसी ख़ुशी से मृत्यु का डर कम कर सके.  ऐसी   बहुतसे बातें  हैं जैसा की हम पाणी को देख सकते हैं लेकीन  तृषा नहीं देख सकते लेकिन हम उसे महसूस कर सकते हैं.
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           भगवान बुद्ध जब पहली बार राज भवन से बहार निकले थे उसी दिन मृत्यु को समझ गए थे और उसी दिनसे उन्होंने राज दरबार त्याग  दिया.क्यूँ की ओ सत्य को जान चुके थे.    जीसस को जब क्रूस पर बांध कर, हाथ  और  पैरोंमें  किले ठोक कर  गोल्गुत्था के पहाड़ पर ले जा रहे थे तभी भी ओ  लोगोंको उपदेश ही दे रहेथे क्यूँ की ओ मृत्यु के डर से कोसों दूर थे.  बल्कि वहां देखने वाले  लोगही  ज्यादा डरे हुए थे.  समझो किसी एक इंसान को मालूम हैं की वह मर ही नहीं सकता  तो जन्म दिन मनायेगा ही नहीं. अगर मनाता भी हैं तो उतना उत्साह नहीं होगा, क्यूँ  की मृत्यु को चुनौती देने का आभास नहीं करेगा. यह सब  मायावी हैं या उसे हम मानवी भी कह सकते हैं. जन्मदिन हमने बनाए  हुए नियम है, जो की हम सुख की तलाश में रहते हैं. क्यूँ की डर से दूर भाग  सके. डर का कारण ही मृत्यु हैं, मृत्यु   ही जीवन का अंतिम सत्य हैं.

रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय ।
हीरा जन्म अमोल था, कोड़ी बदले जाय ॥
ठीक   इसी तरह जीवन के अनमोल साल बिता देते हैं और हर साल उल्हास के साथ जन्म दिन मनाते हैं. और झूट मुठ  ही  बधाई देते हैं. तुम जियो हाजोरों साल.. बोल तो सच हैं,  लेकिन सत्य नहीं. लेकिन सुनते समय हमें लगता हैं की हम मृत्यु बहुत ही दूर हैं.

                 जब हमारे ग्रंथो में गार्गेयी का वर्णन आता हैं की ओ वस्त्रहीन रहती थी. शर्म से लोग उसके तरफ देखते ही नहीं थे.  क्यूँ की देखने वाले की नज़र में खोट थी पाप था, अभी भी होता हैं कामवासना लिप्त  आदमी जब भी  स्त्री  को  देखता हैं तो वस्त्र होने के बाद भी  उसे वस्त्रहीन महसूस करता  हैं. अगर ऐसा नहीं होता तो बुर्खें  या पर्दों की जरुरत ही नहीं होती. एहां वस्त्र सच हैं और शारीर सत्य हैं क्यूँ  की यहाँ वस्त्र बदल सकते हैं शारीर तो वही जो सत्य का प्रतिक हैं. यही फर्क हैं सत्य और सच में.

Thursday, January 14, 2010

रण...TRUTH IS TERRIBLE



                                                २६/११ का ओ काला दिन शायद ही कोई भारतीय भूल सकता हैं. उसके साथ साथ जो नेता लोग ओ भी शायद कभी  भूल नहीं पाएंगे, खास कर शिवराज पाटिल चाकुरकर, आर आर पाटिल और विलासराव देशमुख. शायद इस लिए नही जो मुंबई में कई लोग शहीद हुये, बल्कि इस लिए  की इस घटना के बाद  उनकी खुर्सीयां  छिनी गयी थी. और इस घटना क्रम में 'मीडिया' की  बहुत ही अहम भूमिका थी. इसके साथ एक और नाम जोड़ा गया ओ एक नेता तो नहीं थे, लेकिन एक फिल्म निर्देशक थे जिनका नाम हैं राम गोपाल वर्मा.  क्यूँ की उन्होंने एक गलती की थी की हमले के बाद विलासराव देशमुख के साथ ताज होटल का मुआयना करने निकल पड़े थे. और इस  बात  से  "मीडिया"ने  पूरा  हंगामा   खडा  किया था.  इसका मुख्य कारण तो यह था की सरकार "मीडिया" को उस जगह आने और फोटोग्राफी की इजाजात  नहीं  दी  थी.  मीडिया इस वाकये से खासा नाराज था, और उसके शिकार होगये राम गोपाल वर्मा और देशमुख साहब.


              अब बारी रामगोपाल वर्मा की थी शायद इस लिए उन्होंने "रण" फिल्म निकाली जिसके  अन्दर  जो  "मीडिया" की अन्दर की बात लोगो के सामने रखने का प्रयास किया हैं.  उसमे हमारे बिग बी के साथ साथ विलास राव के सुपुत्र  रितेश  देशमुख भी नज़र आयेंगे. पिक्चर में "इंडिया २४/७" नाम का न्यूज़ चैनल चलाते हैं, और उसके साथ हमारे  नेतागण कैसा मीडिया का उपयोग अपने स्वार्थ  लिए कर लेते हैं. यह सब कुछ दिखाया हैं. इन्तजार  करो  फिल्म  रिलीज़  होने का  इसके  बाद ही हम सही अंदाजा लगा सकते हैं की राम गोपाल वर्मा की फिल्म "रण"  क्या गुल खिलाती हैं.  लेकिन एक बात तो जरुर तय  हैं की यह फिल्म "मीडिया" में सेंध जरुर लगाएगी. पहले
 नेताओं पर फ़िल्में बनती थी जो उनका काला चिट्टा उजागर करती थी. क्या अब मीडिया भी उसी श्रेणी में आ गया हैं ?


           अब हमें यह सोचने की जरुरत हैं क्या हमारा मीडिया सत्ताधारी लोगों के इशारे पे तो नहीं चल रहा हैं? अगर हम मान लेते जी हाँ हामारा "मीडिया" सही रस्ते पे चल रहा हैं तो हर मीडिया वाले सत्ताधारी पक्ष के साथ हैं ऐसा क्यूँ मालूम पड़ता हैं? क्यूँ की बिहार में नितीश कुमार ने जो प्रगति का रास्ता चुना हैं उसके बारे में बहुत  ही कम बोलता हैं. हमारे  "मीडिया" के पास आलोचना के अलावा  दुसरा मुद्दा दिखाई  नहीं पड़ता. आलोचना करना गलत नहीं हैं,  लेकिन जो अच्छा काम करता हैं उसकी प्रशश्ति करना भी जरुरी हैं.


                     मैंने चिरफाड़ में हमारे विनोद साहब का एक ब्लॉग पढ़ा था उसमे नागपुर से निकलनेवाले समाचार पत्र पर हमला हुआ था तो "मीडिया" किधर गया था. जब वही हामला IBN लोकमत के दप्तर पे हुआ था तो पूरा "मीडिया" गरज उठा था. इसका एक ही कराण था की वह एक छोटासा अखबार, ओ कोई चैनल नहीं था. इससे  "मीडिया"  की भूमिका पर संदेह होता हैं.  और ओभी शिव सेना ने हमला किया था तो खबर और मसालेदार होगी ही और इसके साथ साथ TRP भी बढ़ेगी.


               अब हमारा अहम सवाल यह हैं की, क्या हमारा "मीडिया" निष्पक्ष हैं?  क्या हम "मीडिया" पे भरोसा कर सकते हैं ?  क्या ओ लोकशाही का आधार बन सकता हैं?  क्या हमारे न्यूज़ चैनल भी किसी पक्ष के तले दबे हुए हैं. जैसा  की सामना शिवसेनाका,  लोकमत कांग्रेसका क्या इसी तरह हमारे न्यूज़ चैनल भी किसी एक पक्ष के साथ तो नही हैं?  क्या "मीडिया" भी सरकार या नेताओं से हप्ता तो नहीं लेता? अगर ऐसाही  चलता रहा तो ओ दिन दूर नहीं की की लोगों का "मीडिया" से भरोसा उठ जायेगा.   सुनो! सुनो! मीडिया की वजह से लोग नहीं बल्कि लोगोंकी वजह से  "मीडिया" हैं.

Tuesday, January 12, 2010

मेरी जमीं, मेरा देश..



             एक गाँव में एक जमींदार रहता था. उसके पास तक़रीबन १०० एकर के  आस पास जमीं थी. और उसके पड़ोस में एक छोटासा किसान रहता था उसके पास तक़रीबन १०  एकर खेती थी. वह किसान अपनी छोटीसी जमीं पर मेहनत करके अच्छी फसल उगाकर जीवन व्यतीत करता था. साल में कुछ पैसे बचाही लेता था.किसान बहुत ही भोला था ओ हमेशा ही गांधीजी के उसूलों पर चलता था. जैसा की बुरा मत सुनो, बुरा मत देखो और बुरा मत बोलो. अगर कोई उसेके एक गाल पर थप्पड़ मरता तो ओ दुसरा गाल आगे करता. 

              एक दिन वह खेत में पेड़ के छाव में  आराम करते करते  उसके दिमाग में कुछ साल पहले की घटनाएं  याद आ रही थी .  उसके पास आसल में ११  एकर खेती थी. उसके एक एकर पर जमींदार ने कब्ज़ा जमाया  था. एक दिन जमींदार ने उसे चाय को बुलाकर,दोस्ती का हाथ बढाकर  रातोरात जमीं पर कब्ज़ा कर रखा था.  जब दुसरे दिन  सुबह  देखता तो उसकी १ एकर जमीं जमींदार के कब्जे में थी. उसने गाँव के सरपंच के पास आपनी  शिकायत दर्ज की, फिर सरपंच ने दोन्हो के बिच में करार पत्र बनया, जिसमे लिखा था की  "यह जमीं जीसकी भी  हैं, इसका हल तो सर्वे के बाद ही होगा और सर्वे की पूरी रक्कम जमींदार ही चुकाएगा. अगर जमीं ज्यादा निकली तो खुद ही नयी हद बनाकर  जमींदार स्वयं किसान को लौटा देगा ". इस बात  को अब  पच्चीस साल गुजर चुके  थे. लेकिन जमींदार वह सब भूल चुका था.


                  कुछ और दिन बीत गए अब किसान और जमींदार दोनोंही मर चुकेथे. अब कमान उनके बेटों के हाथों में थी. किसान का बेटा भी अपने बाप की तरह  दिन रात मेहनत करके अच्छा ही कमा लेता था. ओ भी गाँधी वादी था जो अपने पिता  की तरह. दूसरी तरफ  जमींदार  का बेटा, वो  भी ठीक अपने बाप के नक्शेकदम पर चलता था.


               कुछ और दिन बीत गएँ एक दिन (छोटा) किसान अपनी बेटी के लिए वर देखने गाँव चला गया. दो दिन जब अपने खेत पर जा देखता तो उसके खेत के तक़रीबन आधे एकर पर   जमींदार(छोटा ) कब्जा कर रखा था. और एक नए सीमा रेखा बनायीं थी अब छोटा किसान फरियाद ले कर किसके पास जाता क्यूँ की छोटे जमींदार का गाँव में इतना दब दबा था की कोई उसके खिलाप आवाज़ उठाने को तैयार  ही नाही था. उनने  जमींदार को पूछा तो उसने कहा "जो तुम्हारी जमीं थी, जिसपे तुम्हारे बाप ने कब्जा कर रखा था, वही जमीं वापस ले ली हैं".


                   किसान मन ही मन सोच रहा था. क्या सच्चाई के रस्ते पे चलने से  येही फल मिलता  हैं. इस जमींदार के अलावा उसके तिन  और पाडसी थे. पहला पडोसी उसके पास ५  एकर के आसपास जमीं थी ओ भी इस छोटे किसान के जमीं पर कब्जा कर राखा था, और ओ  खुले आम उनके गाय भैंसे उनके खेत में छोड़ देता था. और ओ खेत में घुसकर उसकी फसल को नष्ट  करने का प्रयास करते रहता था.  पूछने पर कहता था की ओ गाय भैंसे उसकी नाही थी बल्कि और एक पडोसी की थी.


             उसका  दुसरा पडोसी एक  छोटा किसान था. उसके पास  ३  एकर जमीं थी. और उसकाभी इस किसान से विवाद हो गया था क्यूँ  की  इसके  के खेत में से जो  पानी का बहाव सीधा दुसरे किसान के खेत में जाकर  उसकी फसल को हानी पहुंचाता  था. इसी वजह से इस पडोसी के साथ भी उसका रिश्ता उतना अच्छा नहीं था.
  
             तीसरा पडोसी जो था दिन भर छोटे किसान के साथ रहता था उसके पास एक एकर जमीं थी. लेकिन ओ भी आजकल जमींदार के साथ ही रहने लगा था. यह सब सोच कर किसान बहुत ही चिंतित था उसे कुछ भी रास्ता नहीं दिख रहा था.
  अब आप ही  बताएं आखिर यह किसान करे तो क्यां करे ?
१) क्या उसे  सच्चाई का रास्ता छोड़ देना चाहियें ?
२)  क्या उसे  उनका जवाब उन्ही के भाषा  में देना  चाहियें ?
३) या उसे आपनी  सारी  जमीं जमींदार के हवाले कर देनी चाहियें?
४) या उसे इसी तरह जीवन बिताना चाहियें?
हमारे इमानदार किसान को आपके जवाब का इन्तजार हैं.


इस कहानी में जो काल्पिनिक पात्र हैं उनका विवरण कुछ इस तरह  हैं.      
जमींदार......चीन 
किसान......भारत 
पहला पडोसी ......पकिस्तान 
दुसरा पडोसी ......बंगलादेश 
तीसरा पडोसी .......नेपाल
सरपंच.......संयुक्त संस्थान